नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥
( श्रीमद्भागवत गीता अ० ३- १८ )
हिन्दी अनुवाद -
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता |
व्याख्या-
ऐसे व्यक्ति का कर्म करने या न करने से कोई अभिप्राय नहीं होता है | उसका सम्पूर्ण प्राणियों से कोई स्वार्थ-सम्बन्ध नहीं रह जाता जो कि पहले था | आत्मा ही तो शाश्वत, सनातन, अव्यक्त अपरिवर्तनशील और अक्षय है | जब उसी को पा लिया, उसी में तृप्त, उसी में ओतप्रोत, उसी से सन्तुष्ट हैहै और उसी में स्थित है, आगे कोई सत्ता ही नहीं तो किसको खोजे? मिलेगा भी क्या? ऐसे व्यक्ति के कर्म करने या छोड़ देने से कोई भी लाभ या हानि भी नहीं हो सकती क्यों कि विकार जिस पर अंकित होते हैं, वह चित्त ही न रहा | उसका सम्पूर्ण भूतों में, वाह्य जगत और आन्तरिक संकल्पों की परत में लेशमात्र भी अर्थ नहीं रहता | सबसे बड़ा अर्थ तो था परमात्मा, जब वही उपलब्ध है तो दूसरों से उसका क्या प्रयोजन होगा?
हरी ॐ तत्सत् हरि:।
ॐ गुं गुरुवे नम:
राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो माते |