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#लाहौर.... 1947
प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा

15 अगस्त, 1947 को भारत की राजधानी दिल्ली दुल्हन की तरह सजी थी। सोलह श्रृंगार कर नृत्य हो रहे थे। लालकिले पर तिरंगा फहराकर नेहरू जी ने प्रथम स्वाधीनता दिवस की घोषणा की।
परन्तु उसी 15 अगस्त, 1947 को लाहौर में और पूरे पश्चिम पंजाब व सीमा प्रान्त में हिन्दू-सिख इलाके और उनके घर धू-धू कर जल रहे थे। हजारों लाखों के काफिले छोटा मोटा सामान लेकर छोटे बच्चों को उठाए, महिलाओं को बीच में रखकर बड़े-बूढ़ों को सम्हालते हुए भारत की ओर आ रहे थे। स्थान-स्थान पर लूटपाट, अपहरण व हत्याएं हो रही थीं। रेलगाड़ियां चल तो रही थीं, परन्तु भीड़ इतनी अधिक थी कि लोग रेलगाड़ियों की छतों पर बाल-बच्चों समेत बैठने को मजबूर थे। छतों पर बैठे कितने ही लोग पटरियों के पास बैठे पाकिस्तानी दरिंदों की गोलियों का शिकार होते थे।
15 अगस्त को मैं लाहौर में था और मैंने वह लोमहर्षक भीषण भयावने कांड स्वयं अपनी आंखों से देखे थे, जो लगभग 60 वर्ष बीत जाने पर आज भी मेरे दिलोदिमाग को दहला देते हैं।
पंजाब के संघ स्वयंसेवकों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ओ.टी.सी. शिक्षण वर्ग फगवाड़ा में लगा था। यह शिविर 20 अगस्त को समाप्त होना था। परन्तु पश्चिमी पंजाब व सीमा प्रान्त में भीषण मार-काट, हत्या, लूट, अपहरण, मुस्लिमलीगियों द्वारा संचालित मुस्लिमों द्वारा गांवों, कस्बों और शहरों के हिन्दू आबादी वाले क्षेत्रों पर सामूहिक हमलों की घटनाओं और हिन्दू-सिखों के पलायन के दिल दहलाने वाले समाचार आ रहे थे और हिन्दुओं की एक मात्र रक्षा की आशा संघ के लगभग 1900 प्रमुख स्वयंसेवक और अधिकारी फगवाड़ा में एकत्रित थे। संघ अधिकारियों ने निर्णय किया कि शिविर को 20 अगस्त की बजाय 10 अगस्त को ही समाप्त कर दिया जाए।
हम लोग 10 अगस्त को ही पहली गाड़ी से लाहौर के लिए चल दिए। उस गाड़ी में या तो संघ के स्वयंसेवक वापस पंजाब के अपने घरों को लौट रहे थे या फिर अमृतसर व पूर्वी पंजाब से जाने वाले मुसलमान थे। अटारी स्टेशन पार करते ही वातावरण बदला-बदला सा था। जल्लो, हरबंसपुरा, मुगलपुरा स्टेशनों पर जिन्ना का फोटो लिए मुस्लिम हुजूम एकत्र था। वह रेल के हर डिब्बे में "कायदे आजम" के चित्र बांट रहा था। मेरे साथी स्वयंसेवक ने वह चित्र घृणा से फाड़कर पांव से कुचल दिया। डिब्बे में हम चार-पांच स्वयंसेवकों को छोड़कर सब अमृतसर से पाकिस्तान जा रहे मुसलमान थे। गाड़ी में झगड़ा करना उचित न समझ कर मैंने उसे रोका। उस समय जिन्ना प्रतीक थे मुस्लिम साम्प्रदायिकता के, भारत विभाजन के, हिन्दुओं के नरसंहार के।
लाहौर पहुंचते ही देखा, स्टेशन पर संघ द्वारा संचालित पंजाब सहायता समिति का शिविर लगा था। हमारे परिचित कुछ कार्यकर्ता वहां थे। उन्होंने बताया कि एक अन्य प्लेटफार्म पर वह गाड़ी खड़ी थी जो रावलपिंडी से आई थी। जिसे बीच-बीच में रोककर लूटा गया था और अनेक लोगों की हत्या की गई थी। हम स्टेशन से बाहर निकले और अपने-अपने घरों को चले गए।
मेरा पूरा परिवार लाहौर छोड़कर जा चुका था। संघ शिविर में पत्र व्यवहार की अनुमति न होने के कारण मुझे यह भी पता न था कि वे कहां गए हैं। घर में एक किराएदार के पास चाबियां थीं। मुहल्ले में दस बारह घरों में कुछ लोग थे, शेष सब जा चुके थे। उसी दिन संघ के कुछ कार्यालयों, डी.ए.वी. कालेज में लगे शिविर और हिन्दू सहायता समिति के कार्यालय में संघ के स्वयंसेवकों से सम्पर्क स्थापित किया। 10 अगस्त की रात को लाहौर में छत से जहां तक भी नजर जाती थी, चारों ओर धू-धू कर जल रही सम्पत्तियों के ह्मदय विदारक दृश्य थे। हिन्दू मोहल्लों से उठती लपटें आकाश को छू रही थीं। "अल्ला-हो-अकबर" के नारे चारों ओर गूंज रहे थे। संघ शिविर में जाने से पूर्व जब किसी ओर से "अल्ला-हो-अकबर" के नारे लगते थे तो हिन्दू-सिख मोहल्लों से "हर हर महादेव" और "सत् श्री अकाल" के बराबर के नारे लगते थे। परन्तु अब प्रतिक्रिया की कोई सामथ्र्य बची नहीं थी।
