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. ॐ श्री परमात्मने नमः

श्री गणेशाय नम:

राधे कृष्ण

पिछली बात पर और साथ ही युद्ध का स्वरूप बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं --

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥
( श्रीमद्भागवत गीता अ० ३- ३० )

हिन्दी अनुवाद -
मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर |

व्याख्या-
अतः हे अर्जुन! तू 'अध्यात्मचेतसा' - अन्तरात्मा में चित्त का निरोध करके, ध्यानस्थ हो कर, सम्पूर्ण कर्मो को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममता रहित और संतापरहित हो कर युद्ध कर | जब चित्त ध्यान में स्थित है, लेशमात्र भी कहीं आशा नहीं है, कर्म में ममत्व नहीं है, असफलता का संताप नहीं है तो वह व्यक्ति कौन सा युद्ध करेगा? जब सब ओर से चित्त सिमट कर हृदय-देश में निरुद्ध होता जा रहा है तो वह लड़ेगा किस लिये, किससे और वहाँ है कौन? वास्तव में जब आप ध्यान में प्रवेश करेंगे तभी युद्ध का सही स्वरूप खड़ा होता है, तो काम-क्रोध, राग-द्वेष, आशा-तृष्णा इत्यादि विकारों का समूह अर्थात विजातीय प्रवृत्तियाँ जो 'कुरु' कहलाती हैं, संसार में प्रवृत्ति देती ही रहती हैं | बाधा के रूप में भयंकर आक्रमण करती हैं | बस, इनका पार पाना ही युद्ध है | इनको मिटाते हुए अंतरात्मा में सिमटते जाना, ध्यानस्थ होते जाना ही यथार्थ युद्ध है |

हरी ॐ तत्सत् हरि:।

ॐ गुं गुरुवे नम:

राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो |

शुभ हो दिन रात सभी के।