अदालत के कटघरे मे खड़ी थी बाईस वर्षीय युवती अर्पणा, लेकिन सर झुका कर नही सर उठा कर।
आरोप था उस पर,
एक व्यक्ति के दोनो पैर और बाये हाथ के साथ साथ उसके पुरुषत्व को काटकर अपाहिज के साथ साथ नामर्द बनाने का।
जज साहेब ने मुलजिमा से पूछा.... क्या आप अपने ऊपर लगे ये आरोप कबूल करती है, या आप अपनी सफाई मे कुछ कहना चाहती हैं।
जी योर ऑनर.... मै अपने ऊपर लगे सारे आरोपो को कबूल करती हूं, उसने मेरे साथ बलात्कार किया इसलिए मैने उसको उसके कृत्य की ये सजा दी हैं।....
लेकिन सजा देने का काम तो कानून का है, तुम्हारा नही तुम्हे कानून पर भरोसा रखना चाहिए था अर्पणा?
जी योर ऑनर.... कानून पर मै भी भरोसा करती थी, तभी आपके कानून पर भरोसा कर, सुनसान सड़क पर भी बेफिक्री के साथ घर के लिए अकेली निकल पड़ी थी।
लेकिन उस बलात्कारी को, ना तो आपके कानून का ही डर था। और ना ही आपके कानून पर भरोसा, की वो उसे सजा दे पायेगा।...
गर आपका कानून ये भरोसा पैदा कर पाता, की मुजरिम उससे किसी भी हाल मे बच नही पाता है।.....
अपने जुर्म की वो भयानक सजा हर हाल मे पाता है,... तो शायद फिर वो ऐसा भयानक जुर्म करने की हिम्मत ही ना कर पाता।
और चलो फिर एक बार मान भी लेती हूं, योर ऑनर की कानून उसे सजा भी दे देता।..... तो कितने बरस बाद, और कितनी सात बरस या बीस बरस या फिर मौत....?
मौत देकर तो पल मे आप उसे मुक्त कर देंगे....
लेकिन इसके घिनौने कृत्य से तो, मुझको तो हरपल घुट घुट कर, अपनी और गैरो की चुभती नजरो से नर्क की जिन्दगी जिनी पड़ेगी ना।....
जबकि वो तो एक ही पल मे मुक्त हो जायेगा, गर आपने उसे मौत की सजा दे दी तो....
या फिर कारावास से आपकी दी सजा पूरी कर, एक दिन वो छूट ही जायेगा।....
लेकिन अब मेरी दी इस सजा के बाद,.. अपने कृत्य को रो रोकर वो.... याद कर कर के खुद को कोसेगा.... और घीसट... घीसट कर जिन्दगी जियेगा... नर्क से भी बदतर।
काट तो मै इसके दोनो हाथ ही देती पर मै चाहती थी की, ये नर्क की जिल्लत भरी जिंदगी बहुत लंबी जिये, और इसे देखकर दूसरे लोग भी भयानक सबक ले ऐसे घिनौने कृत्यो से।...
इसलिये उसके एक हाथ को बख्श दी हूं , भीख मांग कर जिंदा रहने के लिए..... और अपने कृत्य को याद कर... कर के सर पिटने और बाल नोचने के लिए....