11 अगस्त सायंकाल को एक परिवार, जिसका घर मुस्लिम मुहल्ले के निकट था, वह अपना सामान लेकर छिपता हुआ हमारे घर के पास से जा रहा था। उसके पीछे-पीछे एक मुस्लिम नेता आया और उसने उसे वापस अपने घर जाने के लिए कहा। मुहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए। उस मुस्लिम नेता ने कहा कि "पाकिस्तान के सर्वेसर्वा जिन्ना ने भी रेडियो में अपील की है कि हिन्दुओं और सिखों को अपना घर छोड़कर जाने की जरूरत नहीं। वह अपने-अपने घरों में रहें और पाकिस्तान में उनकी सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध किया जाएगा।" मोहल्ले के लोगों में आशा की किरण बंधी और वह परिवार अपने घर लौट गया। परन्तु उसी रात उसके घर में आग लगा दी गई और पूरे घर को लूट लिया गया। पूरे परिवार की हत्या कर दी गई। अगले दिन वहां बचे-खुचे लोगों ने मोहल्ला छोड़ दिया। हम वहां से निस्बत रोड स्थित संघ कार्यालय में, जहां एक सहायता शिविर चलता था, चले गए।
12-13 अगस्त को मैं निस्बत रोड पर चलाए जा रहे अस्थाई शिविर में था। रात को एक कार में एक महिला और उसके कुछ रिश्तेदार एक व्यक्ति के शव को लेकर निस्बत रोड पर आए। उस महिला का पति कुछ रुपए लेने एक मुस्लिम मित्र के पास गया था। उसने रुपए देने के बहाने उसे घर पर बुलाया और वहां उसकी हत्या कर दी। रावी के किनारे श्मशान पर जाना खतरे से खाली नहीं था। श्मशान के बाबे भी भाग चुके थे। रात को शव रखने का स्थान भी नहीं था। महिला और उसके सम्बंधी चाहते थे कि उसके पति का संस्कार निस्बत रोड में एक खाली भूखण्ड पर कर दिया जाए। परन्तु मोहल्ले के बचे लोग एकत्र हो गए और रिहायशी क्षेत्र में संस्कार को अशुभ मान कर उसकी अनुमति नहीं दी। फिर वह महिला अपने पति के शव को लेकर कहां चली गई, मालूम नहीं। मोहल्ले के लोगों को पता नहीं था कि अपने जिन मकानों में शव संस्कार के कारण उनके अपवित्र होने की उन्होंने जो आशंका जाहिर की थी वह मोहल्ला, वह शहर हमेशा के लिए उनके हाथ से निकल जाएगा।
डी.ए.वी. कालेज, लाहौर और उसके छात्रावास में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित पंजाब सहायता समिति का शरणार्थी शिविर लगा हुआ था। लाहौर मेडिकल कालेज के संघ के स्वयंसेवक डाक्टर, महिला डाक्टर, नर्से, छोटा सा अस्पताल चला रहे थे। बीसियों घायलों का वहां इलाज हो रहा था। सारे पश्चिमी पंजाब से हिन्दू-सिख अपना घर-बार खेत-खलिहान, दुकानें, कारखाने, माल-असबाब छोड़ कर डी.ए.वी. कालेज के शरणार्थी शिविर में पहुंचे थे और वहां से डोगरा व गोरखा सैनिकों की सुरक्षा में उन्हें भारत जाने वाली गाड़ियों में भेजा जाता था।
शिविर से कुछ स्वयंसेवक कुछ डोगरा सैनिकों के साथ लाहौर के सब क्षेत्रों में जा-जा कर फंसे हुए हिन्दुओं को निकालने का काम करते थे। मुझे कुछ दिनों के लिए डी.ए.वी. कालेज के शिविर में काम करने के लिए कहा गया।
