मुरारीदास हरियानी वैष्णव मत के निम्बार्क संप्रदाय में जन्मे हैं।
इनका कुल निम्बार्क संप्रदाय के साधु या बाबा पंथ में आता है।
जिस प्रकार से शैव अखाड़ों के साधु गृहस्थी में चले गए तो गोस्वामी हो गए, वैष्णव रामानंदी अखाड़ों के साधु बैरागी हुए, नाथ भी नाथ ही रहे उसी प्रकार निम्बार्क संप्रदाय के साधु जो घुमक्कड़ जीवन में रहते हैं और विवाह नहीं करते हैं वो यदि किसी कारण से गृहस्थी में जाते हैं तो उन्हें संप्रदाय से दंडित कर बाहर निकालने के बजाय एक नई जाति के अंतर्गत ले लिया जाता है।
अखाड़ों की भी यही व्यवस्था है।
ये परिचय इसलिये आवश्यक है कि आपको समझ में आए कि जो व्यक्ति आज व्यासपीठ पर बैठकर जिहादियों की महिमा के भजन गा रहा है वो वस्तुतः किस महान परंपरा से है।
बहुत से लोगों को मुरारी की जाति ही पता नहीं है और वे उन्हें व्यासपीठ पर बैठने के अनधिकारी घोषित कर रहे हैं।
बहुत से लोगों को उनकी जाति के बारे में गलत सूचना भी है।
तथ्यों के साथ रहें तो मुरारीदास हरियानी वैष्णव सम्प्रदाय के साधु परिवार के होते हैं और इसलिये व्यासपीठ पर बैठकर सत्संग द्वारा धर्म जागरण उनका अधिकार भी है और जन्मना कर्तव्य भी।
इस पर कोई विवाद नहीं है।
किंतु.....
जिन मुरारीदास हरियानी ने अपने दादाजी से बचपन से ही रामचरितमानस की दीक्षा ली। उन्हें इतना भी विवेक नहीं रहा कि वो चकाचौंध के सम्मोहन में जिहादियों को महिमामंडित करने का पाप व्यासपीठ पर बैठकर कर रहे हैं???
युवावस्था में वे जब साइकिल पर बैठकर आसपास के क्षेत्र में कथा करते थे तब वो ऐसे नहीं थे।
तब के मुरारी बहुत सरल और भावगम्य कथा करते थे ऐसा उन्हें तब सुनने वाले कहते हैं।
किंतु ये प्राचीन काल से ही स्थापित नियम है कि भगवान के लिए कार्य करने वाले लोग माया के चक्कर में न पड़ें तो ही सम्मान और योगक्षेम का यथोचित वहन भगवान उनके लिए करते हैं।
यहाँ मुरारी से भूल हो गई और वो अकेले नहीं हैं जिनसे ऐसी भूल हुई है।
किंतु प्रमाण है कि जब जब कोई संत की पहचान बनाने के बाद अमर्यादित आचरण करता है तो उसे आगेपीछे परिणाम भी भोगना ही पड़ता है।
एक और बापू के कारनामे तो और खतरनाक थे। किंतु यहाँ उनके पालतू जानवरों की भीड़ गदर मचा देती है इसलिए सब समझते हुए भी विवाद में रुचि नहीं रखने वाले चुप रहते हैं।
इस चुप रहने को उनकी मंडली अपना समर्थन बताती है और उनके अनुचित कर्मों को भी जबरन उचित ठहराया जाता है।
सनातन संस्कृति की कौड़ी भर समझ भी न रखने वाले हमारे कथित हिन्दू रक्षक दल भी ऐसे बापुओं की पैरवी करने आ जाते हैं जबकि ब्राह्मण इनके लिए भी देश में छुआछूत फैलाने का अपराधी है।
व्यासपीठ पर बैठकर कोई भी बकवास करने लगता है उस पर नींद नहीं खुलती है परन्तु अपने झुंड में अंबेडकरवादियों की भर्ती को प्रोत्साहित करने के लिए ब्राह्मणों के सिर पर सारे पाप का ठीकरा फोड़ना उचित लगता है।
ये किस प्रकार की धर्म रक्षा है समझ में नहीं आ रहा???
