Ghanshyam Prasad's Album: Wall Photos

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यहाँ हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि ये सभी गहन अध्ययन में लगे हुए हैं। क्या पढ़ रहे हैं, तो सनातन के ग्रन्थों का भी अध्ययन चल रहा है।

क्यों, भाई ? हमारे ग्रन्थों का अध्ययन क्यों कर रहे हैं ये ? नालंदा का ग्रंथागार जलानेवाले बख्तियार खिलजी पर गर्व करनेवाले, काफिरों की किताबों को इतनी संजीदगी से पढ़ने में क्यों मसरूफ़ हैं ? ऐसी भी क्या जरूरत आन पड़ी कुफ़र की किताबों का मुतालेआ करने की ?

चित्र के शीर्षक से कुछ कल्पना आ ही गयी होगी। चलिये, पूरी स्पष्टता किए देते हैं।

वे हमारे ग्रन्थों का इतनी गहराई से अध्ययन केवल इसलिए करते हैं
ताकि उनमें त्रुटियाँ निकालें,
मज़ाक बनाने के लिए अतिशयोक्तियाँ निकालें,
विसंगतियाँ निकालें,
समाज के घटकों में विभेद को बढ़ावा दे सकें ऐसे प्रसंग निकालें
हिंदुओं को आपस में लड़ाना
तथा, अपने मत की दूरान्वय से भी पुष्टि कर सके ऐसे प्रसंग निकालें

- कल्कि अवतार पर लिखी किसी फर्जी वेद प्रकाश उपाध्याय की पुस्तक याद होगी ही ? जब जवाब मिलने लगे कि इसका मतलब क्या आप हमारे सभी अवतारों को, और उसमें वराह अवतार को भी पूजनीय मानते हैं ? तब कहीं जा कर ठंडे हुए।

लेकिन इनके खुराफात चलते रहते हैं । क्यों ज़ाकिर नाईक या उसके जैसे लोग पुरानों में खोज खोज कर छोटे छोटे प्रसंगों को ले कर हिंदुओं के देवताओं का मज़ाक उड़ाते रहते हैं ? क्यों वेद, गीता और उपनिषद से ऋचाएँ, श्लोकादि को तोड़ मरोड़ कर साबित करने की कोशिश की जाती है कि उनमें उन्हें जलानेवालों के मार्ग को सत्य बताया है ? क्यों सोशल मीडिया पर धर्म चर्चा के नाम पर फर्जी पेजेस या ग्रुप्स बनाकर केवल हिंदुओं को उनमें आमंत्रित कर के धर्मपरिवर्तन की दावत दी जाती है और चर्चा के नाम पर अधिकतर हिन्दू परम्पराओं का मज़ाक ही बनाया जाता है ? यह दीगर है कि उतना ही तीखा प्रत्युत्तर सहसा सहन नहीं किया जाता।

समझ लो तो उत्तर बहुत सरल है। वैसे कलम का जिहाद तो कह ही सकते हैं, लेकिन यह बाकायदा वैचारिक युद्ध ही है। आज के समय में पहले जैसे तलवार नहीं चल सकती इसलिए तर्क का आसरा लिया जा रहा है। गर्दनें नहीं काट सकते, तो दिमाग ही काटे जा रहे हैं। युद्ध के लिए योद्धा तैयार किए जा रहे हैं और हो सकता है इन सब को भारत सरकार से अनुदान भी प्राप्त होता हो।

कृपया 'भाजपा क्या कर रही है' वाले दूर रहें। समाज की लड़ाई, समाज ही लड़ सकता है। पक्ष या संगठन के मंच से यह लड़ाई लड़ी नहीं जा सकती। ये सारे फुसकीमार फालतू जिनको फूफा भी कहा जाता है, मंच से छोड़िए, नुक्कड़ पर भी बोल नहीं सकते।

