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. ॐ श्री परमात्मने नमः

श्री गणेशाय नम:

राधे कृष्ण

पिछले सत्र की शेष व्याख्या-

मन बड़ा चंचल है | यह सब कुछ चाहता है, केवल भजन नहीं करना चाहता | यदि स्वरूपस्थ महापुरुष कर्म न करें तो देखा-देखी पीछे वाले भी तुरंत कर्म छोड़ देंगे | उन्हें बहाना मिल जायेगा कि ये भजन नहीं करते, पान खाते हैं, इत्र लगाते हैं, सामान्य बातें करते हैं फिरभी महापुरुष कहलाते हैं -- ऐसा सोंचकर वे भी आराधना से हट जाते हैं, पतित हो जाते हैं | श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि मैं कर्म न करूँ तो सब भ्रष्ट हो जयेंगे और मैं वर्णसंकर का कर्ता बनूंगा |

स्त्रियों के दूषित होने से तो वर्णसंकर देखा-सुना जाता है | अर्जुन भी इसी भय से विकल था कि स्त्रियाँ दूषित होंगी तो वर्णसंकर पैदा होगा; किन्तु श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि मैं सावधान हो कर आराधना में लगा न रहूँ तो वर्णसंकर का कर्ता होऊँ। वस्तुतः आत्मा का शुद्ध वर्ण है परमात्मा। अपने शाश्वत स्वरूप के पथ से भटक जाना वर्णसंकर होना है। यदि स्वरूपस्थ महापुरुष क्रिया में बरतते तो लोग उनके अनुकरण से क्रिया रहित हो जायेंगे, आत्मपथ भटक जायेंगे, वर्णसंकर हो जायेंगे | वे प्रकृति में खो जायेंगे |

स्त्रियों का सतीत्व एवं नस्ल की शुद्धता एक सामाजिक व्यवस्था है, अधिकारों का प्रश्न है, समाज के लिये उसकी उपयोगिता भी है; किन्तु माता-पिता की भूलों का संतान की साधना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता | 'आपन करनी पार उतरनी |' हनुमान, व्यास, वशिष्ठ, नारद, शुकदेव, कबीर, ईसा इत्यादि अच्छे महापुरुष हुए, जबकि सामाजिक कुलीनता से इनका सम्पर्क नहीं था | आत्मा अपने पूर्वजन्म के गुणधर्म लेकर आती है | श्रीकृष्ण कहते हैं-- 'मन: षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति |' ( १५/७ )-- मन सहित इन्द्रियों से जो कार्य इस जन्म में होता है, उनके संसकार लेकर जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर नवीन शरीर में प्रवेश कर जाता है | इसमें जन्मदाताओं का क्या लगा ? उनके विकास में कोई अन्तर नहीं आया है | अत: स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर नहीं होता | स्त्रियों के दूषित होने और वर्णसंकर से कोई संबंध नहीं है | शुद्ध स्वरूप की ओर अग्रसर न होकर प्रकृति में बिखर जाना ही वर्णसंकरता है |

यदि महापुरुष सावधान हो कर क्रिया ( नियत कर्म ) में बरतते हुए लोगों से क्रिया न कराये तो वह उस सारी प्रजा का हनन करने वाला, मारने वाला बने | साधना-क्रम में चलकर उस मूल अविनाशी की प्राप्ति ही जीवन है और प्रकृति में बिखरे रहना, भटक जाना ही मृत्यु है | किन्तु वह महापुरुष इस सारी प्रजा को यदि क्रिया-पथ पर नहीं चलाता, इस सारी प्रजा को बिखराव से रोक कर सत्पथ पर नहीं चलाता तो वह सारी प्रजा का हनन करने वाला हत्यारा है, हिंसक है और क्रमशः चलते हुए जो चला लेता है वह शुद्ध अहिंसक है | गीता के अनुसार शरीरों का निधन, नश्वर कलेवरों का निधन मात्र परिवर्तन है, हिन्सा नहीं |

हरी ॐ तत्सत् हरि:।

ॐ गुं गुरुवे नम:

राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो माते |

शुभ हो दिन रात सभी के।