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. ॐ श्री परमात्मने नमः

श्री गणेशाय नम:

राधे कृष्ण

गुण और कर्म की व्याख्या करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं --

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥
( श्रीमद्भागवत गीता अ० ३- २८ )

हिन्दी अनुवाद -
परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम 'गुण विभाग' है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है।) के तत्व (उपर्युक्त 'गुण विभाग' और 'कर्म विभाग' से आत्मा को पृथक अर्थात्‌ निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता।

व्याख्या-
गुण और कर्म के विभाग को 'तत्ववित्' - परमतत्व परमात्मा की जानकारी वाले महापुरुषों ने देखा और सम्पूर्ण गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर वे गुण और कर्मो के कर्तापन में आसक्त नहीं होते |

यहाँ तत्त्व का अर्थ परमतत्त्व परमात्मा है, न कि पाँच या पचीस तत्त्व जैसे कि लोग गणना करते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में तत्त्व एकमात्र परमात्मा है, अन्य कोई तत्त्व है ही नहीं। गुणों को पार करके परमतत्व परमात्मा में स्थित महापुरुष गुण के अनुसार कर्मो का विभाजन देख पाते हैं। तामसी गुण रहेगा तो उसका कार्य होगा -- आलस्य, निद्रा, प्रमाद, कर्म में प्रवृत न होने का स्वभाव। राजसी गुण रहेगें तो आराधना से पीछे न हटने का स्वभाव, शौर्य, स्वामिभाव से कर्म करने का स्वभाव और सात्विक गुण होने पर ध्यान, समाधि, अनुभवी उपलब्धि, धारावाहिक चिन्तन, सरलता स्वभाव में होगी। गुण परिवर्तन शील हैं। प्रत्यक्षदर्शी ज्ञानी ही देख पाता है कि गुणों के अनुरूप कर्मों का उत्कर्ष-अपकर्ष होता है। गुण अपना कार्य करा लेते हैं, अर्थात् गुण गुणों में बरतते हैं -- ऐसा समझ कर वह प्रत्यक्ष द्रष्टा कर्म में आसक्त नहीं होता। किन्तु जिन्होंने गुणों का पार नहीं पाया, वो अभी रास्ते में हैं, उन्हें तो कर्म में आसक्त रहना है।

हरी ॐ तत्सत् हरि:।

ॐ गुं गुरुवे नम:

शुभ हो दिन रात सभी के।