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घनी आबादी वाले गरीब दक्षिण एशिया में कोविड 19 से क्यों सबसे कम हैं मौतें?

अमेरिका और यूरोप की तुलना में दक्षिण एशियाई देश बेहद गरीब हैं और यहां दुनिया की 20 फीसदी से ज़्यादा आबाद रहती है । इसके बावजूद कोरोना वायरस संक्रमण के कन्फर्म मामले और मौतों के आंकड़े कह रहे हैं कि दुनिया के इस हिस्से में महामारी का कहर आश्चर्यजनक रूप से कम है । क्यों और कैसे ?
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26 अप्रैल तक दक्षिण एशिया के आंकड़े
वर्ल्डो मीटर्स के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक स्थिति
पाकिस्तान : 12,723 मामले, 269 मौतें
बांग्लादेश : 5,416 मामले, 145 मौतें
श्रीलंका : 467 मामले, 7 मौतें
नेपाल : 51 मामले
मालदीव : 177 मामले
अफगानिस्तान : 1,463 मामले, 47 मौतें
भारत : 26,496 मामले, 825 मौतें
दुनिया भर में : कुल 2,933,384 मामले और 203,612 मौतें

इसका मतलब यह है कि दुनिया की 20 फीसदी से ज़्यादा आबादी वाले दक्षिण एशिया में कोरोना वायरस संक्रमण के मामले दुनिया के कुल मामलों का 1.3% हिस्सा हैं और दुनिया की कुल मौतों का 0.6% हिस्सा यहां है । ये आंकड़े क्या कह रहे हैं ? ऐसा क्यों है? सिलसिलेवार कारण जानते हैं
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आबादी की उम्र प्रथम कारण
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लोली इंस्टिट्यूट की एक रिपोर्ट के आधार पर कहा गया है कि दक्षिण एशिया के कुछ देश बाकी दुनिया की तुलना में सबसे ज़्यादा जवान हैं । भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में 60 साल से ज़्यादा उम्र की आबादी 5 से 8 फीसदी है और 70 से ज़्यादा उम्र की आबादी 2 से 3 फीसदी । जबकि इटली में 60 से ज़्यादा उम्र वालों की आबादी 16 फीसदी और 70 से ज़्यादा उम्र वालों की आबादी 10 फीसदी है । और यह ज़ाहिर हो चुका है कि कोविड 19 से होने वाली 85 से 90 फीसदी मौतों में मृतकों की उम्र 60 से ज़्यादा रही है ।
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टीकाकरण अभियान हैं दुसरी वजह
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इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन देशों में टीबी और मलेरिया के केस ज़्यादा हैं, वहां कोरोना वायरस का कहर कम होगा । इस बात को सिर्फ एक रिपोर्ट नहीं, बल्कि कई विशेषज्ञों ने माना है । अमेरिका के बायोटेक्नोलॉजी सूचना केंद्र के एक अध्ययन में माना गया कि जिन देशों में बीसीजी टीकाकरण अभियान अब भी चल रहे हैं, वहां कोरोना पर काबू बेहतर ढंग से पाया जा सकेगा, उन देशों की तुलना में जहां ऐसा टीकाकरण हुआ ही नहीं या काफी समय पहले बंद हो चुका, जैसे इटली में यह टीकाकरण कभी हुआ ही नहीं ।
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और तापमान भी है एक कारण?
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अध्ययनों के मुताबिक दक्षिण एशियाई देशों का क्लाइमेट भी एक वजह है कि यहां कोरोना वायरस पनपने के मौके कम हैं । धूप, गर्मी और आर्द्रता की स्थितियां इस वायरस के अनुकूल कम देखी गई हैं । अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की मौजूदगी में अमेरिका के होमलैंड सिक्योरिटी फॉर साइन्स एंड टेक के अंडर सेक्रेट्री ने दो दिन पहले न्यूज़ कॉन्फ्रेंस में कहा था कि सीधी धूप में यह वायरस सबसे तेज़ी से मरता है । साथ ही, इज़ॉप्रॉपिल अल्कोहल इस वायरस को 30 सेकंड में खत्म कर सकता है ।
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कम टेस्टिंग भी एक कारण
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द वीक की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि अमेरिका, स्पेन और इटली में ज़्यादा मामले नज़र आए क्योंकि इन देशों में प्रति दस लाख आबादी पर क्रमश: 15 हज़ार, 19 हज़ार और 28 हज़ार टेस्ट किए गए । इसके उलट भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में क्रमश: 420, 654, 262 और 191 ही टेस्ट हुए ।
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उपर जो लिखा है वो समचार की कोपी है । आखरी कारण बताया है उसका कोइ अर्थ नही है। इससे तो ये साबित होता है कि अधिक टेस्ट करें तो अधिक लोग मरते हैं और थोडे टेस्ट करें तो थोडे ही लोग मरते हैं । अमीर देशों में टेस्टिन्ग और बाद में अस्पताल के सिलसिले में क्या डॉक्टर जानबूजकर दरदी को मारते हैं?
नही ।
गरीब देशों में कम टेस्टिन्ग के कारण क्या दरदी अपने घरों में बिमार होकर मरते हैं? अगर हां तो ऐसे मरनेवालों का आंकडा दर्ज नही होता है, और मरनेवालों का असली आंकडा बहुत बडा हो सकता है । लेकिन भारत में तो कोइ दरदी घरमें नही मरता है । ऐसा कौन परिवार होगा कि अपने परिजन को घरमे मरने देगा । और ऐसा कौन पडोसी सह लेगा कि उसके पडोस में कोरोना का दरदी है, तंत्र को फोन नही कर देगा !
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टिकाकरण की बात कही है वो एकदम उलट लगती है । अमरिका जैसे धनवान देशों में स्कूल पास करते करते विविध रोग के नाम १०-१५ जात के टिके लगाए जाते हैं । टिकाकरण का अतिरेक ही आदमी की कुदरती रोगप्रतिकारक शक्ति नष्ट कर देती है । सिधी बात है अमीर देश की जनता कुदरती इम्युनिटी खो चुकी है और गरीब देशों की जनता में इम्युनिटी सलामत है ।
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और एक बात ।
छुईमुई (लजामणी) नामका एक पौधा आता है । उसे छुएं तो वो मुरजाने लगता है । धनवान देशों की आबादी स्वच्छता और हाईजीन के अतिरेक से छुईमुई सोसाईटी बन गयी है, जरा सी अनचाही छेडछाड सह नही सकती । जब की गरीब देशों की जनता रफ एन्ड टफ है, उनका शरीर ढीढ होता है, छोटी मोटी बिमारी का तो पता ही नही चलता । भारत के गांव कोरोना से सलामत है, शहरों में कोरोना का आतंक है, क्योंकि शहरों में पच्चिम की लाईफस्टाईल के कारण छुईमुई सोसाईटियां बन चुकी है, शहरी आदमी भले गरीब हो लेकिन वो पच्चिम की लाईफ स्टाईल में जीना चाहता हैं ।