चाईना का वैश्विक बाजार पर कब्जे की कहानी पाँच दशकों की है जिसे जमीन पर गिरने में मात्र दो वर्ष लगेंगे और चीन इस समय को पाँच सालों तक खींचने का अथाह प्रयास करेगा ।
अब समझिए 1970 से 1980 का दौर यह वो काल खंड़ है जब चाईना की कुल आबादी का 80% से ज्यादा गरीबी रेखा के नीचे था । एक वक्त की रोटी के लिए आधी आबादी संघर्ष करती थी । चाईना ने 1980 से 1990 के दौर में विदेशी कंपनियों को आमंत्रण दिया सिर्फ और सिर्फ सस्ते मजदूरों का हवाला देकर । और साथ में आश्वासन दिया की चाईना की सरकार यथा सम्भव निर्यात व्यवस्था पर केंद्रित होगी जिससे कम्पनीयों को एक साथ विश्व का बाजार एक ही जगह उपलब्ध होगा ।
#वन_विनड़ो_फाॅर_आॅल
इसका परिणाम 1990 से 2000 तक देखने को मिला । विश्व को यह अहसास भी नहीं हुआ की 2000 का अंत आते आते तक दो लाख अस्सी हजार से ज्यादा विदेशी कंपनियों के युनिट चाईना में लग चुके थे इसका एक राज पेटेंट एकट में छिपा था । 1995 से पहले तक चाईना सस्ते मजदूरों का देश था पर 95 के बाद चाईना मशीनी मजदूरों का देश बन चुका था ।
ऑटोमेशन हर काम के लिए यथा सम्भव मशीनों का ऑटोमेशन हुआ । इस सबके पीछे चाईना का एक विजन था । 1990 तक तो चाईना अपनी आबादी को मजदूर बना रहा था फिर उसने थोड़ा परिवर्तन किया ।उसने स्किल्ड़ लेबर बनाने का क्रम जारी किया । अनपढ़ लोग पर निपुण कारीगर । विड़म्बना समझिए की वैश्विक बाजार पर कब्जा जमाने वाले देश में आज भी काम करने वाले 95% मजदूर बोलना और लिखना तो दूर अंग्रेजी तक नहीं समझते और यही अब तक की चाईना के वर्चस्व कायम रहने का राज है ।
1994-95 के दौर में चाईना ने पूरे विश्व के साथ पेटेंट पेटेंट का खेल खेला । ड़ंकल अंकल वाला ड़ंकल प्रस्ताव तो आपमें से कुछ को याद ही होगा । भारतीय समाचार पत्रोंके इतिहास में इंदिरा की एमरजेन्सी के बाद एक बार फिर समाचार पत्र काले छपे थे । मतलब अखबार के कागज का रंग काला करा गया था । आज की भाषा में बोलें तो रबीश बाबू को सक्रीन काली करने की प्रेरणा यहीं से मिली थी ।
#पेटेंट के खेल को इस तरह से समझे कि विश्व की नामी गिरामी कम्पनीयाँ अपने ही देश में चल रही युनिटों को ऑटोमेशन से अपग्रेड़ करने की बजाए अपने युनिटों की उत्पादन क्षमता को घटाती चली गई और चीन वाले युनिटों में इनवेस्ट करती चली गई । चीन ने अपनी एक और वामपंथी चाल चली । एक बड़े कारखाने के लिए छोटे छोटे वेन्ड़र कारखाने भी होते हैं जो सभी चीनी आधिपत्य में पनपे । राॅ मैटिरियल वाले युनिट आधे से ज्यादा चीनी आधिपत्य में पनपे और इसका नतीजा यह हुआ कि कच्चे माल का उत्पादन चीनी कंट्रोल में हो गया ।
देखते देखते विश्व के कच्चा माल उत्पादन करने वाले यूनिट तबाह होने लगे और सारा नियंत्रण चीन का हो गया । 2010 तक चीन में तीन लाख से ज्यादा बड़े पैमाने वाली कम्पनियों के युनिट थे और इनके वेनड़र यूनिटों की संख्या दस गुना से भी ज्यादा हो गई । चीन में तब बेरोजगारी दर निम्नतम स्तर पर आ गई और विश्व में सिर्फ हैन्ड़लिंग और विक्रय का काम सबके हिस्से में बचा मतलब सूखा मुनाफा खाने का काम बचा तैयार माल खरीदो और उपभोक्ता को विपणन चेन बना कर बेचो मैनुफेक्चरिंग की चिकचिक का कोई झःझट नहीं । मजदूरी वाला सारा हिस्सा चीन के कब्जे में आ चुका था । ऑटोमेशन के अपग्रेड़ेशन का एक और उन्नत दौर आया जो चीनीयों के हिस्से में आया वो भी पेटेंट के साथ ।
