मनोज जायसवाल's Album: Wall Photos

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गोडसे की गोली का इतिहास पानीपत की तीसरी लड़ाई से शुरू होता है

अगर भाऊ सिंध और पंजाब पर दावा छोड़ने की शर्त स्वीकार कर लेते तो पानीपत का युद्ध भी नहीं होता । पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान का हिस्सा होता और गोडसे को गोली भी नहीं चलानी पड़ती ।

पानीपत के तीसरे युद्ध की रणभूमि सजी हुई थी । दोनों तरफ से सुलह की शर्तों के लिए ख़लीते लिखे जा रहे थे । तोल-मोल जारी था लेकिन मराठों को सुलह की जरूरत ज्यादा थी क्योंकि उनकी रसद अब्दाली ने काट दी थी । पानीपत के पेड़ों के छालें भी मराठों ने उतार ली थी क्योंकि खाने के लिए अनाज नहीं बचा था । जिन घोड़ों पर बैठकर मराठों को जंग लड़नी थी उन घोड़ों को सूखी घास भी नहीं मिल रही थी... जिन्हें सवारों को सँभालना था वो खुद ही फिसल रहे थे । दूसरी तरफ अब्दाली के खेमे में जश्न का आलम था । अवध के नवाब शुजाउद्दौला और रुहेलखंड के नवाब नजीबुद्दौला, अहमद शाह अब्दाली के साथ दस्तरख़ान में मुर्गियों की टांगे उड़ा रहे थे । रसद की कोई कमी नहीं थी क्योंकि शुजाउद्दौला के अवध से बोरियाँ भर भर कर अनाज अब्दाली के ख़ेमे में पहुंच रहा था । नजीबुद्दौला तो खुला ग़द्दार था । ग़द्दार कहना भी उचित नहीं... दुश्मन था । ग़द्दार तो शुजाउद्दौला था वो शिया मुसलमान था उसके पिता सफ़दर जंग मुगल बादशाह के वज़ीर थे । लेकिन शिया होने की वजह से उसकी प्रताड़ना होती थी । आखिर अपने बीवी बच्चों के साथ उसको दिल्ली छोड़नी पड़ी ।अवध को उसने अपना ठिकाना बनाया । पेशवा बाजीराव के सेनापति मल्हार राव होलकर की बाज़ुओं के दम पर वो मुगलों को आँखें दिखाता था । पेशवा का भी हाथ सफदरजंग के सिर पर था ।

पेशवा तो गुज़र गए लेकिन कुछ सालों के बाद जब अब्दाली ने भारत पर हमला किया तो पेशवा बाजीराव के बेटे शमशेर बहादुर ने नवाब शुजाउद्दौला को चिट्ठी लिखी.. पुराने अहसानों की याद दिलाई । लेकिन सब बेकार गया क्योंकि ला इलाहा इलल्ला का रिश्ता अब्दाली के साथ था.. मराठों के साथ नहीं ।

पानीपत के उस रेगिस्तान में भाऊ पर लाखों लोगों के जीवन को पालने की ज़िम्मेदारी थी । हजारों की संख्या में महिलाएँ थीं.. हजारों बाज़ारू लोग और दुकानदार थे और फौज भी साथ में थी । इसके अलावा वो लाखों पशु भी थे जिनके दाना पानी का इंतज़ाम करना भी भाऊ की ज़िम्मेदारी थी ।

संधि हो जाती तो भाऊ इस आफ़त से निकल जाते लेकिन नजीबुद्दौला संधि में सबसे बड़ा संकट था ! अब्दाली भारत के वीरों की तलवारों का इतिहास जानता था वो बीच का रास्ता निकालना चाहता था । उसने बड़ी उम्मीदों से भाऊ को खलीता भेजा कि आप हमें पंजाब और सिंध का पूरा इलाक़ा दे दें झगड़ा खत्म । भाऊ मुसीबतों में घिरे थे । उन पर दबाव बहुत ज्यादा था लेकिन ये फैसला लेना आसान नहीं था । क्योंकि ये साधारण युद्ध नहीं था ये भारत की सीमाएँ तय करने वाला युद्ध था । अगर एक हिंदू राजा ही पंजाब और सिंध अब्दाली को सौंप देता तो भविष्य में पंजाब और सिंध पर हिंदुओं का कभी दावा ही नहीं रहता । आखिरकार भाऊ ने अब्दाली की ये शर्त अस्वीकार कर दी ।

