स्लेट की बत्ती को जीभ से चाटकर कैल्शियम की कमी पूरी करना हमारी स्थाई आदत थी लेकिन इसमें पापबोध भी था कि कहीं विद्यामाता नाराज न हो जायें
*पढ़ाई का तनाव हमने पेन्सिल का पिछला हिस्सा चबाकर मिटाया था ।*
"पुस्तक के बीच विद्या , *पौधे की पत्ती* *और मोरपंख रखने* से हम होशियार हो जाएंगे ऐसा हमारा दृढ विश्वास था"।
घर पर पुराने पर्दे से सिले हुए कपड़े के थैले में किताब कॉपियां जमाने का विन्यास हमारा रचनात्मक कौशल था ।
*हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का वार्षिक उत्सव था *
*माता पिता को हमारी पढ़ाई की कोई फ़िक्र नहीं थी , न हमारी पढ़ाई उनकी जेब पर बोझा थी* ।
पॉकेट मनी वो होती थी जब किराने की दुकान से सामान लाने पर कुछ चिल्लर बच जाए।
सालों साल बीत जाते पर माता पिता के कदम हमारे स्कूल में न पड़ते थे । पैरेंट टीचर मीटिंग जैसा कोई सिस्टम नही था।
*कोहरे वाली सर्दी में ऊन का स्कार्फ बांध स्वेटर पर स्वेटर पहन साईकल से हमने कितने रास्ते नापें हैं , यह अब याद नहीं बस कुछ धुंधली सी स्मृतियां हैं।
कपड़े धोने की मुंगरी से दीवार पर 3 लाइन खींच कर मोहहल्ला क्रिकेट के ना जाने कितने मैच खेल डाले
हेयरपिन से इक्कल दुक्कल वाला खेल तब स्टापू नही कहलाता था
स्कूल की काई लगी टँकी से पानी पीने पर हमें कभी बीमारी नही हुई
बोर्नविटा हमारे लिए रईसी थी और कूलर शाही ज़िंदगी
कुट्टी और अब्बा से दोस्ती के बहुत से पड़ाव तय हो जाते थे
ढीले मोज़ों को रबर बैंड से रोक कर हम पूरा साल गुज़ार लेते थे
बस्ते में रखी कॉपी किताबो पर जब टिफिन के अचार का तेल लग जाता था तो माँ पर कितनी खुन्नस आती थी कि वो तेल हटाकर अचार क्यों नही रखती
टिफिन में बर्गर या सैंडविच नही बल्कि अखबार में लिपटे पराठे और अचार हमारा लंच होता था।
चाय में पारले जी डुबो कर खाना नाश्ता होता था।
गर्मी की घमोरियाँ भी हमे धूप में खेलने से नही रोक पाती थी
*स्कूल में पिटते हुए और मुर्गा बनते हमारा ईगो हमें कभी परेशान नहीं करता था , दरअसल हम जानते ही नही थे कि #ईगो होता क्या है ?*
पिटाई हमारे दैनिक जीवन की सहज सामान्य प्रक्रिया थी , "पीटने वाला और पिटने वाला दोनो खुश थे" ,
पिटने वाला इसलिए कि कम पिटे , पीटने वाला इसलिए खुश कि हाथ साफ़ हुवा।