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चीन-भारत-विश्व ... एक अनालिसिस :

चीन की तीन कमजोरी हैं --

1--निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था
2--टेक्नोलॉजी
3--हिंद महासागर

पहली कमजोरी से निबटने के लिये चीन ने विदेशी मुद्रा का बड़ा भंडार और ट्रेजरी बॉन्ड खरीद रखे हैं जिसके जरिये वह अमेरिका के डॉलर को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में दो दिन में कौड़ियों के भाव का कर सकता है

परंतु भारत के संदर्भ में उसका कदम उल्टा बैठेगा और साथ ही भारत चीन के माल पर किसी भी 'बहाने' से रोक लगाकर उसकी अर्थव्यवस्था को गड्ढे में धकेल सकता है। इसलिये आर्थिक मोर्चे पर तो सभी पक्ष "रैगिंग वाली रेल" बने रहेंगे जिसमें झगड़ा बस इस बात का है कि "इंजन" कौन बनेगा और "पीछे वाला डिब्बा" कौन रहेगा।

अब बात टेक्नोलॉजी की जिसमें चीन दिन रात एक किये हुए है पर मिसाइल और न्यूक्लियर टेक्नीक को छोड़कर वह पश्चिम के सामने कहीं नहीं टिकता विशेषतः सामरिक तकनीक के क्षेत्र में। इसीलिये चीन "पश्चिम की सामरिक तकनीक के गले की नस" अर्थात टेलीकम्यूनिकेशन को बर्बाद करने के लिये "सैटेलाइट किलर मिसाइल्स" का सफल परीक्षण कर चुका है

जिसके जवाब में अमेरिका ने "नैनो सैटेलाइट" लॉन्च किये हैं। यानि इस क्षेत्र में पश्चिम अभी भी भारी बढ़त में है परंतु चीन और पश्चिम दोनों ही जानते हैं कि टैक्नोलॉजी से चीन को रोका तो जा सकता है पर निर्णायक रूप से परास्त नहीं किया जा सकता।

अब तीसरी कमजोरी 'हिंद महासागर' और उसमे भारत, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया का प्रभुत्व जिसके तोड़ के रूप में चीन ने "पर्ल स्ट्रिंग" विकसित की जिसका एक सिरा पाकिस्तान स्थित 'ग्वादर बंदरगाह' है तो दूसरा सिरा 'सेशेल्स' में है।

इसके बावजूद भारत अंडमान स्थित नौसैनिक अड्डे से पूरे हिंद महासागर में चीन पर बढ़त में है और बाकी का काम मोदी ने ताबड़तोड़ विदेश दौरों और सफल कूटनीति से कर दिया।
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जरा याद कीजिये विदेश दौरों में देशों का क्रम और अब ऑस्ट्रेलिया, जापान, विएतनाम, भारत, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका के साथ एक हिंद महासागरीय संगठन बनाने की कोशिश हो रही है जो चीन की 'पर्ल स्ट्रिंग' का मुंहतोड़ जवाब होगी। हालांकि ऑस्ट्रेलिया की झिझक के कारण इसका सैन्य स्वरूप विकसित नहीं हो पाया है।

(भारत नैकलेस ऑफ डायमंड बनाकर खुद अपने दम पर स्ट्रिंग ऑफ पर्ल' को तोड़ चुका है)

इस तरह चीन को घेरने के बावजूद अपनी "हान जातीयता" पर आधारित विशाल जनशक्ति के कारण पश्चिम उस पर निर्णायक विजय हासिल नहीं कर सकता । उस पर विजय पाने का एकमात्र तरीका जमीन के रास्ते से हमला करना ही है जिसके मात्र तीन रास्ते हैं ।

1- मध्य एशिया की ओर से
2- पाकिस्तान के रास्ते
3- भारत की ओर से

--अब आपको समझ आ गया होगा कि चीन रूस की खुशामद क्यों कर रहा है और क्यूँ अपनी पूर्वनीति के विपरीत सीरिया में रूस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर 'एयर स्ट्राइक' में भाग लेने को तैयार हो गया है । चीन का पूरा पूरा प्रयास रूस के साथ गठबंधन करने का या कम से कम उसे 'न्यूट्रल' रखने का होगा ताकि रूस की ओर से निश्चिंत हो सके ।

--पाकिस्तान की तरफ के रास्ते को चीन POK में सैन्य जमावड़ा करके और ग्वादर तक अबाध सैन्य सप्लाई की व्यवस्था द्वारा बंद कर चुका है, अगर सियाचिन पाकिस्तान के कब्जे में पहुंच गया तो चीन इस पूरे क्षेत्र को पूरी तरह "लॉक" कर देगा ।

--भारत के संदर्भ में दोनों पक्ष जानते हैं कि समझौता संभव नहीं क्योंकि 'तिब्बत की फांस' दोनों के गले में अड़ी है। भारत को हतोत्साहित करने और सामरिक रूप से निर्णायक महत्वपूर्ण स्थानों को कब्जा करने हेतु ही वह अक्सर सीमा उल्लंघन करता रहता है।

