गांधी और टैगोर : महात्मा और गुरुदेव : तीखे-मीठे प्रसंग
शांतिनिकेतन के विद्यार्थियों को नौकर-चाकर, रसोइये और सफाईकर्मियों की आदत पड़ चुकी थी। लेकिन जब 1915 में गांधी वहाँ पहुँचे और अपना सारा काम अपने ही हाथों से करने लगे, तो ये विद्यार्थी बड़े शर्मिंदा हुए।
गांधी ने कहा शर्मिंदा मत हो, अपना काम खुद करना सीखना चाहते हो, तो मैं सिखा सकता हूँ। गांधी ने आत्मनिर्भरता वाली दिनचर्या सिखाने के लिए 10 मार्च का दिन मुकर्रर किया। विद्यार्थियों ने उत्साह से सीखा भी।
लेकिन गांधी के जाते ही सबकुछ पुराने ढर्रे पर आ गया। फिर भी, हर साल 10 मार्च को सभी कर्मचारियों को छुट्टी दे दी जाती थी और शांतिनिकेतन में रहनेवाले सभी लोग अपना सारा काम खुद ही करते थे। वह हर साल इस दिन को 'गांधी दिवस' के रूप में मनाने लगे।
गांधी जब दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का सफल प्रयोग कर रहे थे, तो उन्हें भारत लाने के लिए सी. एफ. एन्ड्र्यूज को अफ्रीका भेजनेवाले गोपाल कृष्ण गोखले और रबीन्द्रनाथ टैगोर ही थे।
लेकिन वही टैगोर समय-समय पर गांधी के सबसे बड़े आलोचक भी साबित हुए। भले ही दोनों के बीच गजब की आत्मीयता आजीवन बनी रही।
विदेशी ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचार के खिलाफ जिस समय गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया, उस दौरान टैगोर यूरोप के दौरे पर थे और पूरब तथा पश्चिम की आध्यात्मिक एकता के सूत्र तलाश रहे थे।
टैगोर ने ‘अहसयोग’ को एक नकारवादी विचार के रूप में देखा और इसे ‘एक प्रकार की हिंसा’ करार दिया। उन्होंने खुलकर इसकी आलोचना की।
टैगोर के इस रवैये के जवाब में महात्मा गांधी ने 1 जून, 1921 के ‘यंग इंडिया’ में एक लंबा लेख लिखा जिसका शीर्षक था- ‘कविवर की चिंता’।
गांधी ने लिखा- “मेरी समझ में रवीन्द्र बाबू को असहयोग आंदोलन के अभावात्मक या खंडनात्मक पक्ष से चौंकने की कोई जरूरत नहीं थी। हमलोगों ने ‘नहीं’ कहने की शक्ति बिल्कुल गंवा दी है। सरकार के किसी काम में ‘नहीं’ कहना पाप और अभक्ति गिना जाने लगा था।
...बोने के पहले निराई करना बहुत जरूरी होता है, जान-बूझकर पक्के इरादे के साथ असहयोग करना वैसा ही है। हर एक किसान जानता है कि फसल बढ़ते रहने की अवधि में भी खुरपी का उपयोग करते रहना जरूरी है।”
1934 में बिहार में भयानक भूकंप आया और बड़ी तबाही हुई। महात्मा गांधी ने तमिलनाडु में एक सार्वजनिक सभा में कहा कि यह दलितों के प्रति छुआछूत के पाप का ईश्वरीय दंड है। टैगोर ने गांधी के इस वक्तव्य को घोर अंधविश्वास का नमूना करार दिया।
टैगोर ने भूकंप के पीछे के इस तर्क को अवैज्ञानिक करार दिया और एक व्यंग्यपरक लेख लिखा जिसे स्वयं महात्मा गांधी ने 16 फरवरी, 1934 को अपने जवाब के साथ ‘यंग इंडिया’ में छापा। टैगोर ने लिखा कि इस तरह का तर्क तो महात्माजी के विरोधियों को ही शोभा देता है।
दरअसल, गांधी के इस बयान के बाद सनातनियों की ओर से भी तरह-तरह के बयान आने शुरू हो गए थे। किसी सनातनी ने कहा कि देश में जो सूखे और अकाल पड़ते हैं वे गांधी के छूआछूत-विरोधी आंदोलनों के ही दुष्परिणाम हैं। किसी ने कहा कि इससे पहले कि भूकंप के लिए गांधीजी के आंदोलनों को दोषी ठहराया जाता, उन्होंने सवर्णों को इसके लिए दोषी ठहराकर बढ़त बना ली है।
इधर गांधी अपने बयान पर कायम रहे। उन्होंने टैगोर का आलोचनापूर्ण आलेख तो 'यंग इंडिया' में छापा ही, साथ ही इसका जवाबी लेख भी छापा जिसका शीर्षक था- ‘अंधविश्वास बनाम श्रद्धा’।
गांधी ने लिखा- “मेरे इस मंतव्य पर कि बिहार के संकट का संबंध अस्पृश्यता के पाप से है, गुरुदेव ने अभी-अभी जो कुछ कहा है उससे हमारे पारस्परिक स्नेह में कोई अंतर नहीं आ सकता। उनके प्रति जो मेरे मन में अगाध सम्मान है, उसके कारण यह स्वाभाविक है कि मैं अन्य आलोचकों की अपेक्षा उनकी आलोचना की ओर और ज्यादा तत्परतापूर्वक ध्यान दूंगा।
...किंतु उनके वक्तव्य को तीन बार पढ़ जाने के बावजूद मैं इन स्तंभों में लिखी अपनी बातों पर कायम हूँ। ... [प्रकृति के विधान के बारे में] बड़े-से-बड़े वैज्ञानिक या दार्शनिक का ज्ञान भी धूल के कण जितना ही है।”
