Muralidhar Vishwakarma's Album: Wall Photos

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#चपाती_आंदोलन ====

तात्या टोपे, वीर कुंवर सिंह, रानी लक्ष्मीबाई आदि ने बडे़ सुनियोजित ढंग से क्रांति की तिथि 10 मई 'रोटी और खिलता हुआ #कमल' को प्रतीक मानकर पूरे अखंड भारत में गुप्त ढंग से सूचना भेज रखी थी। #रोटी का अर्थ रहा हम सभी भारतीय अपनी रोटी मिल बांटकर खाएंगे तथा खिलते कमल का अर्थ कि हम सभी मिलकर देश को कमल के समान खिलते देखना चाहेंगे,अर्थात यह एक सूचना प्रदान करने की विधि थी ।

इस आंदोलन के बारे में मार्च 1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी के सैन्य सर्जन डॉक्टर गिलबर्ट हेडो ने जिक्र किया था । उन्होंने भारत से ब्रिटेन अपनी बहन को एक खत लिखा, जिसमें उन्होंने 'चपाती आंदोलन' का जिक्र किया। शायद भारतीय इतिहास में यह खत अकेला सबूत है कि भारत में ऐसा भी कोई आंदोलन हुआ था।

हैडो ने अपने खत में लिखा कि ''वर्तमान में पूरे भारत में एक रहस्यमय आंदोलन चल रहा है. वह क्या है कोई नहीं जानता? उसके पीछे की वजहों को आज तक तलाशा नहीं गया है? यह कोई धार्मिक आंदोलन है या कोई गुप्त समाज का षड्यंत्र? कोई कुछ नहीं जानता । कुछ पता है तो बस यह कि इसे 'चपाती आंदोलन' कहा जा रहा है.'

इस आंदोलन पर सबसे पहली नजर #मथुरा में पदस्थ मजिस्ट्रेट मार्क की गई। एक रोज वे अपनेे घर से थाने पहुंचे और पाया कि उनकी टेबिल पर कुछ सफेद से गोल बिस्किट जैसी चीज रखी है, जो पहली नजर में किसी गंदे केक की तरह दिखती है। उस पर काले-काले धब्बे भी हैं। चपाती का यह अजीब वर्णन इसलिए है, क्योंकि ब्रिटिश चपाती से परिचित नहीं थे और मार्क ने अपने आला अधिकारियों को चपाती की कुछ यही परिभाषा सुनाई थी।

मार्क ने मेज से #चपातियों को हटाया और सिपाही को बुलाकर उसके बारे में पूछा? सिपाही ने बताया कि एक भारतीय सिपाही को गांव से थैला मिला है, जिसमें इसी तरह की चपातियां भरी हुई हैं।
भारतीय सिपाही से पूछा गया, तो पता चला कि एक गांव के भारतीय चौकीदार ने यह बोरा पकड़ाया है। #चौकीदार से पूछा गया तो पता चला कि कोई रात को जंगल के रास्ते आया था और यह चपातियों से भरा बोरा देकर गया है। साथ ही कहा कि इसी तरह की और चपातियां बनाई जाएं और दूसरे गांव भिजवाई जाएं।कुछ दिनों में खबरें आनी शुरू हुईं कि इस तरह के बोरे आसपास के लगभग हर गांव, हर चौकी के पास मिल रहे हैं।

मार्क ने मामले को गंभीरता से लिया और जांच शुरू की।इस जांच में भारतीय सिपाहियों की मदद का कोई फायदा नहीं मिल रहा था,
वे स्वयं भी चपाती बनाने और बांटने में सहयोग कर रहे थे. एक अनुमान के अनुसार करीब ९० हजार से ज्यादा पुलिसकर्मी एकजुट होकर चपातियों के बोरे एक गांव से दूसरे गांव पहुंचा रहेे थे।

दिक्कत यह थी कि चपाती तो खाने का एक पदार्थ है।उस पर किसी के हस्ताक्षर नहीं हैं, कोई संदेश नहीं लिखा।यह कोई हिंसा का साधन नहीं है, इसलिए किसी को चपाती बनाने या बांटनेे से रोका नहीं जा सकता।

जांच के दौरान पता चला कि एक गांव में जो चपाती बनती है, वह रात भर में आपने आसपास का कम से कम 300 किलोमीटर तक का सफर तय कर दूसरे गांव में पहुंच जाती है. यानी चपाती पहुंचने की यह सुविधा उस दौर की ब्रिटिश मेल सुविधा से भी तेज थी। जो ब्रिटिश अधिकारियों के लिए सिर दर्द बनती जा रही थी। कुछ सप्ताह में चपाती बांटने की यह मुहिम और तेज हुई । मध्य भारत से लेकर नर्मदा नदी के किनारे-किनारे और दूसरी तरफ नेपाल तक इसकी पहुंच बन चुकी थी.

