प्रदीप हिन्दू योगी सेवक's Album: Wall Photos

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क्रान्ति १८५७ : कानपुर का सत्ती चौरा कांड जब निषादॊ ( मल्लाहों ) ने अंग्रेजॊ को नदी में डुबाकर मार डाला था पूरी कहानी आप भी जानिये मल्लाहों की वीर गाथा देश जो आजाद करवाने में निषाद वन्शियो ने दिये कई बलिदान ।
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१८५७ की क्रांति के समय कानपुर सैनिकों की महत्वपूर्ण छावनी थी । यहाँ हिन्दू मुसलमानों व सैनिकों की गुप्त सभाए होती थी । कानपुर की रक्षा करने के लिये यहां के राजा से सर व्हीलर ने अनुरोध किया था । कुछ पूर्व ही जिसका राज मुकुट पैरों तले कुचलकर ब्रितानी ने चूर-चूर किया था उससे ही अपनी विपत्ति के समय ब्रितानी आज सहायता के लिये याचना कर रहे थे.
२२ मई को तोपों,सैनिकों व कुछ पैदल व घुडसवार दल के साथ नानासाहब कानपुर में प्रविष्ट हुए । यह तो निश्चित ही था कि कानपुर में विद्रोह होते ही कोष लूटा जाएगा उसके सरंक्षण का दायित्व नाना साहब को दिया गया । कलेक्टर हिलर्सडेन ने नाना व तांत्या टोपे का हार्दिक आभार माना उस समय पूरी जनता पर युद्ध व स्वतंत्रता का भूत सवार था । विद्रोह के आरंभ के दिन तक भी बहादुरशाह,नाना साहब व झांसी की रानी के हलचलों के विषय में ब्रितानियों को बिलकुल पता न था । १ जून को नाना साहब अपने भाई बालासाहब व मंत्री अजीमुल्ला खां के साथ गंगा किनारे पहुँचे ।

४ जून को असंतोष का विस्फ़ोट हुआ । भवनों को आग लगा दी गई । सूबेदार टिक्कासिंह ने फ़िरंगियों केविरुद्ध अपनी सेना के साथ विद्रोह किया । उसके बाद वह नवाबगंज में नाना की छावनी की ओर चल पडे़ । नाना के सैनिक नवाबगंज के कोषागार पर खड़े थे. उन्होंने बारूद के भंड़ार को कब्जे में कर लिया लेकिन एक भी ब्रितानी नहीं मारा ग़या । सर व्हीलर इसी बात से संतुष्ट था कि सैनिक दिल्ली की और चले जाऐंगे व कानपुर का संकट टल जाएगा । सच है अगर कानपुर में कुशल नेताओं की कमी होती तो व्हीलर की कल्पना हकीकत में बदल जाती थी । सैनिकों ने नाना को अपना राजा घोषित किया ।
सैनिक दिल्ली नहीं जा रहे यह सुनते ही ब्रितानियों ने नव निर्मित गढ़ी का आश्रय लिया व तोपखाने सुसज्जित रखे ।

किलें की घेराबंदी
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नाना साहब ने किले की घेराबंदी की और अंग्रेजो को आत्मसमर्पण के लिए १२ घंटे का समय दिया ।
६ जून १८५७ को १२ घन्टे की अवधि समाप्त हो जाने के बाद अँग्रेजों के इस किले पर धावा बोल दिया । व्हीलर ने सभी अँग्रेजों को शीघ्रतापूर्वक किले के भीतरी भाग में आ जाने के लिए कहा, परन्तु कुछ लोगों को आने में देर हुई और वे मार डाले गये । ६ जून को प्रात: १० बजे किले पर नाना साहब की तोप का पहला गोला गिरा । ६ से २६ जून तक किले पर नाना साहब की विशाल तोपें,जिन्हें वे नवाबगंज की मैगजीन से ले जाया करते थे, लगातार भयंकर गोलाबारी करती रहीं ।
९ तारीख को ७ नं. रिसाले तथा ४८ वीं देशी पलटन की दो कंपनियों ने जो उस समय चौबेपुर में पड़ाव डाले पड़ी थीं । विद्रोह कर दिया और समस्त अँग्रेज अफसरों को मार डाला ।
उसी दिन फ़तेहपुर से ६०-७० अँग्रेज नाव-द्वारा गंगा से होते हुए नवाबगंज पहुँचे , जहाँ उन सबको मार डाला गया ।

११ तारीख़ को किले पर आम आक्रमण आरंभ हुआ । परन्तु उसे विफल बना दिया गया । १३ तारीख़ को बैरक पर पड़े एक छप्पर में आग लग गई जिससे सारा डाक्टरी सामान नष्ट हो गया तथा किले में मौजूद सैनिकों के लिए जून की प्रचंड गर्मी से बचने का एकमात्र साधन भी चला गया । १४ तारीख़ को एक तोप भी नष्ट हो गई ।
अँग्रेजों की कठिनाइयाँ दिन ब दिन बढ़ती जा रही थीं । रसद कम हो गई थी और किले के चारों ओर का घेरा दिन-प्रतिदिन कड़ा होता जा रहा था । ६ तारीख़ को अवध लोकल इन्फेंट्री की चौथी तथा पाँचवीं पलटने भी जाकर नाना की फ़ौज में मिल गई । इन नई पलटनों ने आकर एक नये स्थान से अपनी तोपों द्वारा किले के भीतर उस स्थान पर गोले बरसाने आरंभ किये जहाँ कुआँ था । किले के लोगों के लिए पानी प्राप्त करने का यही एकमात्र साधन था ।

