Sushil Chaudhary's Album: Wall Photos

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किसी धर्म सभा में एक बार एक कुटिल और दुष्ट व्यक्ति, मूर्ति पूजा का उपहास कर रहा था।

कह रहा था “मूर्ख लोग मूर्ति पूजा करते हैं। एक पत्थर को पूजते हैं. पत्थर तो निर्जीव है. जैसे कोई भी पत्थर. हम तो पत्थरों पर पैर रख कर चलते हैं. सिर्फ मुखड़ा बना कर पता नही क्या हो जाता है उस निर्जीव पत्थर पर, जो पूजा करते हैं?”

पूरी सभा उसकी हाँ में हाँ मिला रही थी.

स्वामी विवेकानन्द भी उस सभा में थे. कुछ टिप्पड़ी नहीं की. बस सभा ख़त्म होने के समय इतना कहा कि अगर आप के पास आप के पिताजी की फोटो हो तो कल सभा में लाइयेगा।

दूसरे दिन वह व्यक्ति अपने पिता की फ्रेम की हुयी बड़ी तस्वीर ले आया. उचित समय पाकर, स्वामी जी ने उससे तस्वीर ली, ज़मीन पर रखा और उस व्यक्ति से कहा, "इस तस्वीर पर थूकिये”. आदमी भौचक्का रह गया. गुस्साने लगा. बोला, ये मेरे पिता की तस्वीर है, इस पर कैसे थूक सकता हूँ.”

स्वामी जी ने कहा, "तो पैर से छूइए”. वह व्यक्ति आगबबूला हो गया. "कैसे आप यह कहने की धृष्टता कर सकते हैं कि मैं अपने पिता की तस्वीर का अपमान करूं?”

“लेकिन यह तो निर्जीव कागज़ का टुकड़ा है”. स्वामी जी ने कहा.तमाम कागज़ के तुकडे हम पैरों तले रौंदते हैं.

लेकिन यह तो मेरे पिता जी तस्वीर है. कागज़ का टुकड़ा नहीं. इन्हें मैं पिता ही देखता हूँ.” उस व्यक्ति ने जोर देते हुए कहा. "इनका अपमान मै बर्दाश्त नहीं कर सकता"

हंसते हुए स्वामीजी बोले, "हम हिन्दू भी मूर्तियों में अपने भगवान् देखते हैं, इसीलिए पूजते हैं."

पूरी सभा मंत्रमुग्ध होकर स्वामीजी कि तरफ ताकने लगी.

समझाने का इससे सरल और अच्छा तरीका क्या हो सकता है?

मूर्ति पूजा, द्वैतवाद के सिद्धांत पर आधारित है. ब्रह्म की उपासना सरल नहीं होती. क्योंकि उसे देख नहीं सकते. ऋषि मुनि ध्यान करते थे. उन्हें मूर्तियों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. आँखे बंद करके समाधि में बैठते थे. वह दूसरा ही समय था. अब उस तरह के व्यक्ति नहीं रहे जो निराकार ब्रह्म की उपासना कर सकें, ध्यान लगा सकें. इसलिए साकार आकृति सामने रख कर ध्यान केन्द्रित करते हैं. भावों में ब्रह्म को अनेक देवी देवताओं के रूप में देखते हैं. भक्ति में तल्लीन होते हैं. तो क्या अच्छा नहीं करते?

माता-पिता की अनुपस्थिति में हम जब उन्हें प्रणाम करते हैं तो उनके चेहरे को ध्यान में ही तो लाकर प्रणाम करते हैं.चेहरा साकार होता है और हमारी भावनाओं को देवताओं-देवियों के भक्ति में ओत-प्रोत कर देता है. मूर्ति पूजा इसीलिए करते हैं कि हमारी भावनाएं पवित्र रहें.

“जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी”