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भगवान शिव:-

कैलाश पर्वत के शिखर पर आसीन होकर विराजमान ज्ञान के अधिष्ठाता देव भगवान शिव को दंडवत हो नमन करता हूँ....
भगवान शिव ने मानव को पंचमहाभूतो और तीन परा प्रकृतियों के अधीन कर बाँध दिया था और उस बँधन की गाँठ खोलने का अधिकार गुरु को प्रदान कर दिया था।
पंचमहाभूतो में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जो इस चराचर ब्रह्मांड का आधार है। और इन्हीं पंचमहाभूतो से मानव की उत्पत्ति हुई है इसी कारण मानव पंचतत्वों की देह मानी गई है।
इन पंचमहाभूतो से निर्मित मानव देह के साथ तीन परा प्रकृतियों का संयोग मन, चित्त और बुद्धि के रूप में घनिष्ठ संबंध स्थापित कर कर दिया था।
अगर देखा और समझा जाए तो मानव योनि में प्रत्येक मानव इन तीन परा प्रकृतियों के वशीभूत होकर ही व्यवहार करता है। मानव या तो मन के अधीन होगा या बुद्धि के अधीन या फिर चित्त के अधीन होकर ही हर प्रकार का व्यवहार या आचरण करेगा। इस प्रकार से प्रत्येक मानव व्यवहार जो मन के वशीभूत होकर किया जाता है वह संबंध में बहुत ही भावुक प्रकृति के कारण होता है तथा बुद्धि के वशीभूत होकर किया गया व्यवहार अहम् और संतुष्टि का कारण बनता है तथा चित्त के वशीभूत होकर किया गया व्यवहार स्वार्थ कारण बनता है।
आध्यात्मिक पक्ष में किया गया हमारा अधिकांशतः कर्म भी मन की शांति के लिए या फिर अपनी मति के अनुकूल हो या फिर चित्त के कर्म को पूर्ण करने के निमित्त ही किया जाता है। इस प्रकार से अध्यात्म जगत का जो भी कर्म होगा उसका जो भी परिणाम होगा वो व्याकुल मन को शांत करने के निमित्त या मानसिक तनाव से मुक्ति का मार्ग खोजने के निमित्त या चित्त की आदि व्याधि को शांत करने के लिए ही होगा।
हर तरफ से घूम फिर कर देखा जाए तो हमारा संपूर्ण आध्यात्मिक पक्ष और कर्म ही भगवान शिव की बनाई गई इन तीन परा प्रकृतियों के बाहर नहीं है। वह इन्हीं तीन परा प्रकृतियों में ही इतने भयंकर रूप से उलझा हुआ है कि इससे पार पाना ही हमारे लिए असंभव नहीं है।
जब तक कोई बाहर से आकर इस बँधन को खोल नहीं देता है तब तक हमारे लिए असंभव है कि हम इन तीनों से ही पार पा जाएँ क्योंकि हम भी पंचमहाभूतो के भीतर कैद है और यह तीन प्रकार भी हमारे साथ इन पंचमहाभूतो में कैद है।
शत प्रतिशत लोगों की स्वयं की ध्यान की धारणा है और अधिकांश ध्यान गुरूओं की भी यही धारणा है कि जब तक मन शांत नहीं होगा विचारों का शांत हो पाना असंभव है और बिना विचारों के शांत हुए चित्त एकाग्र होकर ध्यान के लिए नहीं बैठ सकता है। मगर वास्तविकता तो यह है कि जब तक हम पंचमहाभूतो से पार नहीं चलें जाते हैं हम मन चित्त बुद्धि की परा प्रकृति से निजात नहीं पा सकते हैं। पंचमहाभूतो से पार जाने का साधारण सा तात्पर्य यह है कि मूलबंध, उड्डयानबंध और जालंधरबंध की अवस्था में गुजर नही जाते हैं तब तक इन परा प्रकृतियों के साथ ही रहेंगे।
हम चाहें कितना भी अभ्यास कर लेंवे इन तीनों बँध को लगाने का मगर यह स्वयं स्वतः ही अभ्यासित होते है और स्वयं ही लगते हैं। मगर इन बँध के लगने से पहले मानव शरीर में कैमीकली चैंजिंग होना बहुत ही ज्यादा जरूरी होता है। जब मानव शरीर के भीतर यह कैमिकली चैंजिंग होगा तो इन तीनों ही बँध के अनुकूल बहुत ही ज्यादा बदलाव स्वतः ही होने लगता है।
सबसे प्रबल बदलाव जो होता है वह इड़ा और पिंगला में होता है जिस इंसान की इड़ा और पिंगला का स्वतः ही शुद्धिकरण होगा वह इंसान इड़ा और पिंगला से नब्बे डिग्री देखने की क्षमता को पा जाता है। इस नब्बे डिग्री देखने की क्षमता को समझना बहुत ही ज्यादा जरूरी है कि नब्बे डिग्री देखना आखिर होता क्या है???
