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ये लोग संस्कृत इसलिये पढ़ते हैं: -
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1983 में दक्षिण भारत के मीनाक्षीपुरम में एक पूरे गाँव का मतान्तरण किया गया था और वहां के शिव मंदिर को मजहबी स्थल में बदल दिया गया था। ये संभवतः मुग़ल काल के बाद इतने बड़े पैमाने पर सामूहिक मतान्तरण की सबसे बड़ी घटना थी। इस घटना ने पूरे भारत को हिलाकर रख दिया और हिंदुत्वनिष्ठ संगठन भौचक्के रह गये थे कि ये क्या हो गया।

पर सौभाग्य से इस घटना के बाद विरोध प्रदर्शन और हिन्दू समाज की जागरूकता इतनी बढ़ी कि फिर दशकों तक वो लोग सामूहिक मतान्तरण की हिम्मत नहीं दिखा सके।

पर चूँकि उनके यहाँ विस्तारवाद मूल प्रवृति है तो इसके बिना रहे कैसे; तो उन्होंने तरीका बदल लिया और कहा अब कान को हाथ घुमाकर पकड़ना है और फिर शुरू हुआ "कम्पेरेटिव स्टडी ऑफ़ रिलीजन" के नाम पर एक नया खेल ।

करीब-करीब यही स्थिति मिशनरियों की भी थी, तो तरीके बदले गये और नये तरीके में चुना गया कि ब्राहमण नेतृत्व से विहीन हिन्दू समाज चूँकि अपने धार्मिक ग्रंथों से पूरी तरह कट चुका है तो संस्कृत पढ़ो और इनको इनकी ही धार्मिक किताबों से अपने काम की चीज़ समझा दो।

इसके बाद मिशनरियों और मौलवियों में से एक के बाद एक कई लोग आगे आये जिन्होंने बाकायदा संस्कृत सीखी और हिन्दू धर्म-ग्रंथों का अध्ययन कर हमें हमारे ही शास्त्र उल्टा समझाने लगे।

यहाँ एक बात और बताने की है कि जमात-अहमदिया वाले चूँकि सबसे अग्रेसिव धर्म-प्रचारक हैं; तो उन्होंने ये काम इन घटनाओं से काफी पहले करना शुरू कर दिया था और वेदों, पुराणों, गीता और महाभारत के आंशिक अनुवाद उन्होंने करवाये और घोषित किया कि वेदों में एक पैगंबर के आने की भविष्यवाणी है, जो मिर्ज़ा गुलाम अहमद हैं और कल्कि तथा बिष्णु पुराण में जिस दशम अवतार की चर्चा है वो भी मिर्ज़ा गुलाम अहमद हैं। अपने इस झूठ को वो इसलिये बेच पाये कि वहां के हिन्दू संस्कृत ज्ञान से पूरी तरह कट गये थे और उनको अहमदी मौलवियों ने जैसा बताया उन्होंने वैसा ही मान लिया।

यही काम ईसाई मिशनरियों ने भी किया, जब रोबर्ट डी नोबुली नाम के जर्मन मिशनरी ने नकली ईसा वेद व ईसोपनिषद की रचना कर हिन्दुओं को भ्रमित किया। फिर अब तो वो लोग संस्कृत मंत्र भी ईजाद कर चुके हैं ईसा मसीह के लिये।

"अगर अब भी न जागे तो" नाम की किताब भारत के उत्तर-प्रदेश से छापी गई, लेखक थे मौलाना शम्स नवेद उस्मानी। संभवतः यह पहली किताब थी जिसने मुस्लिमों को ये सिखाया कि आप संस्कृत सीखो और हिन्दुओं के संस्कृत अज्ञान का फायदा उठाकर उन्हें दीन की दावत दो। इस किताब ने भारत और विशेषकर उत्तर-प्रदेश में मतांतरण की नई फ़सल काटी, इसी नवेद उस्मानी के अब्दुल्ला तारिक समेत कई शिष्य हुये जो आजकल मदरसों में संस्कृत और "धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन विषय" समझाते घूम रहे हैं।

इसके बाद बारी आई जाकिर नाईक की, जिसने संस्कृत का उपयोग कर मतान्तरण की झड़ी लगा दी। वेदों में तौहीद, वेद में काबा, वेद में इब्राहीम का ज़िक्र, वेदों में गोहत्या, नराशंस ही रसूल, वेदों में अहज़ाब की जंग और फ़तह-मक्का का ज़िक्र, उपनिषदों में मूर्ति-पूजा अपराध माना गया है, ऐसा प्रचार करके उसने हमारी एक पूरी पीढ़ी खराब कर दी।

अब संस्कृत को किसी दायरे में कैद न करो जैसे प्रलाप करने वालों से मेरा प्रश्न है कि आखिर ये लोग संस्कृत सीखकर संस्कृत पर कौन सा उपकार करना चाहते हैं? कभी ये भी तो सोचो कि आखिर ये क्यों संस्कृत सीखना चाहते हैं?

● प्रश्न है कि क्या ज़ाकिर नाईक, इसरार अहमद, नवेद उस्मानी वगैरह के ये सार्वजनिक स्टेटमेंट नहीं हैं कि हम संस्कृत सीखकर हिन्दुओं को दीन की दावत और बेहतर तरीके से दे सकेंगे?

● मदरसों में, ज़ाकिर के चिल्ड्रेन्स स्कूल में और मसीही विद्यालयों में संस्कृत पढ़ाने के पीछे की इनकी मंशा क्या अपने मजहब को बेहतर साबित करने का नहीं है?

● क्या ये हमारे एकेश्वरवाद को तौहीद से जोड़ने का खेल संस्कृत सीख कर नहीं कर रहे?

● अहमदी मुल्लों ने सबसे अधिक संस्कृत सीखी पर आज भी वो ये मानते हैं कि संस्कृत अरबी की तुलना में कमतर भाषा है और अरबी उम्मुल-कुरा यानि भाषाओं की जननी है।

● और अगर है तो संस्कृत को लेकर बिना जाने-समझे अनर्गल प्रलाप करने वालों को और किसी फ़िरोज़ के लिये छाती में ममता का सागर उतारने वालों को चुन-चुनकर ब्लॉक करिये अन्यथा मतान्तरण आपके और आपके बच्चे की किस्मत है.......!!!!
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#BHU