सन्जीव मिश्र's Album: Wall Photos

Photo 109 of 1,617 in Wall Photos

Devanshu Jha

अनन्य आज़ाद

कुछ छिटपुट यादें( साथी क्रांतिकारियों के दस्तावेज़ से)

एक बार भगत सिंह ने हंसते हुए कहा कि पंडित जी, आपके लिए दो रस्सों की ज़रूरत होगी। एक आपकी मोटी गरदन के लिए और दूसरा आपके भारी भरकम पेट के लिए। आज़ाद ने गंभीर होकर जवाब दिया; अरे यह रस्सा फस्सा तो तुमलोग अपने लिए रखो। मेरे लिए तो यह माउजर काफ़ी है। पंद्रह गोलियां पुलिसवालों पर दागूंगा और सोलहवीं गोली अपनी खोपड़ी पर..मुझे जीते-जी कोई पकड़ नहीं पाएगा...

झांसी के पास छुपकर रहते हुए एक बार आज़ाद ने देखा कि उनका एक पड़ोसी रात को पीकर अपनी पत्नी को बहुत मारता है। सुबह उन्होंने उसे टोका; भई तुम आदमी तो ठीक ही मालूम पड़ते हो लेकिन दारू पीकर अपनी पत्नी को पीटना बंद कर दो। वह तैश में आ गया। उसने कहा, मेरी पत्नी, जो मर्जी आए करूंगा। तुम कौन होते हो टोकने वाले?

आज़ाद बोले, आज रात पीट कर दिखाना!
उसने तुनककर कहा; रात की तो छोड़ो, अभी पीटूंगा। यह कहकर वह अपने घर में घुसा और पत्नी को उसके बालों से घसीटते हुए बाहर ले आया। आज़ाद का खून खौल उठा। उन्होंने अपने बलिष्ठ हाथ से एक तमाचा उसके मुंह पर जड़ा तो वह तिलमिलाता हुआ नीचे बैठ गया। दुबारा उसके हाथ पत्नी को मारने के लिए नहीं उठे।

अंग्रेजी हुकूमत की आंखों में खटकने के कारण अक्सर क्रांतिकारी उनके साथ रक्षा के लिए चलते थे लेकिन ज़रा सी आहट होने पर वह अपने साथियों को खींचकर पीछे कर देते थे। खुद अपनी पिस्तौल ताने खड़े हो जाते।

आज़ाद की आंखों में केवल तीन बार आंसू आए। पहली बार भगवतीचरण वोहरा की दुखद मृत्यु पर। दूसरी बार भगत सिंह की फांसी पर और तीसरी बार सभी क्रांतिकारियों के पकड़े जाने पर विछिन्न हो चुके दल की दुर्दशा पर। बिस्मिल उन्हें पारा कहते थे। यानी छटपटाता हुआ विकल प्राण। जो देश के लिए कुछ भी करने को तैयार हो। शुरू में बिस्मिल उन्हें अपने अभियानों में साथ ले जाने से बचते थे। उन्हें डर था कि आज़ाद अपनी उत्तेजना के कारण सबसे पहले धरे जाएंगे मगर आज़ाद सबसे विकट योद्धा थे। जीते-जी कभी नहीं धरे गए। कम से कम दर्जनों मौकों पर वे पुलिस वालों को छूकर, उनके बिलकुल पास से गुज़र गए जैसे हवा छूकर गुज़र जाती है। जैसे, मौत एक गीत रात गाती थी, ज़िन्दगी झूम झूम जाती थी!!

वे कहा करते थे कि किस शहर में मुझे कब तक टिकना है, यह बात मुझे शहर की धूप और हवा खुद बतला देती है। मुझे संकेत मिलता है और मैं निकल लेता हूं. ...!

अल्फ्रेड पार्क में उनके बलिदान के कुछ साल बाद अंग्रेज अधिकारी ने एक मशहूर क्रांतिकारी से बातचीत में कहा था कि उस दिन अगर आज़ाद के पास पर्याप्त गोलियां रही होतीं तो एक भी पुलिसवाला ज़िन्दा न बचा होता। उस छोटे कद के स्थूलकाय व्यक्ति का आतंक ऐसा कि मरणोपरांत उनकी देह पर गोलियां बरसाई जाती रहीं।

वामपंथियों ने आज़ाद को पिस्तौल गोली वाला बनाकर सिमटा दिया। लेकिन वे कुशाग्र बुद्धि, बेजोड़ रणनीतिकार, कुशल सैन्य संचालक, महान देशभक्त, अदम्य साहसी और अपराजेय योद्धा थे। उनका एक मन बहुत कठोर था और एक मन करुणा से भरा हुआ। अपने गांव से भागने के बाद वे केवल एक बार मां पिता से मिलने गए थे। सदाशिव मलकापुरकर को साथ लेकर वे भाभरा गांव गए थे और एक सप्ताह रहे थे।

क्रांतिकारियों से बातचीत में एकबार उन्होंने विश्वनाथ वैशम्पायन से कहा था बच्चन कि मेरे घर अवश्य जाना! उन्हें संभवतः इसका पूर्वाभास था कि उनकी मृत्यु से उनके माता-पिता को घोर कष्ट होगा। जगरानी देवी ने तो घर से अपने चंदू के जाने बाद ही हाथ की दो उंगलियां बांध ली थीं। केवल इसी आशा में कि जब चंदू घर लौटेगा तब खोलेंगी अपनी उंगलियां। चंदू नहीं लौटा। वह वृद्धा कुहर कुहर के जंगल से लकड़ियां बीनकर, कंडे पाथकर मर गई। आज़ादी के बाद सदाशिव मलकापुरकर और विश्वनाथ वैशम्पायन ने ही उन्हें देखा जो चंदू के बलिदान के बाद शोकार्त हो कर सिर पीटते पीटते अपनी एक आंख की दृष्टि ही खो बैठी थी।

आज़ाद भारतीय नायकत्व के प्रतिनिधि पुरुष हैं। उनमें वैसी ही वीरता, बलिदान का भाव है जैसा हमारे इतिहास के कुछ गिने-चुने नायकों में रहा। आज़ाद का स्मरण आत्मा को आनन्द और दुख दोनों देता है। वह हमारी चेतना में ऐसा गहरा धंसा हुआ कांटा है जिसे भारतीय समाज कभी निकाल नहीं सकता...

जब जब इस संसार में देशभक्ति, त्याग, अक्खड़ पुरुषार्थ, नायकत्व की बात होगी। आज़ाद का नाम सम्मान से लिया जाएगा। वह अत्यंत छोटा सा जीवन जी कर भी भारतीय इतिहास के महानायकों में अग्रणी बने रहेंगे।

कौम के वास्ते ये जान जो मिट जाएगी
नाम चमकेगा मेरे बाद सितारा होकर
मर के भी दर्द न मिटेगा भारत का दिल से
खून तड़पेगा मेरा जोश से पारा होकर...