शायद चपाती बांटने वाले भी इस रहस्य से अनभिज्ञ थे कि आखिर यह काम हो क्यों रहा है? गांव में बस एक अंजान आदमी आता और रोटियों का बोरा थमाकर चला जाता। संदेश होता कि और रोटियां बनाओ और दूसरे गांव पहुंचाओ। क्यों??? इसका कोई जवाब नहीं।

कयास लगाए जाने लगे कि रोटियों के जरिए कोई गुप्त संदेश पहुंचाया जा रहा है? शायद कोई बहरूपियां सीमा पार करने के लिए रोटियों की मदद ले रहा है? या फिर कोई गुप्त आंदोलन की योजना बन रही है?
हालांकि यह केवल कयास थे, सबूत कुछ नहीं। रोटी पहुंचाने वाले आम आदमी थे, कहीं बच्चे, तो कहीं बुजुर्ग. ऐसे में सख्ती दिखाने का सवाल ही नहीं उठता।

1857 के विद्रोह से संबंधित कुछ दुर्लभ दस्तावेजों में लिखा है कि 5 मार्च 1857 तक चपाती अवध से रुहेलखंड और फिर दिल्ली समेत नेपाल तक पहुंच गई थी। ब्रिटिश अधिकारियों को जब कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने आंदोलन को रोकने के​ लिए अफवाह फैलाई की सरकार आटे में गाय सूअर के अवशेष है ताकि कोई हिंदू और मुस्लिम इन्हें हाथ न लगाए,हालांकि यह सारी कोशिशें नाकाम रहीं।

गांव वाले अपने खेत के गेंहू से आटा पीसते और फिर चपाती बनाते और बांटते, लेकिन क्रम निरंतर जारी रहा. मध्य भारत, दिल्ली, उप्र, कलकत्ता, गुजरात तक चपाती की धमक पहुंच चुकी थी.​
ब्रिटिश तंत्र बुरी तरह हिला हुआ था, क्योंकि किसी को इस रहस्यमय आंदोलन का अर्थ समझ नहीं आ रहा था?
देश के महज कुछ लोगों को एक सहज सा प्रयास ब्रिटिश हुकूमत की नींद उड़ाने के लिए काफी था।

कुछ ही सप्ताह और फिर माह बीते थे कि १० मई १८५७ को मेरठ से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पहला सशस्त्र विद्रोह फूटा।यह ​विद्रोह एक साथ, एक ही तारीख को इतने व्यापाक तरीके से सामने आया कि साफ था कि आंदोलन को भूमिगत तरीके से तैयार किया गया।
विद्रोह के कुछ सालों बाद जे डब्लयू ने अपनी किताब daily life during Indian Mutiny में लिखा है कि 1857 के संग्राम की रणनीति बहुत ही रहस्यमय और बेचैनी पैदा करने वाली थी।यह एक शानदार प्रयोग था, जिसे शानदार तरीके से अंजाम दिया गया।

ब्रिटिश हुकूमत को हिला देने वाली यह गतिविधि भूमिगत तरीके से तैयार हुई थी.
बाद के कुछ अध्ययनों में कहा गया कि इस रणनीति को तात्या टोपे ने तैयार किया था, जिसे 1857 में जाकर अंजाम दिया गया।

'चपाती आंदोलन' भी शायद इसी मुहिम का हिस्सा रहा होगा. चपाती कोई हथियार नहीं था, पर उसने लोगों को एक करने में मदद की. किताब में यहां तक कहा गया है कि कुछ लोग चपाती पहुंचाने के साथ ही कान में कुछ ​फुसफुसाते थे! शायद वे कहते थे, सब लाल होगा।

इतिहास की किताबों में तात्या टोपे के बारे में कि वे कमाल की #रणनीतिकार थे. उनकी योजनाएं ऐसी होती थीं कि उन्हें समझ पाना अच्छे-अच्छे विद्ववानों के बस में नहीं था, फिर भला ब्रिटिश हुकूमत की क्या बिसात?
उन्होंने विद्रोह से पहले एक मनोवैज्ञानिक खेल खेला था और ब्रिटिश अधिकारी इस खेल में ही उलझे रह गए।

ऐसा भी मत है कि अंग्रेजो को भृमित करने लिए विद्रोह से कुछ दिन पहले इस आंदोलन को हवा दी गई थी। तात्या टोपे और रानी लक्ष्मी बाई की सेना में चपातियों के ऐसे कई बोरे सैनिकों के साथ चलते थे।गुरिल्ला लड़ाई के दौरान कुंवर सिंह ने भी अपने सैनिकों को रोटियों के थैले थमाए थे।वे जिस गांव में रुकते, वहीं से रोटियां थैले में भर लेते थे।
यह अजीब और दुखद है कि अब तक इस घटना बारे सटीक जानकारी उलब्ध नही है और इतिहासवेत्ताओं ने इसे टटोलने कि कोशिश नहीं की ।