एक बार कई ऋषि-मुनियों ने मिलकर मंदराचल पर्वत पर एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। त्रिदेवों में किसे उस यज्ञ का इष्ट देव बनाया जाये इस बात पर विवाद होने लगा। इस विषय पर कोई सहमति नहीं होने पर भृगु ऋषि को देवों की परीक्षा लेकर यज्ञ का इष्ट देव चुनने के लिए नियुक्त किया गया।
त्रिदेवों की परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु सबसे पहले भगवान शंकर के कैलाश पहुॅचे। उस समय भगवान शंकर अपनी पत्नी सती के साथ विहार कर रहे थे। नन्दी आदि रूद्रगणों ने महर्षि को प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया। कुपित महर्षि भृगु ने भगवान शंकर को तमोगुणी घोषित करते हुए लिंग रूप में पूजित होने का शाप दिया।
यहाँ से महर्षि भृगु ब्रह्मलोक पहुँचे। ब्रह्माजी अपने दरबार में विराज रहे थे। सभी देवगण उनके समक्ष बैठे हुए थे। भृगु जी को ब्रह्माजी ने बैठने तक को नहीं कहे। तब महर्षि भृगु ने ब्रह्माजी को रजोगुणी घोषित करते हुए अपूज्य होने का शाप दिया। कैलाश और ब्रह्मलोक में मिले अपमान-तिरस्कार से क्षुभित महर्षि विष्णुलोक चल दिये।
भगवान श्रीहरि विष्णु क्षीर सागर में शेषनाग पर अपनी पत्नी लक्ष्मी के साथ विश्राम कर रहे थे। उस समय श्री विष्णु जी शयन कर रहे थे। महर्षि भृगुजी को लगा कि हमें आता देख विष्णु सोने का नाटक कर रहे हैं। उन्होंने अपने क्रोध में भरकर विष्णु जी की छाती में लात मार दी। श्रीविष्णु जी ने क्रोधित होने के बजाये महर्षि का पैर पकड़ लिया और कहा भगवन् ! मेरे कठोर वक्ष से आपके कोमल चरण में चोट तो नहीं लगी। महर्षि भृगु लज्जित भी हुए और प्रसन्न भी, उन्होंने श्रीहरि विष्णु को सतोगुणी घोषित कर दिया और ऋषियों के यज्ञ के इष्ट देव के रूप में चुना।
त्रिदेवों की इस परीक्षा में जहाँ एक बहुत बड़ी सीख छिपी है। इस घटना से एक लोकोक्ति बनी।
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का हरि को घट्यो गए, ज्यों भृगु मारी लात।।