(डोकलाम में चीन की बाँहें मरोड़कर उसका गर्व भंजन कर दिया है)
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तो कुल मिलाकर 'भारत' ही है जो चीन को रोकने के लिये पश्चिम का 'प्रभावी हथियार' बन सकता है और यही कारण है कि पश्चिमी देश भारत में इतना 'इंट्रेस्ट' दिखा रहे हैं।

पश्चिम की इस विवशता को मोदी ने पकड़ लिया है इसीलिये संघर्ष से पूर्व 'अर्थववस्था और सैन्य टेक्नोलॉजी' की दृष्टि से सक्षम बना देना चाहते हैं इसीलिये उनके दौरों में निरंतर दो बातें परिलक्षित हो रहीं हैं - आर्थिक निवेश और हथियारों की ताबड़तोड़ खरीदी के साथ सैन्य टेक्नोलॉजी का हस्तांतरण ।

इसी तरह कूटनीतिक विदेश दौरों के द्वारा लामबंद करते हुए चीन विरोधी पूर्वी देशों का संगठित करने की कोशिश करते हुए चीन के 'पर्ल स्ट्रिंग' को तोड़ दिया है जिससे चिढकर ही चीन ने नेपाल में मधेशियों के विरुद्ध माहौल खड़ाकर भारत के नेपाल में बढ़ते प्रभाव को रोका है और इसका असर मोदी पर इंग्लैंड दौरे के दौरान दिखाई दिया ।

(फिलहाल भारत ने ईरान के #चाबहर बंदरगाह को विकसित कर चीन के पाकिस्तान स्थित ग्वादर बंदरगाह व '#सीपैक' का तोड़ निकाल लिया है।)
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भारत की तैयारियां --

1-- भारी मात्रा में निवेश को आमंत्रित करना ।
2-- आर्थिक मोर्चे पर सुदृढ़ता हासिल करना ।
(सेनायें भूखे पेट युद्ध नहीं कर सकतीं )
3-- नौसेना का आधुनिकीकरण
4-- वायुसेना को एशिया में सर्वश्रेष्ठ बनाना और ताजिकिस्तान में भारत के सैन्य हवाई ठिकाने को मजबूत बनाना
5-- अंतरमहाद्वीपीय तथा मल्टीपल वारहैड मिसाइलों का विकास व आणविक शस्त्रागारों का विकास ।
6-- बलूचिस्तान व अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव को बढ़ाना ।
7-- इलेक्ट्रॉनिक वार के लिए "काली 5000" जैसी तकनीक का उन्नतीकरण ।
8--अंतरिक्षीय_संसाधनों_के_उपयोग_की_संभावनाओं_के मुद्देनजर "मार्स_मिशन", "चंद्रयान" व_अन्य "अंतरिक्ष_कार्यक्रमों" का_संचालन।

(हाल का सैटेलाइट किलर मिसाइल का परीक्षण व चंद्रयान 2 का परीक्षण याद कीजिये)
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तो पूरा परिदृश्य क्या हो सकता है??

एक तरफ चीन + पाकिस्तान + अरब देश

दूसरी ओर अमेरिका + इजरायल + यूरोप + जापान

रूस संभवतः तटस्थ रहेगा लेकिन अगर वह चीन के साथ कोई गुट बनाता है , चाहे वह आर्थिक गुट ( शंघाई सहयोग संगठन ) या सैन्य गुट ( जिसकी शुरूआत सीरिया में दिख रही है ) तो चीन बहुत भारी पड़ेगा ।

इस परिस्थिति में भारत के सामने अमेरिका के सहयोग करने के अलावा कोई चारा नहीं और ना ही पश्चिम के पास भारत जैसी विशाल मानव शक्ति है और यही कारण है कि पश्चिमी शक्तियां आज मोदी की तारीफों के पुल बांध रही हैं, भारी निवेश कर रहीं हैं (बुलेट ट्रेन में जापान की उदार शर्तों के बारे में पढ़िये) और सैन्य तकनीक का हस्तांतरण कर रहीं हैं जबकि इजरायल द्वारा चीन को "अवाक्स राडार" देने से मना कर दिया जाता है ।

मोदी की कोशिश है कि इस स्थिति के आने से पूर्व ही भारत को पश्चिम की 'आर्थिक व सैन्य मजबूरी ' बना दिया जाये और मोदी की सारी व्याकुलता, बैचैनी और तूफानी विदेश दौरे उसी " महासंघर्ष " की तैयारी के लिये हैं ना कि 'तफ़रीह' के लिये।

मोदी की कोशिश चीन से त्रस्त वियतनाम , म्यामांर, मंगोलिया, इंडोनेशिया, जापान आदि देशों के साथ मिलकर आक्रामक तरीके से घेरने की भी है और पहली बार भारत ने चीन को 'विएतनाम सागर' (जिसे चीन 'दक्षिण चीन सागर' कहता है) में दबंगई से अंगूठा दिखाया है ।

( - देवेंद्र सिकरवार ... से साभार )
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