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. 7 जुलाई / जन्म-दिवस

मानवता के हमदर्द गुरु हरिकिशन जी

सिख पन्थ के इतिहास में आठवें गुरु हरिकिशन जी का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। सात जुलाई, 1657 को जन्मे गुरु हरिकिशन जी को बहुत छोटी अवस्था में गुरु गद्दी प्राप्त हुई तथा छोटी आयु में ही बीमारी के कारण उन्होंने देह त्याग दी, पर इस अल्प जीवन में भी उन्होंने वह काम किया, जिसके कारण उन्हें मानवता का हमदर्द माना जाता है। प्रतिदिन गुरुद्वारों में प्रार्थना के समय उनकी चर्चा करते हुए कहा जाता है - श्री हरिकिशन धियाइये, जिन डिट्ठे सब दुख जाये।

ऐसा कहते हैं कि सातवें गुरु हरिराय जी को सदा यह चिन्ता लगी रहती थी कि उनके बाद गुरु गद्दी कौन सँभालेगा। एक बार उन्होंने परीक्षा लेने के लिए एक भक्त को कहा कि नाम स्मरण के समय बड़े पुत्र रामराय तथा छोटे पुत्र हरिकिशन को सुई चुभा कर देखे। भक्त ने दोनों को सुई चुभाई, तो रामराय आपे से बाहर हो गये; पर हरिकिशन जी को उसका पता ही नहीं लगा। तब से गुरु हरिराय जी ने उन्हें गद्दी सौंपने का मन बना लिया। रामराय ने मुगल बादशाह औरंगजेब से सम्मान पाने के लिए गुरुवाणी के शब्द में बदल भी की थी। इससे समस्त सिख जगत उनसे नाराज था।

गुरु हरिकिशन जी बचपन से ही प्रतापी, उदारचित्त एवं सन्त स्वभाव के थे। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा बालगुरु हुआ हो, जिसने मानवता की भलाई के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर दिया हो। हरिकिशन जी के काल में एक बार दिल्ली में महामारी फैल गयी। दूर-दूर तक हैजे और चेचक से पीड़ित लोग ही नजर आते थे। ऐसे में हरिकिशन जी ने सबको ‘वाहे गुरु’ नाम जपने का सन्देश दिया।
उन्होंने निर्धन तथा रोग पीड़ित लोगों के लिए लंगर की व्यवस्था कराई तथा तन, मन और धन से उनकी सेवा की। इस सेवा कार्य में उन्होंने हिन्दू या मुसलमान का भेद नहीं किया। इस कारण हिन्दू इनको बाला प्रीतम या बाला गुरु तथा मुसलमान बाला पीर कहते थे।

सेवा के बारे मे गुरु हरिकिशन जी ने कहा है - सेवा करते होवे सिंह कामी, तिसको प्रापत होवे स्वामी।

इस सेवा कार्य में व्यस्त रहने के कारण उन्हें स्वयं रोगों ने घेर लिया। इसके बाद भी वे अपने से अधिक चिन्ता दूसरों की ही करते रहे। जब उनका रोग बहुत बढ़ गया, तो उन्हें अनुमान हो गया कि अब यह शरीर जाने वाला है। उन्होंने समस्त संगत तथा अपनी माता को दुखी देखकर कहा -
अब हम पुरधाम को जावै, तन तजि जोत समावै।।

अब समस्या आयी कि उनके बाद गुरु गद्दी का वारिस कौन होगा ? तब तक सिख पन्थ का प्रभाव इतना बढ़ चुका था कि अनेक लोग इस सर्वोच्च स्थान को पाने के इच्छुक थे। जब संगत ने गुरु हरिकिशन जी इस बारे में कुछ पूछा, तो उनके मुख से निकला - बाबा बकाला। यह बात फैलते ही बकाला गाँव में कई लोग धर्मात्मा का स्वांग कर बैठ गये; पर अन्ततः श्री तेगबहादुर जी को यह स्थान प्राप्त हुआ।

मानवता के सच्चे सेवक गुरु हरिकिशन जी की ज्योति 30 मार्च, 1664 को उस परम ज्योति में समा गयी। उन्होंने संसार को दिखा दिया कि सेवा कार्य या आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में उम्र कोई बाधा नहीं है। यदि किसी पर ईश्वर और गुरु की कृपा हो, तो वह अल्पावस्था में ही उच्च पद पा सकता है।