इस सृष्टि में केवल दो ही प्रजातियाँ ऐसी हैं जिन्हें जिंदा रहने के लिए लाशों की ज़रूरत होती है...एक गिद्ध और दूसरे वामपंथी...पर इन दोनों प्रजातियों में एक मूलभूत अंतर ये है कि गिद्ध अपना पेट भरने के लिए कम-अज़-कम लाशों के गिरने का इंतज़ार तो करते हैं, जबकि वामपंथी आदमी के जीते-जीते ही उसका मांस नोंचने लगते हैं और तब तक नोंचते रहते हैं जब तक आदमी ख़ुद ही ना मर जाए । इतिहास साक्षी है कि दुनिया में सबसे अधिक लाशें गिराने का कीर्तिमान आज भी वामपंथ के नाम पर सुरक्षित है, जिसे तोड़ पाना ISIS जैसे आतंकवादी संगठन के लिए भी संभव नहीं दिखता । बहरहाल पूरी दुनिया से ख़ारिज ये विचार अब भारत में भी अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है, पर ये वो रक्तबीज हैं जो इतनी आसानी से ये धरती छोड़ने वाले नहीं हैं । क्योंकि ये वामपंथी अपने कायांतरण में हमेशा सिद्धहस्त रहे हैं....देश, काल और परिस्थिति के अनुसार अपना वेश बदल लेने वाली मारीच की ये जारज संतानें आज भी छद्म स्वरुप में युद्धरत हैं । वैसे भी दुनिया में शांतिकाल केवल हम जैसे मूर्खों के लिए होता है....वामपंथ के लिए हर स्थिति युद्धकाल है । अगर दुनिया के किसी भी देश में शांति है तो यक़ीन मानिए कि वामपंथी छद्म रूप में उस शांति को युद्ध में बदलने की कोशिशों में लगे होंगे । जनता में उपजा किसी भी तरह का असंतोष इनके लिए अवसर की तरह होता है, जिसे एक लड़ाई में तब्दील करने के लिए ये रात दिन एक कर देते हैं । चिंगारी को फूंक मारकर आग में बदल देना इनकी ख़ासियत है...हाँ ये अलग बात है कि जहाँ ये ख़ुद सत्ता में होते हैं वहां विरोध की हर आवाज़ का गला घोंटने में इन्हें देर नहीं लगती । ये वो लोग हैं जो पतंग को ये विश्वास दिला देते हैं कि इस धागे में बंधे होने के कारण ही तुम अपनी वास्तविक ऊंचाई तक नहीं पहुँच पा रही हो, इसलिए इस समाज रुपी पितृसत्तात्मकता का धागा तोड़कर अपनी वास्तविक ऊंचाई हासिल करो....पतंग इनके बहकावे में आकर अपना धागा तोड़कर कुछ देर तो ऊंचाई पर उड़ती है पर थोड़े ही देर बाद टूटे पत्ते की तरह धरती की धूल चाटती नज़र आती है । दरअसल वामपंथी; लोगों के भावनात्मक दोहन में माहिर होते हैं....ये हमेशा उन मुद्दों को चुनते हैं जिनसे लोगों की भावना को उद्वेलित करके उन्हें रुलाया जा सकता हो....क्योंकि रोने पर आँखें धुंधली हो जाती हैं और रोने वाले को इन धुंधली आँखों से वास्तविकता नज़र नहीं आती । वामपंथी जानते हैं कि इस भावनात्मक दोहन के लिए कौन से माध्यम सबसे कारगर हैं...इसलिए ये शिक्षा, साहित्य, रंगमंच, सिनेमा और पत्रकारिता जैसे सभी प्रचार माध्यमों में अपनी पकड़ बनाए रखते हैं । अभी बीते कुछ दिनों पहले की ही बात है जब मजदूरों की नंगे पैर घर वापसी की करूण गाथाओं से इस देश का सोशल मीडिया पटा पड़ा था....जिसे देखो वो ज़ार-ज़ार रो रहा है...पैर फटी बिवाईयों की तस्वीरें शेयर की जा रही हैं, कोई पैदल तो कोई अपने पिता को साइकिल पर बैठाकर हजार-पंद्रह सौ किलोमीटर चला जा रहा है । वामपंथी फेसबुक पर मोदी को कोस रहे हैं कि हाय-हाय मार डाला पापी ने गरीबों को....