Ghanshyam Prasad's Album: Wall Photos

Photo 845 of 5,346 in Wall Photos

#राष्ट्रऋषि
संघ ने भारत के एकीकरण में अहम भूमिका निभाई है। जम्मू-कश्मीर अगर आज भारत का अटूट हिस्सा है तो उसमें संघ की महत्वपूर्ण भूमिका है।

संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरुजी नहीं होते तो महाराजा हरि सिंह जम्मू-कश्मीर को भारत में कतई विलय नहीं करते और आज वह हमारा हिस्सा नहीं होता। गुरूजी ने ही महाराज हरिसिंह को समझाया कि जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में करने से ही इस प्रदेश का कल्याण हो सकता है। यह खुलासा करने वाले कोई और नहीं बल्कि यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान सोनिया गांधी के सहयोगी रहे वरिष्ठ आईएएस अधिकारी अरुण भटनागर ने अपनी किताब में किया है। उन्हें सोनिया गांधी का बहुत निकट माना जाता है। उस दौरान उन्होंने ही सोनिया गांधी की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सचिवालय का नेतृत्व किया था। इसके साथ ही प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के दफ्तर यानि पीएमओ से समन्वय किया था। भटनागर ने ही यह खुलासा किया है कि गुरुजी के समझाने पर महाराजा हरि सिंह जम्मू-कश्मीर को भारत में विलय करने के लिए तैयार हुए थे।

कोनार्क प्रकाशन से प्रकाशित अपनी किताब ” इंडियाः शेडिंग द पास्ट, इंब्रैसिंग द फ्यूचर, 1906-2017″ (India: Shedding the Past, Embracing the Future, 1906-2017) में भटनागर ने इस छोटे लेकिन अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अंश का जिक्र किया है। भटनागर 1966 बैच के आईएएस अधिकारी होने के अलावा ख्यातिलब्ध वैज्ञानिक तथा शिक्षाविद शांति स्वरूप भटनागर के पोते हैं। भटनागर कांग्रेस खेमें में एक सम्मानित शख्सियत हैं। यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान उन्होंने प्रसार भारती बोर्ड के चेयरमैन का भी दायित्व निभाया है।

भटनागर ने अपने संस्मरण में 17 अक्टूबर 1947 को केंद्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल के दृष्टान्त पर लिखा है। गुरु गोलवरकर तत्काल श्रीनगर पहुंचे और उन्होंने जम्मू-कश्मीर के महाराज हरि सिंह से मिलकर उन्हें जम्मू-कश्मीर की स्वतंत्रता की निरर्थकता के बारे में समझाया। गोलवरकर के समझाने के बाद ही उन्होंने भारतीय गणराज्य में जम्मू-कश्मीर के विलय करने पर अपनी सहमति दी। यह बात तुरंत सरदार पटेल को बताई गई। लेकिन कुछ दिनों में पाकिस्तान की ओर से आदिवासियों का प्रदेश पर हमले ने पूरी स्थिति को उलट-पलट कर रख दिया। इस स्थिति से निपटने के लिए हरि सिंह प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से तत्काल सैन्य सहायता चाहते थे। लेकिन नेहरू ने सेना भेजने से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि जब तक जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में हो नहीं जाता हम सेना नहीं भेज सकते क्यों सेना सिर्फ भारतीय भूभाग की ही सुरक्षा कर सकती है। बाद में गुरुजी के समझाने पर हरिसिंह ने भारत में विलय होने की हामी भरी। गुरु गोलवरकर द्वारा कश्मीर का भारत में विलय की घटना का उल्लेख इंडिया स्पीक्स डेली के प्रधान संपादक संदीप देव ने भी अपनी पुस्तक ‘हमारे श्री गुरूजी’ में किया है।

संघ और संघ परिवार के वार्षिकवृतांत में भटनागर ने कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हृदय में गोलवलकर जी का बहुत स्थान है साथ ही मोदी पर उनका बहुत गहरा प्रभाव है। अपनी किताब के “फोर्सेस ऑफ हिंदू ऑरगेनाइजेशन” नाम के अध्याय में भटनागर ने लिखा है कि 2007 में गुजरात विधानसभा चुनाव जीतने के बाद 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक किताब “ज्योतिपुंज” लिखी थी। अपनी इस किताब में मोदी ने उस विलक्षण व्यक्ति के जीवन की कई कहानियों का जिक्र किया है जिन्होंने उनके जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित किया। आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक, गुरु गोलवलकर की सबसे लंबी जीवनी में मोदी ने “पूजनीया श्री गुरुजी” नाम के शीर्षक से एक आलेख लिखा है। अपने आलेख में उन्होंने गोलवलकर के प्रति जो सम्मान दर्शाया है उससे ही पता चल जाता है कि उनके जीवन पर गुरुजी का कितना महत्वपूर्ण प्रभाव था।

