सावन शिवरात्रि प्रत्येक साल 12 मासिक शिवरात्रियां आती है। जो कि हर माह कि चतुर्दशी के दिन पड़ती है। लेकिन इन सभी शिवरात्रियो में फाल्गुन मास और सावन मास की शिवरात्रियों को ज्यादा महत्व दिया गया है। लोगों की शिवरात्रि में गहरी आस्था है।शिवरात्रि में मुख्य रूप से भगवान शिव की पूजा - अर्चना की जाती है।
शास्त्रों के अनुसार शिवरात्रि की रात में भगवान शिव की विधिवत पूजा करने से सभी दुखों का नाश होता है और जीवन के सभी सुखों की प्राप्ति होती है।सावन मे भगवान शिव को बेल पत्र अर्पित करने से धन, सुख और शांति सभी की प्राप्ति होती है।
सावन की शिवरात्रि के दिन अगर कोई कुंवारी कन्या व्रत रखती है तो उसे मनचाहा वर प्राप्त होता है। सावन मास में लोग कांवड़ लेकर जल लेने जाते हैं और शिवरात्रि के दिन भगवान शिव को उस जल से स्नान कराते हैं।
1.सावन शिवरात्रि के दिन सुबह के समय जल्दी उठें और भगवान शिव के मंदिर में जांए
2.इसके बाद भगवान शिव , माता पार्वती और नंदी को पंचामृत से स्नान करांए।
3.स्नान कराने के बाद भगवान शिव को उनकी प्रिय वस्तु जैसे बेलपत्र , धतूरा, कच्चे चावल , घी और शहद अर्पित करें।
4.इसके बाद शिवलिंग को धूप -दीप दिखाकर जल चढ़ाना चाहिए।
5.सावन की शिवरात्रि में खट्टी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए और इस दिन काले रंग के वस्त्र भी न पहने।
सावन शिवरात्रि कथा
पौराणिक कथा के अनुसार वाराणसी के वन में एक भील रहा करता था।जिसका नाम गुरुद्रुह था। वह वन में रहने वाले प्राणियों का शिकार करके अपने परिवार का पालन करता था। एक बार शिवरात्रि के दिन वह शिकार करने वन में गया। उस दिन उसे दिनभर कोई शिकार नहीं मिला और रात भी हो गई। तभी उसे वन में एक झील दिखाई दी। उसने सोचा मैं यहीं पेड़ पर चढ़कर शिकार की राह देखता हूं। कोई न कोई प्राणी यहां पानी पीने आएगा।
यह सोचकर वह पानी का पात्र भरकर बिल्ववृक्ष पर चढ़ गया। उस वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थापित था। थोड़ी देर बाद वहां एक हिरनी आई। गुरुद्रुह ने जैसे ही हिरनी को मारने के लिए धनुष पर तीर चढ़ाया तो बिल्ववृक्ष के पत्ते और जल शिवलिंग पर गिरे। इस प्रकार रात के प्रथम प्रहर में अंजाने में ही उसके द्वारा शिवलिंग की पूजा हो गई। तभी हिरनी ने उसे देख लिया और उससे पुछा कि तुम क्या चाहते हो।
वह बोला कि तुम्हें मारकर मैं अपने परिवार का पालन करूंगा। यह सुनकर हिरनी बोली कि मेरे बच्चे मेरी राह देख रहे होंगे। मैं उन्हें अपनी बहन को सौंपकर लौट आऊंगी। हिरनी के ऐसा कहने पर शिकारी ने उसे छोड़ दिया। थोड़ी देर बाद उस हिरनी की बहन उसे खोजते हुए झील के पास आ गई। शिकारी ने उसे देखकर पुन: अपने धनुष पर तीर चढ़ाया। इस बार भी रात के दूसरे प्रहर में बिल्ववृक्ष के पत्ते व जल शिवलिंग पर गिरे और शिव की पूजा हो गई।
उस हिरनी ने भी अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर रखकर आने को कहा। शिकारी ने उसे भी जाने दिया। थोड़ी देर बाद वहां एक हिरन अपनी हिरनी को खोज में आया। इस बार भी वही सब हुआ और तीसरे प्रहर में भी शिवलिंग की पूजा हो गई। वह हिरन भी अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर छोड़कर आने की बात कहकर चला गया। जब वह तीनों हिरनी व हिरन मिले तो प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण तीनों शिकारी के पास आ गए।
सबको एक साथ देखकर शिकारी बड़ा खुश हुआ और उसने फिर से अपने धनुष पर बाण चढ़ाया जिससे चौथे प्रहर में पुन: शिवलिंग की पूजा हो गई। इस प्रकार गुरुद्रुह दिनभर भूखा-प्यासा रहकर वह रातभर जागता रहा और चारों प्रहर अंजाने में ही उससे शिव की पूजा हो गई और शिवरात्रि का व्रत संपन्न हो गया, जिसके प्रभाव से उसके पाप तत्काल भी भस्म हो गए। पुण्य उदय होते ही उसने सभी हिरनों को मारने का विचार त्याग दिया।
तभी शिवलिंग से भगवान शंकर प्रकट हुए और उन्होंने गुरुद्रुह को वरदान दिया कि त्रेतायुग में भगवान राम तुम्हारे घर आएंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे। तुम्हें मोक्ष भी प्राप्त होगा। इस प्रकार अंजाने में किए गए शिवरात्रि व्रत से भगवान शंकर ने शिकारी को मोक्ष प्रदान कर दिया।
जानें शिवजी के नाग ,त्रिशुल और डमरू का रहस्य
शिवजी और नाग का रहस्य
भगवान शिव के गले में नाग सुशोभित है। जो नागों के राजा कहे जाते हैं। भगवान शिव के गले में जो नाग है उसका नाम वासुकी है। यह नागलोक पर राज किया करते थे। वासुकी ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी। जिसकी वजह से भगवान शिव ने वासुकी नाग को नागलोक का राजा होने का वरदान दिया था और साथ ही अपने गले में हमेशा लिपटे रहने का भी वरदान दिया था।
शिवजी और त्रिशुल का रहस्य
विद्वानों के अनुसार जब भगवान शिव प्रकट हुए थे।उस समय वह रज,तम और सत यह गुण लेकर सृष्टि में आए थे। भगवान शिव के इन तीन गुणों की वजह से त्रिशुल की उत्पत्ति हुई थी। इन तीनों गुणों को समान रखने के लिए ही भगवान शिव ने इन तीनों के रूप में त्रिशुल ही उत्पत्ति की और इस त्रिशुल को अपने हाथ में रखा।
शिवजी और डमरू का रहस्य
भगवान शिव के हाथ में डमरू भी सुशोभित है। पुराणों के अनुसार जब देवी सरस्वती ने सृष्टि में प्रकट हुई थी तो उन्होंने ध्वनि को जन्म दिया था। लेकिन इस ध्वनि के पास सुर और संगीत नही थे। इसलिए भगवान शिव ने नाचते हुए चौदह बार अपने डमरु को बजाया। जिसकी वजह से संगीत उत्पन्न हुआ था। इसलिए डमरू को ब्रह्म स्वरूप भी कहा जाता है।