इसके बाद घनघोर युद्ध हुआ । महाराष्ट्र का ऐसा कोई घर नहीं था जहां से कोई ना कोई बलिदान नहीं हुआ हो । जंग जीतने के बाद भी अब्दाली सावधान था उसने अपने वज़ीर शाह वली से पूछा.. मराठे रात में दोबारा हमला तो नहीं कर देंगे.. शाह वली ने कहा.. हुज़ूर सारा दक्खिन फ़ना हो गया.. अब कौन बाकी है जो हमला करेगा ।

130 साल बाद उसी दक्खिन से निकलकर गोडसे ने महात्मा गांधी को गोली मार दी । जिस पंजाब और सिंध के लिये मराठों के लाखों पूर्वजों ने अपना सिर कटवाया था वही सिंध गांधी की मेहरबानियों से नए अब्दालियों के हाथ चला गया । अब गोडसे को आतंकवादी कहा जाता है... अब्दालियों के बेटे महान सेकुलर हैं । शुजा और नजीब की औलादों को अल्पसंख्यक का दर्जा मिला हुआ है । भारत की भूमि पर अगर कोई अल्पसंख्यक हैं तो वो हैं इस धरती की मिट्टी से प्यार करने वाले सच्चे लोग ।

(मित्रों ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों के साथ सत्यकथाएं लिखकर देश और हिंदुत्व को मजबूत करना हमारा लक्ष्य है... आपसे प्रार्थना है कि कृपया इस पेज को जरूर लाइक करें जिससे ये पोस्ट प्रेषित की गई है । धन्यवाद )

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सत्यमेव जयतेगोडसे की गोली का इतिहास पानीपत की तीसरी लड़ाई से शुरू होता है

अगर भाऊ सिंध और पंजाब पर दावा छोड़ने की शर्त स्वीकार कर लेते तो पानीपत का युद्ध भी नहीं होता । पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान का हिस्सा होता और गोडसे को गोली भी नहीं चलानी पड़ती ।

पानीपत के तीसरे युद्ध की रणभूमि सजी हुई थी । दोनों तरफ से सुलह की शर्तों के लिए ख़लीते लिखे जा रहे थे । तोल-मोल जारी था लेकिन मराठों को सुलह की जरूरत ज्यादा थी क्योंकि उनकी रसद अब्दाली ने काट दी थी । पानीपत के पेड़ों के छालें भी मराठों ने उतार ली थी क्योंकि खाने के लिए अनाज नहीं बचा था । जिन घोड़ों पर बैठकर मराठों को जंग लड़नी थी उन घोड़ों को सूखी घास भी नहीं मिल रही थी... जिन्हें सवारों को सँभालना था वो खुद ही फिसल रहे थे । दूसरी तरफ अब्दाली के खेमे में जश्न का आलम था । अवध के नवाब शुजाउद्दौला और रुहेलखंड के नवाब नजीबुद्दौला, अहमद शाह अब्दाली के साथ दस्तरख़ान में मुर्गियों की टांगे उड़ा रहे थे । रसद की कोई कमी नहीं थी क्योंकि शुजाउद्दौला के अवध से बोरियाँ भर भर कर अनाज अब्दाली के ख़ेमे में पहुंच रहा था । नजीबुद्दौला तो खुला ग़द्दार था । ग़द्दार कहना भी उचित नहीं... दुश्मन था । ग़द्दार तो शुजाउद्दौला था वो शिया मुसलमान था उसके पिता सफ़दर जंग मुगल बादशाह के वज़ीर थे । लेकिन शिया होने की वजह से उसकी प्रताड़ना होती थी । आखिर अपने बीवी बच्चों के साथ उसको दिल्ली छोड़नी पड़ी ।अवध को उसने अपना ठिकाना बनाया । पेशवा बाजीराव के सेनापति मल्हार राव होलकर की बाज़ुओं के दम पर वो मुगलों को आँखें दिखाता था । पेशवा का भी हाथ सफदरजंग के सिर पर था ।

