एके सत्पुरुषा: परार्थघटकाः स्वार्थं परित्यज्य ये,
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये।
तेअमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये,
ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे।।
इस संसार में जो स्वार्थ का परित्याग करके परोपकार में लगे रहते हैं, वे पुरुषोत्तम होते हैं। जो स्वार्थ की हानि किये बिना दूसरों के कार्य साधन बनते हैं, वे साधारण लोग होते हैं। जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के हितों को नष्ट करते हैं, वे मनुष्यों में राक्षसों के समान होते हैं, परंतु जो निष्प्रयोजन ही दूसरों के हितों को नष्ट करते हैं, वे कौन हैं यह हमें ज्ञात नहीं है।