ओम प्रकाश पटेल's Album: Wall Photos

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Fack Narrative
1998 में जब सोनिया गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष बनीं तो गाँधी परिवार के टुकड़ों पर पलने वाले ecosystem ने यह भ्रम फैलाया कि भारत में आर्थिक उदारीकरण अर्थात economic liberalisation के कर्ता-धर्ता मनमोहन सिंह थे, नरसिम्हा राव नहीं।

ऐसा एक षड्यंत्र के तहत किया गया। दरअसल, यदि भारत के आर्थिक इतिहास को देखा जाय तो इसे दो भागों में बाँटा जा सकता है - Pre Narsimha Rao और Post Narsimha Rao. गाँधी परिवार को यह बर्दाश्त नहीं था कि कोई और व्यक्तित्व गाँधी परिवार के नेताओं को overshadow कर दे। इसलिए उन्होंने इकोसिस्टम के साथ मिल कर यह propaganda चलाया कि भारत में आर्थिक सुधारों के जनक नरसिम्हा राव नहीं बल्कि मनमोहन सिंह हैं जो कि सत्य से कोसों दूर है।

भारत की आर्थिक नीति या for that matter, कोई भी नीति क्या होगी, यह देश का प्रधानमंत्री तय करता है न कि उस विभाग का मंत्री। जब वाजपेयी के शासन काल मे स्वर्णिम चतुर्भुज मार्गों का निर्माण किया गया तो यह निर्णय या दूरदर्शिता वाजपेयी की थी न कि उस समय के सड़क परिवहन मंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूरी की। जिन्होंने प्रधानमंत्री वाजपेयी की सोच को कार्यान्वित करने का काम किया। यदि खंडूरी की जगह कोई और भी सड़क परिवहन मंत्री होता तो भी स्वर्णिम चतुर्भुज योजना साकार होती क्योंकि योजना प्रधानमंत्री वाजपेयी की थी न कि परिवहन मंत्री की।

ठीक इसी प्रकार भारत की अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश के लिए खोला जाएगा, समाजवादी अर्थनीति का त्याग कर भारत उन्मुक्त अर्थव्यवस्था की तरफ अग्रसर होगा, यह निर्णय प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव का था न कि किसी वित्त मंत्री का।

वैसे भी मनमोहन सिंह, नरसिम्हा राव की पहली पसंद नहीं थे। इस तथ्य का रहस्योद्घाटन मनमोहन सिंह ने स्वयं किया था। नरसिम्हा राव ने पहले RBI के पूर्व गवर्नर आई जी पटेल को वित्त मंत्रालय संभालने का न्योता दिया था। जब आई जी पटेल ने यह पद लेने में अपनी असमर्थता जाहिर की तब जा के नरसिम्हा राव ने मनमोहन सिंह को यह पद ऑफर किया। जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

और फिर जो हुआ सो हुआ।
पर यदि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की सोच को कार्यान्वित करने में सफल नहीं होते तो राव ने उन्हें इस पद से हटा दिया होता। कहने का अर्थ ये कि उदारीकरण भारत में इसलिए लागू नहीं हुआ कि मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे बल्कि उदारीकरण भारत में इसलिये लागू हुआ कि नरसिम्हा राव भारत के प्रधानमंत्री थे।

अगर आर्थिक उदारीकरण लागू करने या कराने का निर्णय मनमोहन सिंह का होता तो यह बहुत पहले हो चुका होता। यहाँ आपको यह याद दिलाना उचित होगा कि मनमोहन सिंह 1971 से 1991 तक लगातार भारत सरकार की अर्थनीति निर्धारण करने वाली टीमों का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे थे।

1971 में इंदिरा गाँधी ने उन्हें वाणिज्य मंत्रालय में सलाहकार के पद पर नियुक्त किया। फिर 1972 में उन्हें अपना चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर बना दिया। जहाँ वह इमरजेंसी के दौरान भी उनका साथ देते रहे। फिर 1982 में इंदिरा गाँधी ने उन्हें रिज़र्व बैंक का गवर्नर बना दिया। जहाँ वह जनवरी 1985 तक रहे। फिर माँ के मरने के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने मनमोहन सिंह को योजना आयोग का डिप्टी चेयरमैन बना दिया। जहाँ वह पूरी प्रतिबद्धता के साथ राजीव का साथ निभाते रहे। और फिर जब 1991 में राजीव गाँधी के समर्थन से चंद्रशेखर की माइनॉरिटी गवर्नमेंट बनी तो प्रधानमंत्री के सलाहकार नियुक्त किये गये।

कहने का मतलब ये कि मनमोहन सिंह 20 वर्षों तक लगातार किसी न किसी रूप में भारत सरकार से ऐसे जुड़े रहे कि यदि उदारीकरण की व्यवस्था में उनका विश्वास दृढ़ होता तो वे इंदिरा गाँधी या राजीव गाँधी को उसके लिये तैयार करा लेते जो कि वो कर नहीं पाये, क्योंकि किसी को किसी बात के लिए convince कराना उनके बूते के बाहर की बात है।

यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि 1971 से लेकर 1977 प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एक radical socialist की तरह देश की आर्थिक नीतियाँ बना रही थीं। तब उनके Chief Economic Advisor मनमोहन सिंह ही थे। इसलिये यदि कोई यह कहता है कि 1991 में जो आर्थिक उदारीकरण देश में लागू हुआ वह मनमोहन सिंह के दिमाग की उपज थी। तो वह आपको मूर्ख बनाने का प्रयास कर रहा है।

सच बात तो ये है कि मनमोहन सिंह एक अहसानफरामोश नेता हैं जो बड़ी बेशर्मी से नरसिम्हा राव के काम का क्रेडिट खुद लेने का प्रयास करते हैं। उन्हें भी पता है कि यदि रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर I G Patel ने नरसिम्हा राव का वित्त मंत्री बनने का ऑफर स्वीकार कर लिया होता तो आज मनमोहन सिंह कहीं दूर किसी कोने में गुमनामी की ज़िंदगी जी रहे होते।

यह पोस्ट कांग्रेस और खास कर नेहरू-गाँधी-वाड्रा परिवार द्वारा चलाये जा रहे fake narrative को ध्वस्त करने का छोटा सा प्रयास है।