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. ॐ श्री परमात्मने नमः

श्री गणेशाय नम:

राधे कृष्ण


प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌॥
( श्रीमद्भागवत गीता अ० ३- २९ )

हिन्दी अनुवाद -
प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे |

व्याख्या-
प्रकृति के गुणों से मोहित हुए व्यक्ति गुण और कर्मो में क्रमशः निर्मल गुणों की ओर उन्नति देख कर उसमें आसक्त होते हैं | उन अच्छी प्रकार न समझने वाले 'मन्दान्' - शिथिल प्रयत्न वालों को अच्छी प्रकार जानने वाला ज्ञानी चलायमान न करे, उन्हें रोके | उन्हें हतोत्साहित न करे अपितु प्रोत्साहन दे; क्योंकि कर्म करके ही उन्हें परम नैष्कर्म्य की स्थिति को पाना है | अपनी शक्ति और स्थिति का आंकलन करके कर्म में प्रवृत्त होने वाले ज्ञानमार्गी साधकों को चाहिए कि कर्म को गुणों की देन माने, अपने को कर्ता मान कर अहंकारी न बन जायँ, निर्मल गुणों के प्राप्त होने पर भी उनमें आसक्त न हों | किन्तु निष्काम कर्मयोगी को कर्म और गुणों के विश्लेषण में समय देने की कोइ आवश्यकता नहीं है | उसे तो बस समर्पण के साथ कर्म करते जाना है | कौन-कौन सा गुण आ-जा रहा है, यह देखना ईष्ट की जिम्मेदारी हो जाती है | गुणों का परिवर्तन और क्रम-क्रम के उत्थान वह ईष्ट की ही देन मानता है और कर्म होने को भी उन्ही की देन मानता है | अतः कर्तापन का अहंकार या गुणों में आसक्ति होने की समस्या उसके लिए नहीं रहती, जब कि अनवरत लगा रहता है |

हरी ॐ तत्सत् हरि:।

ॐ गुं गुरुवे नम:

राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो |

शुभ हो दिन रात सभी के।