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. ॐ श्री परमात्मने नमः

श्री गणेशाय नम:

राधे कृष्ण

शलोक १८ का सबसे बड़ा अर्थ तो था परमात्मा, जब वही उपलब्ध है तो दूसरों से उसका ( साधक का ) क्या प्रयोजन होगा?
आगे वासुदेव अपने मुख से स्वयं कहते हैं-

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः॥

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥
( श्रीमद्भागवत गीता अ० ३- १९,२० )

हिन्दी अनुवाद-
इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है |

जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है |

व्याख्या-
इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए अनासक्त हुआ निरन्तर 'कार्य कर्म' - जो करने योग्य कर्म है, उसे अच्छी प्रकार कर | क्योंकि अनासक्त व्यक्ति कर्म के आचरण से परमात्मा को प्राप्त करता है | 'नियत कर्म' एक ही है जिसकी प्रेरणा देते हुए वे पुनः कहते हैं -

यहाँ जनक का तातपर्य राजा जनक नहीं अपितु जन्मदाता | योग ही जनक है, जो आपके स्वरूप को जन्म देता है, प्रकट करता है | योग से संयुक्त प्रत्येक व्यक्ति या महापुरुष जनक है | ऐसे योगसंयुक्त बहुत से ऋषि 'जनकादयः' - जनक इत्यादि ज्ञानी जन महापुरुष भी 'कर्मणा एव हि संसिद्धिम्' - कर्मो के द्वारा ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं | परमसिद्धि अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति | जनक इत्यादि जितने भी पूर्व में होने वाले महर्षि हुए हैं, इस 'कार्य कर्म' के द्वारा, जो यज्ञ की प्रक्रिया है, 'संसिद्धिम्' - परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं | किन्तु प्राप्ति के पश्चात वे भी लोक संग्रह को देख कर कर्म करते हैं, लोकहित को चाहते हुए कर्म करते हैं | अतः तू भी प्राप्ति के लिए और तत्पश्चात लोकनायक बनने के लिए कार्यं कर्म के ही योग्य है | क्यों? अगले सत्र में मित्रों |

हरी ॐ तत्सत् हरि:।

ॐ गुं गुरुवे नम:

राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो माते |

शुभ हो दिन रात सभी के।