Girdhar Jha's Album: Wall Photos

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वामन अवतार -
देव-दानव युद्ध मे दानवों के राजा बलि इन्द्र के वज्र से मृत हो चुके थे। दानवों के गुरु शुक्राचार्य ने अपनी संजीवनी विद्या से बलि तथा दूसरे दानवों को भी जीवित एवं स्वस्थ कर दिया। राजा बलि ने आचार्य की कृपा से जीवन प्राप्त किया था। वे सच्चे हृदय से आचार्य की सेवा में लग गये। शुक्राचार्य प्रसन्न हुए। उन्होंने दानवों की शक्ति वृद्धि हेतू यज्ञ कराया। अग्नि से दिव्य रथ, अक्षय त्रोण, अभेद्य कवच प्रकट हुए। आसुरी सेना अमरावती पर चढ़ दौड़ी। इन्द्र ने देखते ही समझ लिया कि इस बार देवता इस सेना का सामना नहीं कर सकेंगे। राजा बलि ब्रह्मतेज से पोषित थे। देवगुरु के आदेश से देवता स्वर्ग छोड़कर भाग गये। अमर-धाम इंद्रलोक असुर-राजधानी बना। शुक्राचार्य ने बलि का इन्द्रत्व स्थिर करने के लिये अश्वमेध यज्ञ कराना प्रारम्भ किया। सौ अश्वमेध करके बलि नियम सम्मत इन्द्र बन जायँगे ये शुक्राचार्य की योजना थी। फिर बलि को कोई भी इन्द्रासन से नही हटा सकता है।

स्वर्ग से निष्कासित देवताओं की दयनीय स्थिति देवमाता अदिति को देखा नही गया । उन्होंने विष्णु को प्रसन्न करने हेतू घोर तप किया । तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु प्रकट हुवे तो देवमाता अदिति ने अपने कष्ट के बारे में बताते हुवे कहा कि 'स्वामी, मेरे पुत्र मारे-मारे फिर रहे हैं। उन्हें उनका उचित स्थान पुनः प्राप्त हो इस हेतू कोई उपाय करें' । अदिति के बारह दिन के पयोव्रत से प्रसन्न हो प्रभु विष्णु उन्हीं के गर्भ से प्रकट हुए। शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी चतुर्भुज पुरुष अदिति के गर्भ से जब प्रकट हुए और तत्काल वामन ब्रह्मचारी बन गये। महर्षि कश्यप ने ऋषियों के साथ उनका उपनयन संस्कार सम्पन्न किया। भगवान वामन पिता से आज्ञा लेकर बलि के यहाँ चले। नर्मदा के उत्तर-तट पर असुरेन्द्र बलि अश्वमेध-यज्ञ कर्म में व्यस्त थे। यह उनका 100 वाँ अन्तिम अश्वमेध यज्ञ था।

छत्र, पलाश, दण्ड तथा कमण्डलु लिये, जटाधारी, अग्नि के समान तेजस्वी वामन ब्रह्मचारी वहाँ पधारे। बलि, शुक्राचार्य, ऋषिगण, सभी उस तेज से अभिभूत अपनी अग्नियों के साथ उठ खड़े हुए। बलि ने उनके चरण धोये, पूजन किया और प्रार्थना की कि जो भी इच्छा हो, वे माँग लें। 'मुझे अपने पैरों से तीन पद भूमि चाहिये!' बलि के कुल की शूरता, उदारता आदि की प्रशंसा करके वामन ने माँगा। बलि ने बहुत आग्रह किया कि और कुछ माँगा जाय; पर वामन ने जो माँगना था, वही माँगा था।
'ये साक्षात विष्णु हैं!' आचार्य शुक्र ने सावधान बलि किया और समझाया कि ये विष्णु अवतार वामन है, इनके छल में आने से सर्वस्व चला जायगा। बलि का जबाब था 'ये कोई हों, प्रह्लाद (विष्णु भक्त, जिसे बचाने भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लिया था) का पौत्र देने को कहकर अस्वीकार नहीं करेगा!' बलि स्थिर रहे। क्रोधित शुक्राचार्य ने ऐश्वर्य-नाश का शाप दे दिया। बलि ने अंजुरी में जल ले भूमिदान का संकल्प किया और देखते देखते वामन विराट हो गये। एक पद में पृथ्वी, एक में स्वर्गादि संग ब्रह्मांड लोक नाप लिया । उनका वाम पद ब्रह्मलोक से ऊपर तक गया, इस क्रम में उनकेअंगुष्ठ-नख से ब्रह्माण्ड का आवरण तनिक टूट गया। ब्रह्मदेव वहाँ से ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हुवे । ब्रह्मा जी ने भगवान का चरण धोया और चरणोदक के साथ उस ब्रह्मद्रव को अपने कमण्ड में ले लिया। यही ब्रह्मद्रव गंगा बनी । तीसरा पद रखने का स्थान तो बचा ही नही । वामन ने राजा बलि से पूछा 'तीसरा पद रखने को स्थान कहाँ है?' बलि ने विनम्रता से कहा 'सम्पति से बड़ा सम्पति का स्वामी होता है आपने सम्पति को नाप कर अपने अधीन किया है । सम्पति का स्वामी होने के नाते आप अपना तीसरा पद मेरे मस्तक पर रख ले!' बलि ने मस्तक झुकाया। प्रभु ने वहाँ चरण रखा। बलि गरुड़ द्वारा बाँध लिये गये। बलि की दानशीलता से प्रसन्न हो वामन ने आशीर्वाद दिया कि 'तुम अगले मन्वतर में इन्द्र बनोगे! तब तक सुतल (पाताल लोक) में निवास करो। मैं नित्य तुम्हारे द्वार पर गदापाणि ले कर उपस्थित रहूँगा।' बलि सब असुरों को लेकर स्वर्गाधिक ऐश्वर्यसम्पन्न सुतल लोक में पधारे। शुक्राचार्य ने भगवान के आदेश से यज्ञ पूरा किया।
महेन्द्र को स्वर्ग प्राप्त हुआ। ब्रह्मा जी ने भगवान वामन को 'उपेन्द्र' पद प्रदान किया। वे इन्द्र के रक्षक होकर अमरावती में अधिष्ठित हुए। बलि के द्वार पर गदापाणि द्वारपाल तो बन ही चुके थे। त्रेता युग में दिग्विजय के लिये रावण ने जब पाताल-प्रवेश की धृष्टता की। बेचारा असुरेश्वर के दर्शन तक न कर सका। बलि के द्वारपाल ने पैर के अँगूठे से उसे फेंक दिया। वह पृथ्वी पर सौ योजन दूर लंका में आकर गिरा था।
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