आए दिन फर्जी बाबाओं को यही लोग मुंह लगाते हैं और मंच उपलब्ध करके बड़ा बापू बनाते हैं और फिर वो कोई कुकर्म करता है तो ठीकरा फूटता है ब्राह्मणों और साधु संतों के सिर पर।
फर्जी बाबाओं का तो कुछ नहीं बिगड़ता पर समाज में ब्राह्मणों और अखाड़ों तथा मठों के साधु संन्यासियों की छवि बिगड़ती है।
इस प्रपंच से इन्हें कोई लेना देना नहीं। आदमी इनकी जीहुजूरी करे और सनातन संस्कृति को पलीता लगाता रहे तो भी चलेगा।
मुरारी बहुत प्रसिद्ध हो गए हैं और यही उनके लिए विष साबित हो गया है।
उनके चरित्र पर आजतक लंपटता का कोई आक्षेप नहीं है जो पूर्ववर्ती बापुओं की चारित्रिक गुणवत्ता रहा है।
किंतु भीड़ को आकर्षित करने के लिए कुछ हटकर प्रस्तुत करने की मूर्खतापूर्ण जिद उनके लिये आज जनाक्रोश की कारण बनी है।
ऐसा प्रतीत होता है कि एक समय सफलता के शिखर पर पहुँच कर मुरारीदास हरियानी की महत्वाकांक्षा ने विराम नहीं लिया और उन्होंने ८० के दशक में धूमकेतु की तरह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उभरे भारतीय दार्शनिक #आचार्य_रजनीश उर्फ #ओशो से बिना स्वयं को समझे प्रेरणा ले ली।
ओशो ने अपने संपूर्ण सार्वजनिक जीवनकाल में सतत् विरोधाभासी और विवादास्पद वक्तव्य दिये थे जो उनकी प्रसिद्धि के बड़े कारण थे।
किंतु ओशो प्रतिभाशाली होने के साथ साहसी भी थे।
उन्होंने हिंदू धर्म पर विवादित विचार रखे, स्वयं जैन होते हुए भी जैनों पर कड़वे कटाक्ष किये, ईसाईयों पर तो अमेरिका में बैठकर घातक प्रहार किये।
किंतु अमेरिका द्वारा विष दिये जाने पर भी और हिंदुओं व जैनों द्वारा जबरदस्त विरोध के बावजूद भी कभी डरकर आंसू बहाते हुए क्षमा नहीं मांगी।
यही ओशो की मौलिकता थी जिसे मुरारीदास हरियानी कॉपी पेस्ट नहीं कर पाए।
विवाद के माध्यम से प्रसिद्धि पाने का ये मुरारीदास हरियानी का पहला प्रयास नहीं था।
बहुत पहले इन्होंने अपने कुछ धनाढ्य चेले चपाटे इकट्ठे कर गिर अभयारण्य में सिंहों के बीच कोई नौटंकी की थी जिस पर पोरबंदर के एक वकील साहब ने आपत्ति भी ली थी और इन्हें नोटिस जारी किया गया था गुजरात सरकार की ओर से। तब भी ये माफी मांग कर पतली गली से भागे थे।
इनके द्वारा एक अस्पताल के लिए दान मांगा गया था जिसमें ये अहमद पटेल के साथ खड़े हुए थे।
कुछ समय बाद वहाँ से एक आतंकी स्लीपर सेल पकड़ में आया था। तब गुजरात की लोकल मीडिया में इनकी राष्ट्र के प्रति निष्ठा पर प्रश्न उठा था।
किंतु लोकल मीडिया की ज्यादा पहुँच नहीं होती है इसलिए इन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ा।
फिर चिता पर वैवाहिक संस्कार, अयोध्या में वैश्याओं के साथ नौटंकी, कथाओं में लगातार अल्लाह मौला के भजन वो भी बिलकुल किसी कट्टर आस्थावान मुस्लिम की भांति भावभंगिमाएँ प्रदर्शित करते हुए, तो कभी तो सीमा आनी ही थी।
मुरारीदास ने सोचा होगा कि वो हिंदुओं पर विवादित बयान देंगे और हिंदू सदा की तरह थोड़ा सा विरोध कर चुप हो जाएंगे।
किंतु इस बार पिछले सारे पापों का हिसाब खुल रहा है।
व्यासपीठ सनातन संस्कृति की वैचारिक पुष्टि की माध्यम है। उसे प्रदूषित करने वालों के लिए एक ही प्रायश्चित्त है कि वो आगे से आजीवन इससे दूर रहें और अपना शेष जीवन मौन व एकांत में स्वयं को खोजने में व्यतीत करें।