प्रकृति सांस ले रही है, क्यूंकि मनुष्य अंदर है...
जाने अनजाने में हम लगातार प्रकृति से खिलवाड़ करते आ रहे हैं. मगर पिछले कुछ हफ्तों से प्रकृति ने एक बार पुनः सांस लेना आरंभ किया है कारण हम आप बेहतर जानते हैं. विश्व की लगभग सारी सभ्यता का विकास प्रकृति की ही गोद में हुआ और तब इसी से मनुष्य के रागात्मक सम्बन्ध भी स्थापित हुए, किन्तु कालान्तर में हमारी प्रकृति से दूरी बढ़ती गई. प्रकृति की महत्ता आप इसी बात से लगा सकते हैं कि मत्स्यपुराण में प्रकृति की महत्ता को बतलाते हुए कहा गया है- सौ पुत्र एक वृक्ष समान. वहीं पद्मपुराण का कथन है कि जो मनुष्य सड़क के किनारे तथा जलाशयों के तट पर वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षों तक फलता-फूलता है, जितने वर्षों तक वह वृक्ष फलता-फूलता है. इसी कारण हमारे यहाँ वृक्ष पूजन की सनातन परम्परा रही है. यही पेड़ फलों के भार से झुककर हमें शील और विनम्रता का पाठ पढ़ाते हैं. उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने एक स्थान पर लिखा है कि साहित्य में आदर्शवाद का वही स्थान है जो जीवन में प्रकृति का है.
अस्तु! हम कह सकते हैं कि प्रकृति से मनुष्य का सम्बन्ध अलगाव का नहीं है, प्रेम उसका क्षेत्र है. प्रकृति से प्रेम हमें उन्नति की ओर ले जाता है और इससे अलगाव हमारे अधोगति के कारण बनते हैं.
नोट- घर पर रहिए और प्रकृति को सांस लेने दीजिए जी भर के.