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. ॐ श्री परमात्मने नमः

श्री गणेशाय नम:

राधे कृष्ण

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥
( श्रीमद्भागवत गीता अ० ३ - १७ )

हिन्दी अनुवाद-
परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है |

व्याख्या-
जो मनुष्य आत्मा में ही रत, आत्मतृप्त और आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं रह जाता | यही तो लक्ष्य था | जब अव्यक्त, सनातन अविनाशी आत्मतत्व प्राप्त हो गया तो ढूंढे किसे? ऐसे व्यक्ति के लिए न कर्म की आवश्यकता है, न किसी आराधना की | आत्मा और परमात्मा एक दूसरे के लिए पर्याय हैं |

अर्थात् यज्ञ भी तभी तक करने की आवश्यकता है, जब तक कुछ भी अन्य आवश्यकता है | अभीष्ट की प्राप्ति के पश्चात् अर्थात् आत्मा के परमात्मा से मिलन के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता |

हरी ॐ तत्सत् हरि:।

ॐ गुं गुरुवे नम:

राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो माते |

शुभ हो दिन रात सभी के।