यज्ञ को परमात्मा प्राप्ति का एक मात्र उपाय बता कर श्रीकृष्ण इसी पर बल देते हैं--
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥
( श्रीमद्भागवत गीता अ० ३- १६ )
अनुवाद-
हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है |
व्याख्या-
जो पुरुष इसी लोक में मनुष्य-शरीर प्राप्त कर इस प्रकार चलाऐ हुए साधन-चक्र के अनुसार नहीं बरतता अर्थात दैवी सम्पद् का उतकर्ष, देवताओं की वृद्धि और परस्पर वृद्धि के द्वारा अक्षयधाम को प्राप्त करना- इस क्रम के अनुसार नहीं बरतता, इन्द्रियों का आराम चाहने वाला वह पापायु व्यक्ति व्यर्थ ही जीता है |
बन्धुओं! योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अध्याय दो में कर्म नाम लिया और इस अध्याय में बताया कि नियत कर्म का आचरण कर | यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है | इसके सिवाय जो कुछ किया जाता है, वह इसी लोक का बंधन है | इसीलिए संग-दोष से अलग रहकर उस यज्ञ की पूर्ति के लिए कर्म का आचरण कर | उन्होंने यज्ञ की विशेषताओं पर प्रकाश डाला और बताया कि यज्ञ की उत्पत्ति ब्रह्मा से है | प्रजा अन्न को उद्देश्य बना कर उस यज्ञ में प्रवृत्त होती है | यज्ञ कर्म से और कर्म अपौरुषेय वेद से उत्पन्न होता है, जबकि वेदमंत्रों के द्रष्टा महापुरुष ही थे | उनका पुरुष तिरोहित हो चुका था, प्राप्ति के साथ अविनाशी परमात्मा ही शेष बचा था इसलिए वेद परमात्मा से उत्पन्न हुआ है | सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ में सर्वदा प्रतिष्ठित है | इस साधन चक्र के अनुसार जो नहीं बरतता, वह पापायु व्यक्ति इन्द्रियों का सुख चाहने वाला है, व्यर्थ ही जीता है | अर्थात् यज्ञ ऐसी विधि-विशेष है, जिसमें इन्द्रियों का आराम नहीं है अपितु अक्षय सुख है | इन्द्रियों के संयम के साथ इसमें लगने का विधान है | इन्द्रियों का आराम चाहने वाला पापायु है | अभी तक श्रीकृष्ण ने नहीं बताया कि यज्ञ है क्या? परन्तु क्या यज्ञ करते ही रहेंगे या इसका कभी अन्त भी होगा? अगले सत्र में मित्रों |
हरी ॐ तत्सत् हरि:।
ॐ गुं गुरुवे नम:
राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो माते |