आर्यसमाज के मूक प्रचारक साहित्य विक्रेताओं का सम्मान होना चाहिए।
आर्यसमाज का प्रचार केवल विद्वान् या भजनोपदेशक ही नहीं करते। अधिकारी या सामाज के सदस्यगण ही नहीं करते। आर्यसमाज का प्रचार करने वाले मूक प्रचारक हमारे साहित्य विक्रेता भी है। ध्यान देने योग्य यह बात है कि न तो इन्हें वह मान सम्मान मिलता हैं। न ही उचित दक्षिणा मिलती है। अपितु उनका शारीरिक श्रम भी बहुत अधिक होता हैं। गर्मी के मौसम में रेल के जनरल डिब्बों या सरकारी बसों की छत पर किताबों के बण्डल बांधकर, भूखे पेट दिन रात सफर कर आप लोग आर्यसमाज का साहित्य बेचते हैं। कभी कभी बहुत दूर दूर तक पैदल भी चलना पड़ता है। अनेक बार उन्हें तिरस्कार का सामना भी करना पड़ता है। उन्हें वैदिक साहित्य की बिक्री से जो धन मिलता है। उसी से उनके घरों का खर्च चलता है।
साहित्य के माध्यम से प्रचार करने वाले इन सभी गुमनाम आर्य विक्रेताओं को नमन। सभी पाठक आज यह संकल्प ले कि किसी भी आर्यसमाज के कार्यक्रम में जब भी वे जाये तो साहित्य विक्रेताओं के मनोबल को बढ़ाने के लिए उनसे साहित्य अवश्य ख़रीदे।