आज फेसबुक के माध्यम से ही एक चित्र देखने को मिला पता नहीं किसका था ?पर चित्र देखकर खुद को रोक नहीं पाया सोचने से ।मन में भाव आ रहे थे पर इस चित्र ने इतना अधिक विचलित कर दिया था कि उन्हें शब्द रूप नहीं दे पा रहा था, मैं अब जाकर कुछ टूटे -फूटे शब्द लिख पाया हूँ जिनका भी बनाया हुआ ये चित्र है उनकी अनुमति के बिना इस चित्र को प्रयोग कर रहा हूँ इस रचना में पर बिना इस चित्र के ये रचना अधूरी है ।
मेरे दूध का कर्ज़ मेरे ही खून से चुकाते हो
कुछ इस तरह तुम अपना पौरुष दिखाते हो
दूध पीकर मेरा तुम इस दूध को ही लजाते हो
वाह रे पौरुष तेरा तुम खुद को पुरुष कहाते हो
हर वक्त मेरे सीने पर नज़र तुम जमाते हो
इस सीने में छुपी ममता क्यों देख नहीं पाते हो
इक औरत ने जन्मा ,पाला -पोसा है तुम्हें
बड़े होकर ये बात क्यों भूल जाते हो
तेरे हर एक आँसू पर हज़ार खुशियाँ कुर्बान कर देती हूँ मैं
क्यों तुम मेरे हजार आँसू भी नहीं देख पाते हो
हवस की खातिर आदमी होकर क्यों नर पिशाच बन जाते हो
हमें मर्यादा सिखाने वालों तुम अपनी मर्यादा क्यों भूल जाते हो
हमें मर्यादा सिखाने वालों तुम अपनी मर्यादा क्यों भूल जाते हो...
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