जब आप अपनी आँखों को आराम से बंद कर स्वयं को बंद आँखों के पार देखता हुआ महसूस करते हैं तो आप देखकर हैरान रह जाएँगे कि आप स्वयं के भीतर ऐड़ी से चौटी तक बिना किसी बाधा के देख रहे हैं और आपकी आंतरिक दृष्टि का विस्तार नीचे से ऊपर तक एक साथ देखने की क्षमता को प्राप्त हो जाता है। यह इड़ा पिंगला के शुद्धिकरण के कारण ही संभव हो पाता। अगर आप यह नही देख पाने में सक्षम है तो इसके पीछे दो कारण कारण है पहला आप सही से अपना कर्म नहीं कर पा रहे है या फिर आप लोगों का मार्ग सही नही है। जिस इंसान की इड़ा पिंगला में से जो भी शुद्धिकरण के साथ जागृत हुई हो उसे उस तरफ इड़ा या पिंगला में अनंत कोटि सूर्य का प्रकाश दिखाई देगा जो इतना होगा कि कोई ना तो उसे बता सकता है और ना ही कोई उसे अवस्था को भूल सकता है। यह इड़ा पिंगला का प्रकाश पानी की एक बूँद जितने सूर्य से प्रारंभ होकर अपना प्रकाश और तेज कल्पना से बाहर तक बढ़ाता और बढ़ाता ही चला जाता है। यह अवस्था इड़ा और पिंगला के शुद्धिकरण का अहम् हिस्सा होती है और इसी के साथ ही साथ सुषुमना का भी शुद्धिकरण स्वतः ही हो जाता है।
आज हम जहाँ भी स्वयं को शांत कर देते है वही पर हम अपने द्वार अपने हाथों से स्वयं ही बंद कर देते हैं। या तो हम मन पर शांत हो जाते हैं या चित्त पर या फिर अपनी बुद्धि पर आकर शांत हो जाते हैं। मगर यह व्यावहारिक रूप से वास्तविकता नही है वास्तविकता और सत्य पंचमहाभूतो और तीन परा प्रकृतियों के पार की अवस्था है। जहाँ तक हमारी दृष्टि जाती है हम इन पंचमहाभूतो+ तीन परा प्रकृतियों कुल आठ परा प्रकृतियों के वशीभूत होकर उलझ गए हैं। जहाँ से पार पाना हमारे स्वयं के बलबूते की बात नहीं है। अगर हम स्वयं की मति से शास्त्रों का अध्ययन कर इस बँधन को खोल या फिर तोड़ने की बात करते है तो शास्त्रों में भगवान शिव द्वारा उपदेशित परा प्रकृति का ज्ञान तो समझ में आ जाएगा मगर अ-परा प्रकृति के ज्ञान को परा प्रकृति से कैसे समझा जा सकता है जो हमारी समझ से पार का विधान और विज्ञान है। रहस्य सारे के सारे इन्हीं सारे शास्त्रों में ही कूट कूट कर और ठूस ठूस कर भर रखें है।
मगर जब भगवान शिव ने ही हमें बाँध दिया है तो स्वयं के बलबूते पर तो उस ज्ञान, उस सत्य, उस टेक्निक को खोज पाना नामुमकिन ही नहीं असंभव कर्म है। क्योंकि कोई ना कोई हमें ऐसा इंसान गुरु रूप में चाहिए जो हमें इन तीन परा प्रकृतियों से पहले बाहर निकाल सके फिर इन पंचमहाभूतो से मुक्त कर सकें तभी हम भगवान शिव के बाँधे हुए बँधन से पार निकल सकते हैं।
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