#विश्व की बड़ी कम्पनीयाँ तब लाचार हुई और उनको चीन के साथ हिस्सेदारी शेयर करनी पड़ी । अभी हाल ही में कोरोना काल की आड़ में शेयर मार्केट को ध्वस्त कर चीन ने तमाम बड़ी कम्पनीयों की हिस्सेदारी में अपना वर्चस्व बड़ा दिया है । कुल मिलाकर बड़ी कम्पनीयाँ चीन तो छोड़ देंगी पर राॅ मैटिरियल के लिए आत्मनिर्भर होने में बहुत समय भी लग जाएगा । हाँ इतना जरूर होगा कि चीन का वैश्विक बाजार पर से वर्चस्व एक झटके में ना सही पर धीरे धीरे हलाल होकर खत्म जरूर होगा । इस पूरे संघर्ष भरे दौर में हमें एक चीज और सीखनी पड़ेगी की पुराना पेटेंट तोड़ने की बजाए काम को किस तरह से किया जाए की नया पेटेंट हमारे नाम आए ।
दो पेटेंट एक्ट तोड़ने के बाद यह तो मैंने भी सीख लिया की सामने वाले का तोड़ भी निकालना है तो खुद को बचाना कैसे है । आर एण्ड ड़ी का थोड़ा खर्च बड़ेगा पर उसे वन टाईम पेड़ राॅयलटी समझिए और आगे बड़ जाइए । बार बार पीछे मुड़कर नहीं देखा जाता । हाँ जिसने प्रेरणा लेनी होती है उसके साथ अनुभव शेयर जरूर करने चाहिए ताकि कोई अपना सहोदर विषम परिस्थितियों में खुदको अकेला महसूस ना करे । उसे भी लगना चाहिए कि कोई है जो उसके साथ खड़ा है ।
इस पूरे आकलन से यह तो स्पष्ट है कि परमाणु बमों की मार से जापान ने सीखा था और चीन ने जनसंख्या विस्फोट को अपना हथियार बनाया था जो कोरोना काल में जवाबदेही के चलते खत्म होने वाला दिखता है ।
आप क्या सोचते हैं #चीन इस तरह से अपनी बर्बादी का चुपचाप बैठ कर #तमाशा देखेगा ???
उसकी इस बर्बादी से सबसे बड़ा फायदा भारत को होना तय है तो क्या भारत के विपक्षीयों के साथ मिलकर चीन अपने अस्तित्व की लड़ाई नहीं लड़ेगा??? कोरोना के मानदंड के चलते चीन को सिर्फ खुदको बचाना है जिसके लिए उसने बहुत कुछ जोड़ रखा है गवाने के लिए । और भारत ने सिर्फ पाना है देखा जाए तो उसके पास गंवाने के लिए है ही क्या ??? हाँ पिछली पंक्ति में गलत लिख दिया है मैंने और वो भी थोड़ा नहीं बहुत कुछ ।
अब उस गलती को विस्तार देता हूँ । चार दशक पहले चीन के पास मजदूर धन था वो आज भारत के पास भी है । वामपंथी उसी मजदूर धन को तहस नहस करने में लगे हैं चीन की फंड़िंग भी है और फिलड़िंग भी । मोहरे सैट भी चीन ही कर रहा है शतरंज की बिसात पर आज उत्तरप्रदेश और बिहार का मजदूर धन है और यदि मात हुई तो भारत की होगी । वर्तमान के उघ्योगिक क्षेत्र को तबाह करना है तो मजदूरों को छः माह के लिए दूर रखना है बस ।
#नए_उद्यमियों को हतोत्साहित करना है तो स्किलड़ लेबर को निपुणता लेने से दूर रखना है मतलब शैक्षणिक सत्र का अनर्थ करना है जो कोरोना काल के साईड़ इफेक्ट में सब छुप गया है । लाॅक ड़ाऊन पुरी तरह से खुले तब तक कई छोटे बड़े उद्योग कारखाने अंतिम साँस गिनकर दिवालिया हो चुके होंगे । उम्मीद की किरण है सिर्फ एक ही की अपने व्यासाइक उत्पादन क्षमता में ऑटोमेशन करें और उसको भी अपग्रेड़ेशन के साथ । इससे आने वाली विदेशी युनिटों को वैनड़र तैयार मिलेंगे मतलब कामयाबी दोनों की छुपी है इसमें ।
अब निर्णय चिंतन करने का है कि हम अपने मजदूर धन को कैसे बचाएँ और नए युग का स्वागत करने के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार करें । चाइना विश्व की दूसरी बड़ी अर्थ व्यवस्था है और हमें उससे आगे जाना है तो इतिहास एक दिन में नहीं लिखा जाएगा संघर्षों की कहानियाँ जीनी पड़ेंगी तभी हम इतिहास में अपना नाम दर्ज करा पाएँगे ।
याद रखिएगा विरोधी के पास गवाने के लिए बहुत कुछ है उसके बाप का कुछ नहीं जाने वाला पर हमारे पास गंवाने के लिए कुछ भी नहीं है ना धन और ना ही मजदूर धन इसलिए सोच समझकर हमें चलना है । शतरंज की बाजी सजाने वाला भी कोई और है और हमें आपस में लड़ाने की चाहत रखने वाला ही हमारा प्रतिद्वंद्वी है पर समझना हमें चाहिए की शतरंज की बाजी का नियम होता है आपस में लड़ने की इजाजत नहीं होती सिर्फ विपक्षी को मारना होता है ।