योगेश्वर श्रीकृष्ण अपनी पिछली बात पर ही पुनः बल देते हैं--
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः॥
( श्रीमद्भागवत गीता अ० ३- ३१ )
हिन्दी अनुवाद -
जो कोई व्यक्ति दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं |
व्याख्या-
अर्जुन! जो कोई व्यक्ति दोषदृष्टि से रहित हो कर, श्रद्धा पूर्वक समर्पण से संयुक्त हुए सदा मेरे इस मत के अनुसार बरतते हैं कि 'युद्ध कर', वे भी संपूर्ण कर्मो से मुक्ति प्राप्त करते हैं | योगेश्वर का यह आश्वासन किसी हिन्दू, मुसलमान या इसाई के लिये नहीं अपितु मानवमात्र के लिये है | उनका मत है कि युद्ध कर! इससे प्रतीत होता है कि यह उपदेश युद्ध वालों के लिये है | अर्जुन के समक्ष सौभाग्य से विश्व युद्ध की संरचना थी, आपके सामने तो कोई युद्ध नहीं है, आप गीता के पीछे पड़े क्यों हैं, क्योंकि कर्मो से छूटने का उपाय तो युद्ध करने वालों के लिए है? किन्तु ऐसा कुछ नहीं है | वस्तुतः यह अन्तर्देश की लड़ाई है | क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का, विद्या और अविद्या का, धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र का संघर्ष है | आप ज्यों-ज्यों ध्यान में चित्त का निरोध करेगें तो विजातीय प्रवृत्तियाँ बाधा के रूप में प्रत्यक्ष होती हैं, भयंकर आक्रमण करती हैं | उनका शमन करते हुए चित्त का निरोध करते जाना ही युद्ध है | जो दोषदृष्टि से रहित होकर श्रद्धा के साथ इस युद्ध में लगता है वह कर्मो के बंधन से, आवागमन से भली प्रकार छुटकारा पा लेता है |
हरी ॐ तत्सत् हरि:।
ॐ गुं गुरुवे नम:
राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो |