'कश्मीर' के राजौरी के 'लक्ष्मण दास' जो शिकार के शौक़ीन थे, उन्होंने एक दिन एक हिरनी का शिकार किया, हिरनी के दो बच्चे दो बच्चे जो उसके पेट में थे, तड़प-तड़प कर मर गये। इस दृश्य ने 'लक्ष्मण' के मन में वैराग्य पैदा कर दिया और उसने इस द्रवित करने वाली घटना के बाद शिकार करना तो छोड़ा ही, भौतिक दुनिया भी छोड़ दिया और जाकर 'गोदावरी' के किनारे संन्यासी हो गये और संन्यास धर्म के अनुसार अपना नाम बदलकर 'वैरागी माधोदास' रख लिया और जप-तप-ध्यान तपस्या में लीन रहने लगे।
उसी दौरान पंजाब में हौसला छोड़कर अपना सबकुछ खो चुके 'दशमेश गुरु गोविंद सिंह जी' महाराष्ट्र आ गए थे और पता नहीं क्यों वो किसी सैनिक, सेनापति या राजा के पास जाने के बजाये 'वैरागी माधोदास' के पास उनके आश्रम पहुँच गए। दोनों ने ध्यान-बल से एक-दूसरे को पहचान लिया तो पिता दशमेश ने माधोदास से कहा, कभी किसी हिरनी और उसके बच्चों को मरता देखकर इतना संतप्त हुए थे और आज वैसे ही कई बहेलियें हिन्दुओं की न जाने कितनी ही माओं की कोख उजाड़ रहे हैं और तुम तक उनकी क्रन्दन भी नहीं पहुँच रही? व्यक्तिगत हित को छोड़कर बाहर निकलो, तलवार उठाओ और संतप्त हिन्दू प्रजा को अभय दो माधोदास। माला तजकर भाला उठाओ संन्यासी।
माधोदास हतप्रभ थे कि इन्हें हिरणी वाली बात कैसे पता चली, इसी हैरानी में जब वैरागी माधोदास ध्यानलीन हुए तो देख लिया कि दशमेश जो कह रहे थे वो सब सत्य है, तो वो कह उठे, गुरुदेव ! मैं तो आपका बंदा हूँ और आपके ऊपर और हिन्दू समाज के ऊपर मलेच्छों ने जो अत्याचार किये हैं, मैं सबका बदला लेने को प्रस्तुत हूँ। आप आदेश करें....
जीवन के अंतिम दौर में थे दशमेश और उनकी सारी आशा का बिंदु इसी संन्यासी में निहित थी माधोदास को उन्होंने "बंदा बहादुर" नाम दिया और "बंदा सिंह बैरागी" के सर पर अपने आशीर्वाद के हाथ रखे और 25 वीर सिंहों के साथ प्रतीक रूप में उन्हें एक खड्ग और पाँच तीर दिए और विजयी भवः का आशीर्वाद दिया।
उनके चले जाने के बाद 'बंदा' महाकाल बनकर उन सब पर टूट पड़े जिन्होंने दशमेश के परिवारजनों पर अत्याचार किया था।
1710 में बाबा बंदा सिंह जी ने सरहिन्द से आकियों की हुकूमत खत्म कर दी और तीन तक वो और उनके साथियों ने गुरु महाराज के परिवार को यातना देने वालों पर अनथक अत्याचार किये। फिर उनके पास देबबन्द के हिंदुओं का खत आया कि हमें जलालाबाद के हाकिम के अत्याचार से बचाइए और उनकी इस अपील पर बंदा वहां पहुँच गये और वहां से सारे अनाचारियों को खदेड़ दिया।
इस अजेय योद्धा ने पूर्वी भारत के मुस्लिम हुकूमत की जड़ों में मट्ठा डाल दिया। गुरुपुत्रों के कातिलों को चुनचुन कर मारा। दिल्ली दरबार को भी बंदा नेस्तनाबूद करना चाहते थे पर उनके ख़ालसा सिपाही उनके प्रति पूरे वफादार नहीं रहे अन्यथा दिल्ली दरबार को बंदा धूल में मिला देते। दुश्मन बंदा को "यमदूत" बुलाते थे।
बंदा के ऊपर उनके अपनों ने कई दोषारोपण किये जिसमें सबसे बड़ा आरोप था कि वो अमृतधारी सिख नहीं बने थे। उनके कई साथियों ने मुगल फर्रुखसियर से समझौते करके जिंदगी की सबसे मुश्किल घड़ी में बंदा को न केवल अकेला छोड़ा बल्कि उन्हें मुगलों के हाथों पकड़वा भी दिया।
सन 1716 में बंदा को उनके 740 साथियों के साथ गिरफ्तार किया गया। उन्हें लोहे के पिंजरे में रखकर दिल्ली लाया गया और उनके आगे भाले के नोक पर टँगे सिखों के सिरों का जुलूस था । बंदा को उनके अपने हाथों अपने पुत्र के कत्ल करने पर मजबूर किया गया। फिर उनके मांस को चिमटे से नोंच-नोंच कर उतारा गया और बर्बर तरीके से उनको तड़पा कर मारा गया।
बंदा संभवतः हेमू के बाद अकेले थे जो दिल्ली मुगल दरबार को धूल में मिलाने की कुव्वत रखते थे पर अपनों की गद्दारी ने उन्हें ये अवसर नहीं दिया।
बंदा व्यवहार में कट्टर वैष्णव थे और यही उनके अंत के कारण बना। अपनों ने बंदा के साथ गद्दारी न की होती तो आज पंजाब ही नहीं पूरे भारत की तारीख़ कुछ और होती और शायद ये भी होता कि बंदा की तलवार दक्षिण तक सिंह गर्जना करती।
अफ़सोस....सौभाग्य उदित होने से पहले ही हमेशा की तरह हिन्दू जाति का दुर्भाग्य यहाँ भी आड़े आ गया और गुरु का सिंह बलिदान देकर इतिहास में अमर हो गया।
कभी खुद से, अपने बच्चों से या किसी युवा से पूछिए कि क्या उन्होंने इस वीर का नाम सुना है? इसके बलिदान की गाथा सुनी है? अगर नहीं सुनी है तो उसे कौन सुनायेगा?
क्या इतिहास की किताबें बाबा बंदा बैरागी का स्मरण नहीं कराएंगी तो क्या हम भी उन्हें भूल जायेंगे?
ये प्रश्न स्वयं से पूछिए और वीर बंदा का स्मरण हर हिन्दू को कराइए !