अपनी बात करूँ तो मैं भी अगर किसी पक्ष या संगठन के अधिकृत मंच पर चला गया तो वहाँ संयमित भाषण ही करूंगा। ऐसा नहीं कि कोई मेरा गला घोंट रहा होगा, लेकिन जिस संगठन ने मंच प्रदान किया उसकी साख को बाधा न पहुंचाना यह भी ज़िम्मेदारी होती है। और लोग अपेक्षा रखते हैं कि भारत के प्रधानमंत्री की हैसियत से मोदी जी इनको पसंद आए वैसा ज्वालाग्राही भाषण करें।

यह बात अपने लिए नहीं, सब के लिए कह रहा हूँ। उतनी ही लागू है। यहाँ अपनी स्कूली ज़िंदगी का एक प्रसंग याद आता है जब पीटी के सर ने सब से शरारती लड़के के हाथ में तिरंगा थमाया था और कहा कि 26 जनवरी की परेड का नेतृत्व तुम करोगे। उसके बाद वो लड़का बहुत अनुशासित बन गया था। मार जो न कर सका, सम्मान की ज़िम्मेदारी कर गयी, बिना मार के।

अस्तु, बात भटक जाएगी। मुद्दा दिमागी हथियारों के कारखाने बनाने का है। क्या हमारे पास अपने बौद्धिक योद्धा हैं जो सांकृतिक रणनीति की भी समझ रखते हों ? नेरेटिव गढ़ने की मानसिक क्षमता रखते हों ?

इसका उत्तर सब को पता है, ‘नहीं' ही है। जो भी बुद्धिमान लोग ये क्षमता रखते हैं, उपलब्ध नहीं हैं। वे किसी ऐसी नौकरी में होंगे जहां किसी राष्ट्रवादी या हिन्दुत्व के पुरोधा की पब्लिक पोस्ट पर लाइक करना भी उनके लिए संभव नहीं होगा। अब यहाँ एक और प्रश्न - इस तस्वीर में जो लोग दिखाई दे रहे हैं, उनकी आजीविका कैसे चलती हैं या चलेगी ? ऐसी शिक्षा कोई नहीं लेता जिसके बल पर कोई नौकरी ही न मिले या आमदनी ही न हो। कहाँ नौकरी करेंगे ये लोग ? जाकिर वाली IRF के समान कोई ?

बाकी सवाल अपनी जगह है। बिना सांस्कृतिक, सामाजिक रणनीतिकारों के, हार ही होगी। पार्टी, पॉलिटिक्स की ही रणनीति करेगी, सांस्कृतिक नहीं। समाज को अपने आप यह करना चाहिए और अच्छा टैलंट आकर्षित हो इसकेलिए आजीविका को भी आकर्षक बनाना चाहिए।

विरोधी गुट यह काम सदियों से करता आ रहा है। आज भी कर रहा है। हम ही एक दूसरे की छीछालेदर में जो काम करने आगे आए उसे भगा देते हैं। यह अक्सर इसलिए होता है क्योंकि जिनका कोई योगदान नहीं होता वे अपेक्षा रखते हैं कि उन्हें सम्मान पूर्वक बुलाकर उनसे मार्गदर्शन लिया जाये। अन्यथा वे नुकसान करने की धमकियाँ देते हैं और करते भी हैं। अपने उपद्रवमूल्य का उन्हें बड़ा अभिमान होता है, भले ही सकारात्मक कल्पना कोई न हो।

इन धरतीपर माथे पर तिलक लगाकर भी सर उठाकर जीना है और आप चाहते हैं कि आप की अगली पीढ़ियाँ भी सर उठाकर जिएँ, तो इस मानसिकता से उबरना ही होगा। समस्या भले ही हम और आप ने बनाई नहीं है, उससे निपटना तो हमें और आप को ही पड़ेगा; क्योंकि केवल गालियां देने से मरे हुए लोग वापस तो नहीं आएंगे उनकी बनाई हुई समस्याएँ सुलझाने।

तस्मादुत्तिष्ठ !

नोट : इस विषय पर आगे भी लिखा जाएगा। फिलहाल, अगर सहमत हैं तो इसे औरों तक पहुंचाने का अनुरोध है।