अँग्रेजों द्वारा आत्म-समर्पण
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इन सब कठिनाइयों को अंग्रेज कब तक झेल पाते ? अंत में २७ जून को किले के अंदर से सफ़ेद झंडा लहरा कर जनरल व्हीलर ने अपने तमाम सैनिकों के साथ आत्म-समर्पण कर दिया ।
नाना साहब की शर्तें उन्होंने स्वीकार कर लीं और २७ तारीख़ को अँग्रेजों का किले से निकलकर गंगा के रास्ते इलाहाबाद जाना तय हुआ । ४० नावें सत्तीचौरा घाट पर लगाई गयीं ।

सत्तीचौरा कांड
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अँग्रेजों को पहरे में किले से घाट तक लाया गया । हरदेव मंदिर के चबूतरे पर भारी भीड़ एकत्रित थी । लोग अंग्रेज़ों का मान मर्दन देखने के लिए उतावले थे । अजीमुल्ला खां,बाबा भट्ट बालारव,कोतवाल भी वहीं थे । लगभग ४० नावों की व्यवस्था जा चुकी थी । तात्या इस सारी व्यवस्था पर नज़र रखे हुए थे ।
जैसे ही अंग्रेज सिपाही नदी के किनारे पहुँचे लोग उन्हें देखने के लिए उत्सुक हो उठे । ये सकुशल इलाहाबाद भेज दिये गये होते । लेकिन छठी देशी पलटन के इलाहाबाद से कानपुर आये सिपाहियों ने यहाँ के लोगों को नील के अत्याचारों के बारे में बताया क़ि किस प्रकार बाज़ार लुटे गये ,गाँव के गाँव जला दिए गये । पुरुषों और बालकों को इन अंग्रेजों ने फाँसी पर चढ़ा दिया । नवजात शिशुओं को संगीनों से गोद दिया और इन अंग्रेजों ने औरतों और बच्चियों से बलात्कार किये । ये ख़बर सुनते हीं आम जनसमूह और सिपाहियों का क्रोध चरम पर पहुँच गया ।
जैसे ही फिरंगियों से भरी नाव चली,भीड़ में से किसी ने बिगुल बजा दिया । जिसे सुन कर मल्लाह नाव को छोड़ कर नदी में कूद पड़े नावें डूबने लगीं । अंग्रेजों ने मल्लाहों पर गोलियाँ चलायीं , जिसके जवाब में घाट पर तैनात सिपाहियों ने भी गोलियाँ चलायीं ।
सिपाही नावों पर भूखे भेडियों की तरह टूट पड़े । सारी नावों में कोलाहल मच गया । कोई तैरने लगा, कोई डूब गया तथा किसी को गोली लगी । गंगा भी रक्त से रक्तिम हो गयी । सिपाही इतने आक्रोशित हो गए थे क़ि दाँतों से तलवार पकड़ कर तैर रहे थे और जहाँ उन्हें कोई शत्रु डूबता या तैरता हुआ मिलता तुरन्त उसके रक्त से अपनी तलवार रंग लेते थे । कुछ नावों में आग भी लग गयी और जो अंग्रेज इस से कूदे वो डूब कर मर गये ।

इस प्रकार पूरे १०० वर्ष बाद प्लासी के युद्ध की शताब्दी मनाई गई । व्हीलर आदि अधिकतर सभी अँग्रेज मार डाले गये । ज्योंही यह ख़बर नाना साहब को मिली उन्होंने तुरंत इस हत्याकांड को बंद करने का आदेश दिया । नरसंहार बन्द हुआ और बाक़ी बचे ३२५ स्त्री और बच्चों को पानी से निकाल कर सुरक्षित रूप से सवादा की कोठी में रखवा दिया गया । किले के घेरे के समय नाना साहब भी यहीं ठहरे हुए थे । इस अफ़रातफ़री में एक नाव बच कर भाग निकली जिसमें मोब्रे टामसन, डोला फ़ीस तथा कुछ अन्य अँग्रेज स्त्री,पुरुष तथा बच्चे सवार थे । ३० तारीख़ को यह नाव भी पकड़ लाई गयी । पुरुषों को नदी तट पर गोली मार दी गई तथा स्त्री और बच्चों को सवादा कोठी में पहुँचा दिया गया । इस नाव में भागने वाले केवल चार अँग्रेज मर्द बच निकले थे । जिन्हें मुरारमऊ के ज़मींदार दुर्विजय सिंह ने शरण दी । इस ज़मींदार ने इन भूखे-नंगे अँग्रेजों को एक महीने तक अपने यहाँ छिपाये रखा और फिर उन्हें इलाहाबाद पहुँचा दिया । फ़तेहपुर से भागे हुए अँग्रेजों की एक नाव ९ जुलाई को बिठूर में पकड़ी गई । उनमें से पुरुष तो फ़ौरन ही तलवार के घाट उतार दिये गये और स्त्री व बच्चों को बीवीघर की जेल में भेज दिया गया । बीवीघर को अँग्रेज अफ़सरों ने अपनी हिन्दुस्तानी रखैलों के लिए बनवाया था । यहीं पर बीवीघर कांड हुआ था । बीबी घर कांड को फिर कभी लेकर आउगा!

सत्तीचौरा कांड की याद में अंग्रेजों ने इस घाट को “ मैस्कर घाट “ नाम दिया था । इस कांड के प्रतिशोध में ३१ मई १८६० को ब्रिगेडियर ज्वाला प्रसाद को अंग्रेजों ने फाँसी दे दी । इसी मैस्कर घाट पर नाव उपलब्ध करवाने वाले मल्लाह बुद्धू चौधरी और लोचन मल्लाह को भी अंग्रेजों ने फाँसी पर लटका दिया ।
सत्तीचौरा कांड १८५७ एवं कानपुर के इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है ।