पेशवा तो गुज़र गए लेकिन कुछ सालों के बाद जब अब्दाली ने भारत पर हमला किया तो पेशवा बाजीराव के बेटे शमशेर बहादुर ने नवाब शुजाउद्दौला को चिट्ठी लिखी.. पुराने अहसानों की याद दिलाई । लेकिन सब बेकार गया क्योंकि ला इलाहा इलल्ला का रिश्ता अब्दाली के साथ था.. मराठों के साथ नहीं ।

पानीपत के उस रेगिस्तान में भाऊ पर लाखों लोगों के जीवन को पालने की ज़िम्मेदारी थी । हजारों की संख्या में महिलाएँ थीं.. हजारों बाज़ारू लोग और दुकानदार थे और फौज भी साथ में थी । इसके अलावा वो लाखों पशु भी थे जिनके दाना पानी का इंतज़ाम करना भी भाऊ की ज़िम्मेदारी थी ।

संधि हो जाती तो भाऊ इस आफ़त से निकल जाते लेकिन नजीबुद्दौला संधि में सबसे बड़ा संकट था ! अब्दाली भारत के वीरों की तलवारों का इतिहास जानता था वो बीच का रास्ता निकालना चाहता था । उसने बड़ी उम्मीदों से भाऊ को खलीता भेजा कि आप हमें पंजाब और सिंध का पूरा इलाक़ा दे दें झगड़ा खत्म । भाऊ मुसीबतों में घिरे थे । उन पर दबाव बहुत ज्यादा था लेकिन ये फैसला लेना आसान नहीं था । क्योंकि ये साधारण युद्ध नहीं था ये भारत की सीमाएँ तय करने वाला युद्ध था । अगर एक हिंदू राजा ही पंजाब और सिंध अब्दाली को सौंप देता तो भविष्य में पंजाब और सिंध पर हिंदुओं का कभी दावा ही नहीं रहता । आखिरकार भाऊ ने अब्दाली की ये शर्त अस्वीकार कर दी ।

इसके बाद घनघोर युद्ध हुआ । महाराष्ट्र का ऐसा कोई घर नहीं था जहां से कोई ना कोई बलिदान नहीं हुआ हो । जंग जीतने के बाद भी अब्दाली सावधान था उसने अपने वज़ीर शाह वली से पूछा.. मराठे रात में दोबारा हमला तो नहीं कर देंगे.. शाह वली ने कहा.. हुज़ूर सारा दक्खिन फ़ना हो गया.. अब कौन बाकी है जो हमला करेगा ।

130 साल बाद उसी दक्खिन से निकलकर गोडसे ने महात्मा गांधी को गोली मार दी । जिस पंजाब और सिंध के लिये मराठों के लाखों पूर्वजों ने अपना सिर कटवाया था वही सिंध गांधी की मेहरबानियों से नए अब्दालियों के हाथ चला गया । अब गोडसे को आतंकवादी कहा जाता है... अब्दालियों के बेटे महान सेकुलर हैं । शुजा और नजीब की औलादों को अल्पसंख्यक का दर्जा मिला हुआ है । भारत की भूमि पर अगर कोई अल्पसंख्यक हैं तो वो हैं इस धरती की मिट्टी से प्यार करने वाले सच्चे लोग ।

(मित्रों ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों के साथ सत्यकथाएं लिखकर देश और हिंदुत्व को मजबूत करना हमारा लक्ष्य है... आपसे प्रार्थना है कि कृपया इस पेज को जरूर लाइक करें जिससे ये पोस्ट प्रेषित की गई है । धन्यवाद )

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सत्यमेव जयते