Ghanshyam Prasad's Album: Wall Photos

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आज 1 जून है । आइए जानते हैं कि क्यों है यह दिन खास , बिहार के लिए, बिहार के छोटे-छोटे किसानों के लिए और खासकर बिहार के सवर्णों के लिए ?
एकवारी गाँव के शिवपूजन सिंह को कुछ लोगों ने 23 फरवरी 1971 को मार दिया । FIR में जगदीश महतो , रामेश्वर अहीर , भिखारी कहार , महाराज महतो और सिंहासन चमार का नाम आया ।
जगदीश महतो को बाद में जगदीश मास्टर नाम से जाना गया बिहार में नक्सलवाद इसी आदमी ने शुरू किया था । यदि एकवारी को बिहार का नक्सलबाड़ी कहें तो गलत नहीं होगा । बिहार में नक्सल विचारधारा की शुरुआत यहीं से हुई ।
इसी साल अगले महीने यानी 30 मार्च 1971 को जगदीश सिंह की हत्या कर दी गयी । इसी साल 9 जून को दुधेसर सिंह की भी हत्या हो गयी । अगले पांच साल यानी 1976 तक में ऐसे 15 किसानों की हत्या हो चुकी थी ।
गौर करने योग्य तथ्य है कि ये सारे भूमिहार थे । इस समय ब्रह्मेश्वर सिंह (जन्म 1947) 25-30 साल की अवस्था में थे ।
यही समय था , 1971 में ब्रह्मेश्वर सिंह खोपिरा गाँव के मुखिया बन गए थे । यहीं से उनका नाम ब्रह्मेश्वर सिंह की जगह ब्रह्मेश्वर मुखिया प्रचलित हो गया । बिहार में नक्सलवाद इसी समय पाँव जमाने लगा था ।

धीरे-धीरे इसने पाँव पसारने शुरू कर दिए । कालांतर में बिहार में कथित सामजिक न्याय हुआ । इस सामाजिक न्याय में लालू जैसा गुंडापालक और भ्रष्ट आदमी बिहार का मुख्यमंत्री बन गया । अब तो नक्सलियों का पूरे बिहार में छा जाना स्वाभाविक था ।
यही हुआ भी , धीरे-धीरे मगध भी इसकी चपेट में आ गया । रोहतास , बक्सर , भोजपुर , गया , औरंगाबाद , जहानाबाद जिलों में नक्सली हावी होने लग गए । नवादा , नालंदा में भी खासा प्रभाव जमा लिये ।
1991 .., यही वह साल है जब नक्सल हिंसा मुखियाजी के गाँव यानी खोपिरा तक पहुँच गया ।
इस समय तक नक्सलियों ने बिहार में डेढ़ लाख एकड़ से अधिक जमीन पर लाल झंडा लगा दिया था । लाल झंडा लगा देने का मतलब 144 लगने जैसा समझिये , कि जमीन जिस अवस्था में है उसे वैसे ही छोड़ दीजिये । फसल पक चुकी है , लेकिन आप काट नहीं सकते ।
इसी साल की बात है , 1991 की , ब्रह्मेश्वर मुखिया अपने खेतों में धान की रोपाई करा रहे थे । नक्सलियों ने धावा बोल दिया । दोनों तरफ से गोलियां चली , दो नक्सली मारे गए ।
यह संभवतः भारत के इतिहास में पहला मौका होगा जब नक्सली सार्वजनिक मुठभेड़ में निपटा दिए गए ।
स्थिति तनाव की बन चुकी थी । मुखियाजी अभी भी अपनी ओर से आक्रामक होने से बच रहे थे । वह बचाव की मुद्रा में ही चल रहे थे और चीजों के शांत हो जाने की उम्मीद पाले हुए थे । इस दौरान बिहटा और एकवारी में नक्सलियों ने कई किसानों को मारा । ये सारे किसान भूमिहार ही रहे ।

अक्टूबर महीना था , साल 1994 , मुखियाजी के बगल के एक गाँव बेलाउर में एक सुबह लोग जागे । जागे तो देखे कि पूरे गाँव में लाल पर्चे लगे हुए हैं ।
पर्चे पर लिखा था ----
" ध्वस्त किया बिहटा , एकवारी...
अबकी बारी बेलाउर की बारी "
मुखियाजी यहाँ सक्रिय हुए । पर्चे का जवाब पर्चे से दिया गया ।
जवाबी पर्चे में कहा गया -
" ना बिहटा गया , ना गया एकवारी...
माले का भूत बेलाउर झारी "
इसके बाद नक्सलियों ने बेलाउर पर हमला किया ।
सात दिनों तक नक्सली पूरे गाँव को घेरे रहे और दोनों पक्षों में गोलीबारी होती रही ।
हैरान मत होइये , यह नवंबर 1994 की बात है , महज 25 साल पहले की बात । सोचने में लग सकता है कि यह दो-तीन सौ साल पहले की बात होगी , लेकिन नहीं । चूँकि वह समय बिहार में सामाजिक न्याय वाला था , इस तरह की चीजें सामान्य थीं ।
पुलिस का काम , सामाजिक न्याय में कुछ ख़ास रह नहीं गया था। नक्सली सामाजिक न्याय का एजेंडा जमीन पर उतार ही रहे थे ।
खैर , सात दिनों की दोतरफ़ा गोलीबारी के बाद नक्सली भाग खड़े हुए । नक्सलियों को यह धृष्टता भारी पड़ गयी ।
ब्रह्मेश्वर सिंह से ब्रह्मेश्वर मुखिया बन गए इन्सान ने बाबा ब्रह्मेश्वर बन जाने की ओर कदम बढ़ा दिया । रणवीर सेना की कमान अब मुखियाजी के हाथों आ गयी । आगे जो हुआ वह गौरवशाली इतिहास है , अद्भुत शौर्य की गाथा है ।
जिन नक्सलियों को भगाने में हमारे अर्द्धसैनिक बल असमर्थ हो जा रहे हैं , उन नक्सलियों को कम-से-कम बिहार से बाबा ब्रह्मेश्वर ने समूल ख़त्म कर दिया