प्रतिदिन की तरह हम 5-5 स्वयंसेवक दो जीपों में बैठकर सेना की सुरक्षा में विभिन्न क्षेत्रों में फंसे हिन्दू, सिखों को निकालने के लिए निकले। मैं जिस दल में था वह गवालमंडी, मेवामंडी, किला गुज्जर सिंह आदि क्षेत्रों में फंसे लोगों को निकालने गया और दूसरा दल शहरी क्षेत्र गुरुदत्त भवन, शाह आलमी, वच्छोवाली इत्यादि क्षेत्रों की ओर गया था। साथ में थी डोगरा सैनिकों की एक-एक जीप। हम लोग सारा दिन घूम कर कुछ लोगों को निकालकर शाम को वापस लौटे। भरे पूरे घरों को छोड़कर केवल एक छोटा संदूक साथ लेकर परिवारों को निकलने की अनुमति थी। परन्तु दूसरी जीप और उसके साथ गए कार्यकर्ता लौटे नहीं थे। उनके साथ गई डोगरा सैनिकों की जीप वापस आ गई थी। उस जीप को पुन: लेकर स्वयंसेवकों को ढूंढने के लिए कुछ कार्यकर्ता गए, परन्तु उनका कुछ पता नहीं चला। रात बारह बजे उनमें से एक किशोर स्वयंसेवक देवेन्द्र बदहवास, छिपता-छिपाता डी.ए.वी. कालेज पहुंचा। उसने उस लोमहर्षक घटना का विवरण सुनाया। उनकी जीप डोगरा सैनिकों की जीप से अलग हो गई थी और मुस्लिम पुलिस ने उसे रोककर तलाशी ली तो उसमें राइफल व असला बरामद हो गया। मुस्लिम पुलिस सब स्वयंसेवकों को लेकर एक नाले के पास गई और एक पंक्ति में खड़ा करके उन्हें गोलियों से उड़ा दिया। देवेन्द्र गोली लगने से पूर्व ही गिर गया था। मुस्लिम पुलिस सबको मरा समझा कर लाशों को वहीं छोड़कर चली गई। काफी देर बाद देवेन्द्र उठकर बचता-बचाता डी.ए.वी. कालेज पहुंचा।
सारे पंजाब से लूटे-पिटे, घर-बार, मकान, हवेली, खेत-खलिहान छोड़कर हजारों की संख्या में लोग प्रतिदिन डी.ए.वी. कालेज और उसके छात्रावास में पहुंच रहे थे। प्रत्येक की अपनी अपनी रोंगटे खड़ी कर देने वाली आपबीती थी। भयंकर अन्याय व अत्याचारों की घटनाएं सुनकर आंसू रोकना कठिन होता था। परिवार के परिवार मौत के घाट उतार दिए गए। असंख्य महिलाओं का अपहरण कर लिया गया था। अनेक महिलाओं ने कुंओं में छलांग लगाकर या घर, गुरुद्वारा या मंदिर में आग लगाकर भस्म होकर अपने सम्मान की रक्षा की थी।
नेहरू-लियाकत समझौते के अन्तर्गत डी.ए.वी. कालेज और उसके छात्रावास में, डा. गोकुल चन्द की कोठी में बने पंजाब सहायता समिति के कार्यालय, रेलवे स्टेशन, अस्पताल व अन्य कुछ स्थानों पर डोगरा व गोरखा सैनिकों की कुछ टुकड़ियां तैनात थीं। उन्हें साथ लेकर संघ के स्वयंसेवक जान हथेली पर रखकर विलक्षण वीरता, साहस, त्याग, बलिदान का परिचय देते हुए हिन्दू-सिख पीड़ितों को बचाने का काम कर रहे थे !
अगस्त की ही कोई तारीख थी , जवाहरलाल नेहरू डी.ए.वी. कालेज शिविर में सायंकाल को आए थे। उस समय वे सहायता समिति के कार्यालय गए थे। हजारों की संख्या में पीड़ित शरणार्थियों ने गुस्से में "नेहरू वापस जाओ", "गो बैक", "गो बैक" के नारे लगाने शुरू किए। लोगों का गुस्सा देखकर पं. नेहरू और बलदेव सिंह वापस चले गए। इस बीच स्वयंसेवकों ने लोगों का गुस्सा शांत किया। कुछ देर बाद पं. नेहरू व बलदेव सिंह फिर वापस आए। पं. नेहरू ने घटनाओं पर दुख प्रकट करते हुए आश्वासन दिया कि "पाकिस्तान सरकार से बातचीत हो गई है और तुरन्त शांति हो जाएगी। भारतीय सैनिक टुकड़ियां लाहौर व पाकिस्तान के अन्य शहरों, कस्बों में तैनात कर दी गई हैं। अब किसी को घबराने की आवश्यकता नहीं है।" उनके वापस जाते ही उस रात भी लाहौर धू-धू कर जलता रहा। मुझे स्मरण है कि एक डोगरा सैनिक एक मन्दिर की मूर्तियां लेकर मेरे पास आया था कि गुंडों के हाथों उस मंदिर को बचाना अब कठिन है इसलिए मूर्तियों के खण्डित व अपमानित होने से पूर्व वह उन्हें उठा लाया है।
यद्यपि विभाजन रेखा की अधिकारिक घोषणा 15 अगस्त को भी नहीं हुई थी, परन्तु कांग्रेसी मंत्रियों और नेताओं द्वारा लाहौर छोड़कर चले जाने के कारण यह स्पष्ट था कि लाहौर पाकिस्तान में शामिल हो रहा है।
नेहरू जी के आश्वासन के बावजूद कुछ वाल्मीकियों को छोड़कर, जिन्हें मुसलमानों ने निकलने नहीं दिया,शेष लुटे-पिटे हिन्दुओं ने कुछ दिनों में ही लाहौर खाली कर दिया !!