टैगोर ने अंग्रेजी भाषा में शिक्षण के प्रति गांधीजी की चेतावनी का भी विरोध किया था। 27 अप्रैल, 1921 के ‘यंग इंडिया’ में गांधीजी ने अंग्रेजी शिक्षा पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था-
“मेरी यह सोची-समझी राय है कि अंग्रेजी शिक्षा जिस ढंग से दी गई है उसने अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों को नामर्द बना दिया है। उसने भारतीय विद्यार्थियों के दिमागों पर एक भारी बोझ डाल दिया है और हमलोगों को नकलची बना दिया है।
...राममोहन राय को यदि अंग्रेजी में सोचने और अपने विचार व्यक्त करने का झंझट नहीं होता तो वे और भी बड़े सुधारक बन सकते थे। यही बाधा यदि लोकमान्य तिलक के आड़े नहीं आती तो वे और भी बड़े विचारक सिद्ध होते। ...मैं तो मानता हूँ कि चैतन्य, कबीर, नानक, गुरू गोबिंदसिंह, शिवाजी और प्रताप हमारे राममोहन राय और तिलक से कहीं बड़े थे।”
गांधी की यह बात टैगोर को नागवार गुजरी। अपने यूरोप दौरे पर ही उन्होंने इसके विरोध में शांतिनिकेतन के व्यवस्थापक को एक जोरदार चिट्ठी लिखी, जो बाद में इस शीर्षक से छपा- ‘राजा राममोहन राय को बौना मत ठहराईये’।
टैगोर ने लिखा- “आधुनिक शिक्षा को तुच्छ ठहराने के अपने अंध-आवेश में महात्मा गांधी ने राममोहन राय जैसे आधुनिक भारत के महान व्यक्तित्वों का जो अपमान किया है, मैं उसका कड़ा विरोध करता हूँ। यह दिखाता है कि वह अपने सिद्धांतों के प्रति आत्ममुग्ध होते जा रहे हैं जो कि अहंकार का ही एक खतरनाक रूप है, और महान से महान लोग भी कभी-कभी इसका शिकार हो जाते हैं।”
गांधी ने जब यह पढ़ा तो उन्होंने भी इसका जवाब देने की कोशिश की। 1 जून, 1921 को ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा- “मुझे यह देखकर दुःख हुआ कि डॉ. ठाकुर (टैगोर) का वह पत्र तथ्यों को जाने बिना गुस्से में लिखा गया है। ...अंग्रेजी की पढ़ाई बंद करने के मैंने जो कारण दिए हैं कवि ने उन्हें अपने लिए मान लिया।”
गांधीजी द्वारा चरखा और खादी के कथित महिमामंडन की आलोचना करते हुए टैगोर ने सितंबर, 1925 में एक लंबा लेख लिखा था जिसका शीर्षक था- ‘दी कल्ट ऑफ चरखा’। महात्मा गांधी ने 5 नवंबर, 1925 के ‘यंग इंडिया’ में ‘कवि-गुरु और चरखा’ शीर्षक से एक लेख लिखकर उन आलोचनाओं का जवाब दिया था।
इस तरह कई अवसरों पर और कई प्रश्नों पर गांधीजी और टैगोर के बीच एक मीठा और आलोचनात्मक संवाद प्रत्यक्ष औऱ अप्रत्यक्ष रूप से चलता रहा।
लेकिन कई अन्य अवसरों पर दोनों ने एक-दूसरे के बारे में इतनी भावपूर्ण बातें कहीं हैं जिन्हें पढ़कर एक-दूसरे के प्रति उनके अगाध सम्मान का पता चलता है। जैसे 4 दिसंबर, 1922 को महात्मा गांधी की अनुपस्थिति में सत्याग्रह आश्रम साबरमती में दिया गया टैगोर का भाषण जिसका शीर्षक था- ‘महात्मा कौन होता है?’
इसी तरह महात्मा गांधी के जन्मदिन पर 2 अक्टूबर, 1937 को भी टैगोर ने शांतिनिकेतन के छात्रों के समक्ष एक भाषण दिया था, जिसमें उन्होंने कहा था-
“हम उस महात्मा के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं जिसने हमेशा सत्य के लिए संघर्ष किया है। यह हमारे देश का सौभाग्य है कि एक ऐसे समय में जबकि हमारा देश नए युग के प्रवेश-द्वार पर खड़ा है, वह महात्मा तात्कालिक परिणामों की खातिर सार्वभौमिक नैतिकता के मानदंडों से कभी भी विमुख नहीं हुआ है।”
ठीक इसी तरह गांधीजी ने भी कई अवसरों पर टैगोर को बड़े ही भावपूर्ण शब्दों में श्रद्धांजलि दी थी। 20 दिसंबर, 1945 को शांतिनिकेतन के कार्यकर्ताओं और अध्यापकों के साथ बातचीत में गांधीजी ने कहा था-
“मैंने तो अपने और गुरुदेव के बीच कोई वास्तविक विरोध नहीं पाया। शुरू में मुझे गुरुदेव और अपने बीच मतभेद दिखाई पड़ता था, किंतु अंत में मुझे यह सुखद अनुभव हुआ कि हमारे विचारों में कोई विरोध नहीं था।”
और भी कई प्रसंग हैं जिन्हें विस्तार से इस लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है- https://satyagrah.scroll.in/article/116002/gandhi-tagore-relationship