यह भी बता देना जरूरी है कि रणवीर सेना ने जिस दिन अपने उद्देश्य को हासिल किया , सेना भंग कर दी गयी । उद्देश्य था अपने हक़ और हुकूक की रक्षा करना , अपनी अस्मिता पर चढ़ आये लोगों को वापस उनकी खाल में भेज देना , और जिस रोज यह उद्देश्य पूरा हुआ ,
उसके बाद रणवीरों ने हथियार फिर से बैठक (आधुनिक ड्राइंग रूम) में टांग दिया.

सामाजिक न्याय के बारे में यह भी एक अद्भुत तथ्य है कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इसके शुरुआती दस साल में यानी 1991 से 2001 के दौरान बिहार में 58 नरसंहार हुए ।
औसत निकलता है कि इस दौरान हर दूसरे महीने बिहार के किसी गाँव में रात में लोग काट दिए जा रहे थे ।
जब भारत के इतिहास ने पहली अनपढ़ मुख्यमंत्री को देखा , तो उस अनपढ़ के शासनकाल के पहले साल में यानी 1997 में 12 नरसंहार हुए । मतलब कि इस साल बिहार में हर महीने किसी न किसी गाँव में लोग बीच रात सोते हुए में काट दिए गए ।
बिहार में नरसंहारों की शुरुआत पर बात करें तो पहला नरसंहार हुआ 1992 में ।
लालू को मुख्यमंत्री बने सही से एक साल भी नहीं हुआ था । यह पहला नरसंहार हुआ था गया जिला के बारा गाँव में । इस नरसंहार में 34 किसान मार डाले गए थे , सब सो रहे थे और दरांती से गला काट दिया गया था । मरने वालों में दुधमुंहे बच्चे भी थे , महिलाएं भी थीं , और चलने-फिरने में असमर्थ बूढ़े लोग भी थे । ये सारे भी भूमिहार ही थे। इसकी प्रतिक्रिया में चार साल बाद बथानीटोला नरसंहार हुआ था , जिसमें 22 नक्सली मारे गए थे । आगे तो खैर पूरा सिलसिला है ।

मैं यह लिखने से पहले खोज रहा था कि मेनस्ट्रीम मीडिया ने तत्कालीन घटनाओं को किस तरह से कवर किया है । मजेदार है कि एक भी खबर में मुझे बारा नरसंहार , अपसढ नरसंहार , सेनारी नरसंहार समेत तमाम उन नरसंहारों का जिक्र नहीं मिला , जिनमें भूमिहार मारे गए थे ।
लक्ष्मणपुर-बाथे , बथानीटोला आदि पर लेखों और ख़बरों की भरमार है ।
ऊपर से आरोप भी कि मुख्यधारा की मीडिया ब्राह्मणवादी है । सत्य यह है कि मुख्यधारा की मीडिया में फैशनेबल प्रगतिशीलता का दबदबा रहा है । जैसे सिगरेट पीना मॉड होना हो गया , वैसे ही प्रगतिशील कहलाना फैशन बन गया ।
इसी फैशन में लक्ष्मणपुर-बाथे , बथानीटोला आदि पर लेखों , ख़बरों की भरमार है । इनके बारे में सेमिनार और कांफ्रेंस करने के लिए वित्तपोषक NGO गिरोह की भीड़ है ।
खैर , पित्रोदा की तर्ज पर इसे ' जो हुआ सो हुआ ' कह देते हैं । साथ में यह सनद भी कि अब एकतरफा प्रलाप को विमर्श के नाम पर स्थापित नहीं होने दिया जाएगा । बाबा ब्रह्मेश्वर ने अपने समय में निर्णायक लड़ाई की और जीत भी उनको मिली । अब निर्णायक लड़ाई गोलियों की बची नहीं है , लड़ाई अब बौद्धिक प्रलापों की है । अब इसे भी जीता जाएगा ।

साभार ~पुष्यमित्र शुंग