भटनागर ने अपनी इस किताब में 1942 के संपूर्ण स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा नहीं लेने के गुरुजी के फैसले का भी जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि आखिर गुरुजी ने ऐसा निर्णय क्यों लिया? भटनागर ने अपनी किताब में स्पष्ट रूप से लिखा है कि गुरुजी हमेशा इस बात का विशेष ध्यान रखा कि ब्रिटिश सरकार को कभी ऐसा मौका नहीं दिया जाए ताकि वे संघ के खिलाफ कार्रवाई कर सके। तभी तो उपनिवेशवादी सरकार ने भी स्वीकार किया कि संघ हमेशा नियम के दायरे में रहा और खुद को अगस्त 1942 में भड़की हिंसा से दूर रखा।

1940 में संघ के दूसरे सरसंघचालक बनने के बाद गुरुजी ने हमेशा संगठन के विस्तार पर ध्यान दिया क्योंकि उनके पूर्ववर्ती सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार की यही दूरदृष्टि थी। भटनागर का कहना है कि जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा की उस समय तक गुरुजी को राजनीतिक कार्य का कोई सीधा अनुभव नहीं था। इसलिए उन्होंने शुरू में ही कह दिया कि कुछ चीजों में जो कमी है संघ उसी पर ध्यान केंद्रित करेगा। उन्होंने कहा “कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन का आगाज तो कर दिया है लेकिन उसके लिए जो तैयारी होनी चाहिए थी उसकी परवाह नहीं की। इसलिए काफी सोच विचार करने के बाद मैंने यह महसूस किया कि पूरी ताकत से इस आंदोलन में हिस्सा लेने के बावजूद हम अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते। ऐसी स्थिति में इस आंदोलन में संघ की भागीदारी के बावजूद कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है।”

गुरुजी के व्यक्तिगत प्रयास से ही साल 1966 में संघ की दो अलग-अलग संस्थाएं विश्व हिंदू परिषद तथा भारतीय मजदूर संघ अस्तित्व में आया। विश्व हिंदू परिषद ही हिंदू धर्म से जुड़े मसलों को सीधे देखती थी। हिंदू धर्म गुरुजी के लिए काफी महत्वपूर्ण था। इससे पहले ही जब 1950 में नेहरू मंत्रिमंडल से श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस्तीफा दिया तो गुरुजी ने एक राजनीतिक पार्टी गठित करने के लेकर उनसे चर्चा की। संघ नेतृत्व पार्टी का नाम हिंदीपरक होने तथा पार्टी ध्वज केसरिया होने पर बल दिया। मुखर्जी के सामने भारतीय लोक संघ या भारतीय जन संघ के नाम का प्रस्ताव रखा गया। मुखर्जी ने भारतीय जन संघ अपनी मुहर लगा दी। संयोग से गुरुजी और मुखर्जी दोनों ही इस बात पर सहमत थे कि इस नई पार्टी को संघ के स्वयंसेवकों का सहयोग मिलेगा तथा संघ का आदर्श ही पार्टी का भी आदर्श होगा।

1973 में जब गुरुजी का देहांत हुआ उस समय तक संघ का काफी तेज गति से विस्तार हुआ था। क्योंकि उन्होंने अलग-अलग क्षेत्र के लोगों को भी संघ से जोड़ा। इस संदर्भ में एक उदाहरण देते हुए भटनागर ने लिखा है कि डॉ. केएम मुंशी एक जुझारू स्वतंत्रता सेनानी थे जो बाद में पटेल के पक्ष में हमेशा खड़े रहे। मुंशी ने बाद में हिंदू संस्कृति राष्ट्रवाद को लोकप्रिय बनाने के लिए ही भारती विद्या भवन संस्थान की स्थापना की। संपूर्ण रूप से पक्के कांग्रेसी होने के बावजूद उन्होंने बाद में राजाजी की बनाई स्वतंत्र पार्टी में शामिल हो गए। और बाद में वहीं केएम मुंशी के ही नेतृत्व में विश्व हिंदू परिषद की स्थापना की गई है। भटनागर ने अपनी किताब में लिखा है कि अगर केएम मुंशी जैसे पक्के कांग्रेसी के हाथो विश्व हिंदू परिषद की स्थापना हुई तो इसका सारा योगदान गुरूजी को ही जाता है।
साभार