Shila Bhattcharjee 's Album: Wall Photos

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1528 में मुगल लुटेरा बाबर फतेहपुर सीकरी के निकट चित्तौड़ के राजा संग्राम सिंह से हार कर अयोध्या भाग आया था, इस समय वहां पर एक बहुत बड़े पहुंचे हुए सिद्ध महात्मा बाबा श्यामानंद श्री राम जन्मभूमि मंदिर पर रह रहे थे, उनकी सिद्धियों की धाक पूरे उत्तर भारत में फैली हुई थी, बाबा की सिद्धियों से प्रभावित होकर हजरत कजल अब्बास मूसा आशिकाना कलंदर शाह नाम का एक फकीर आया और बाबा श्यामानंद का साधक शिष्य बन गया, जन्मभूमि के मंदिर पर रह कर ही बाबा से सिद्ध क्रियाएं सीखने लगा,

कजल अब्बास musलिम था इसलिए बाबा भी उसको musलिम ढंग से ही सिद्धियों की शिक्षा देने लगे, कुछ दिनों बाद कजल भी पहुंचा हुआ सिद्ध फकीर हो गया, उसकी सिद्धियों की भी चर्चा कुछ ही दिनों में क्षेत्र भर में हो गई,

कुछ दिन बाद जलालशाह नाम का एक और फकीर आकर बाबा का साधक शिष्य बन गया और कजल की ही तरह योग क्रियाएं सीखने लगा, जलाल शाह कट्टरपंथी था बाबा श्यामानन्द जी के साथ रहते हुए उसको यह पता लग गया कि यह जन्मभूमि का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण और सिद्धस्थल है, यह एक बड़ी सिद्धपीठ भी है, यहां पर एक मंत्र अथवा अनुष्ठान का फल अनंत गुना होता है यह रहस्य जानकर उसके दिमाग में इस मंदिर को खुर्दमक्का और हजारों नवियों का निवास सिद्ध करने की सनक चढ़ गई,

उसके सुनियोजित षडयंत्र से अयोध्या में पुराने जमाने के तरीकों से बड़ी बड़ी कब्रे बनाई जाने लगी, अयोध्या में बनी पुराने महर्षियों की समाधियों को बिगाड़ कर या उनमें तोड़फोड़ कर उन्हें कब्रो में बदल दिया गया, स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा में मरे शांतिदूतों के मुर्दे दूर-दूर से मंगवा कर अयोध्या में दफनाए जाने लगे, देखते ही देखते भगवान श्रीराम की पवित्र नगरी मुर्दों की कब्रो से पट गई,

इसी दौरान पराजित होकर अयोध्या आने वाला बाबर इन दोनों फकीरों से मिला, उसे भारत में सफलता और विजय की इच्छा थी तो इन दोनों फकीरों ने उसे युद्ध में विजय पाने का आशीर्वाद व आश्वासन दे दिया, यह आशीर्वाद लेकर बाबर लौट गया और अपनी 6 लाख की सेना लेकर राणा सांगा पर आक्रमण किया, इस युद्ध में बाबर की विजय हुई, युद्ध जीतने के बाद बाबर फिर अयोध्या आया, तब बाबर पर अपनी सिद्धि की धाक जमा कर जलालशाह और कजल अब्बास ने राम जन्मभूमि को तोड़कर उसके ऊपर ढांचा बनाने का वचन बाबर से ले लिया,

राम मंदिर को ढहाने के लिए तब बाबर ने अपने वजीर मीर बाकी खान ताशकंदी को आज्ञा दी और खुद दिल्ली चला गया, मीर बाकी अपने 4 लाख 50हजार सैनिकों को लेकर अयोध्या की ओर बढ़ने लगा, जैसे ही यह खबर बाबा श्यामानन्द जी को लगी तो वे अपने शिष्यों की करतूत पर पछताते हुए श्रीराम प्रतिमा को सरयू नदी में विसर्जित कर और दिव्य विग्रह को अपने साथ लेकर उत्तराखंड की ओर चले गए, मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के अन्य विग्रह भी हटा दिए तथा मंदिर के द्वार पर खड़े होकर कहा कि हमारे मरने के पश्चात ही कोई विधर्मी मंदिर के भीतर प्रवेश कर सकेगा, तब जलालशाह की आज्ञा से चारों पुजारियों के शीश काट डाले गए और लाशों को कुत्तों को खाने के लिए फिकवा दिया गया,

इसके बाद तोप चलाकर मंदिर को भूमिसात कर दिया गया और ढहाए गए मंदिर की सामग्री से ही विवादित ढांचा बनाने का काम प्रारंभ हुआ,

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अयोध्या में राम मंदिर भले ही भौतिक रूप से1528 में ढहाया गया था पर उसको ढहाने की रूपरेखा तभी बन गई थी जब बाबा श्यामानन्द ने कजल अब्बास और जलालशाह को अपना शिष्य बनाकर अपनी सारी सिद्धियां उन्हें सिखा दी थी, आज 492 साल बाद सेकड़ो उतार चड़ाव के बाद जन्मभूमि पर राममंदिर का पुनर्निर्माण होने जा रहा है, जन्मभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए लगभग 80 बड़े संघर्ष हुए, इन संघर्षों में लाखों रामभक्त बलिदान हो गए, पर इनमें से एक भी शांतिप्रिय समुदाय से नहीं था, पर अब सुना जा रहा है कि राम मंदिर निर्माण के लिए किन्ही मो फेज खान को भगवान राम के ननिहाल से मिट्टी लाकर और उसे मन्दिर की नींव में उसके हाथ से डलवाकर उनके समुदाय को भी राम मंदिर निर्माण का श्रेय देने का प्रयास किया जा रहा है,

क्या आपको नहीं लगता कि हमारी यह उदारता उसी ऐतिहासिक भूल की पुनरावृत्ति तो नही है जो बाबा श्यामानन्द ने कजल अब्बास और जलालशाह को अपना शिष्य बनाकर की थी......??????