और अगर आप पलट कर सवाल पूछ लें की 7 दिन में 1100 किलोमीटर सायकिल से जाने का गणित कुछ ठीक बैठता नहीं...तो आप भक्त हैं, संघी हैं, भावनाशून्य नराधम हैं । पर मेरा एक अनुरोध है आप सभी से कि आप इन तस्वीरों को अपने मोबाईल के इनबॉक्स में संभालकर रखिएगा क्योंकि कल अगर इस देश में कोई किसान आन्दोलन होगा तो फिर यही तस्वीरें आपको चारों तरफ तैरती दिखाई देंगी । दरअसल वामपंथ भी “इस...लाम” का कज़िन ब्रदर है यहाँ भी तर्क की कोई गुंजाईश नहीं, बस अपना दिमाग घर पर रख दीजिए और इनकी बनाई मनगढंत कहानियों पर आंसू बहाइये । मैं ये नहीं कह रहा कि पलायन हुआ ही नहीं, या मजदूर सड़कों पर थे ही नहीं, या इस महामारी में उन्हें कोई कष्ट हुआ ही नहीं...एक वैश्विक महामारी फैले और किसी को कोई कष्ट न हो ये तो सिर्फ वामपंथियों के साम्यवादी स्वर्ग में ही संभव है, हां बस वो वामपंथी स्वर्ग कहाँ है ? ये पता लगाना ज़रूर असंभव है । ये सत्य है कि देश पर कोई भी आपदा आए तो सबसे ज्यादा कष्ट उसी को होता है जो सबसे निचली पायदान पर खड़ा है । पर क्या ये सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि वो कौन लोग हैं जिन्होंने इन मजदूरों को पैदल ही अपने घरों को लौटने के लिए उकसाया । वो कौन लोग हैं जिन्होंने लाऊड स्पीकर पर UP सरकार की बसों के आनंद विहार पहुँचने की अफवाहें उड़ाई ? मुम्बई में स्टेशन पर ट्रेन चलने की अफवाह उड़ा कर हज़ारों की भीड़ किसने इकट्ठी की ? सवाल तो उन प्रदेश सरकारों से भी पूछा जाना चाहिए था जहाँ से ये मजदूर पलायन करने को मजबूर हुए । जो मजदूर उनके प्रदेशों में काम करते हैं उनके संरक्षण की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की थी तो फिर ये पलायन क्यों हुआ ? दिल्ली में बैठा हुआ देश का मीडिया जो अपनी खोजी पत्रकारिता के तहत “स्वर्ग की सीढ़ी” से लेकर “पाताल की गुफा” तक ढूंढ निकालता है वो दिल्ली में रह कर भी सड़ जी की वो अदृश्य किचिन क्यों नहीं ढूंढ सका जिसमें रोजाना 10 लाख लोगों का भोजन बन रहा है । इन सवालों के उत्तर देने की ज़िम्मेदारी किसकी है ? और प्रदेश सरकारों की अकर्मण्यता के लिए केंद्र सरकार क्यों दोषी ठहराई जा रही है ? अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है जब ये वामपंथी CAA और NRC के विरोध के नाम पर देश भर की चलती-फिरती सड़कों को जाम करके बैठे थे । वही वामपंथी आज देश भर की बंद सड़कों पर लोगों को निकलने के लिए उकसा रहे हैं । कायदे से जो बंद CAA और NRC के नाम पर हुआ, वो तो अभी होना चाहिए था यही मजदूरों की भीड़ जो आज सड़कों पर है यही भीड़ अगर जाकर अपने-अपने मुख्यमंत्रियों के घर के सामने बैठ गई होती तो उद्धव ठाकरे और केजरीवाल जैसे लोग झक मारकर इन मजदूरों को उनके घर छोड़ने की व्यवस्था करते । पर ऐसा नहीं हुआ क्योंकि वामपंथियों के लिए हर युद्ध की रणनीति अलग होती है । चलती सड़कों को बंद करना तब की रणनीति थी, और बंद सड़कों पर मजदूरों की भीड़ उतारना आज की रणनीति है । इसलिए आप सभी से बस यही अनुरोध है कि सतर्क रहें, सुरक्षित रहें क्योंकि कोरोना घर के बाहर है और वामपंथ घर के अन्दर...दोनों ही साधारण आँखों से दिखाई नहीं देते पर जान लेने में दोनों की महारत कमाल की है....