जीवन के शिखर पर प्रेम बहता है, जीवन के धरातल में वासना बहती है और जीवन के मध्य में संसार बहता है। प्रेम और वासना में डूबे हुए जीव ऊंचा-नीचा, छोटा-बड़ा, अच्छा-बुरा, रूप-रंग, जांत-पांत, हानि-लाभ, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य कुछ नहीं देखते। ऐसा नहीं कि प्रेम और वासना अंधे होते हैं। ऐसा इसलिए कि प्रेम और वासना इतने शुद्ध और दिव्य है कि वे संसार से परे भावनाओं में बहते हैं। स्त्री और पुरुष इन दोनों में ही इतने मुक्त और मुग्ध होकर प्रवाहित होते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि क्या हो रहा है? प्रेम और वासना में जो भी हो चाहे स्त्री हो या पुरुष, दोनों में से कोई भी ना तो उसे संचालित करते हैं और ना उसे नियंत्रित कर सकते हैं।
प्रेम और वासना के बीच में जो संसार बहता है, हम केवल उसमें रहने वाले स्त्री और पुरुष को जान सकते हैं और देख सकते हैं लेकिन प्रेम और वासना में रहने और बहने वाले स्त्री और पुरुष को ना तो जाना जा सकता है, ना देखा जा सकता है। प्रेमांध और कामांध शब्द संसार के अज्ञान से उत्पन्न हुए हैं। प्रेम और काम दोनों अंधे नहीं दिव्य होते हैं।
प्रेम और वासना ही इस संसार के मूल में है और हम उसी को संचालित करने के लिए ही जन्म लेते हैं। हम इस संसार में प्रेम और वासना में बहने के लिए ही पैदा हुए हैं। धर्म जरूर प्रेम को श्रेष्ठ और वासना को हीन कहता है क्योंकि संसार केवल कृत्रिम प्रेम और कृत्रिम वासना से ही परिचित है लेकिन प्रेम और वासना जब दोनों अपनी श्रेष्ठ दशा और स्थिति में गमन करते हैं तो दोनों में उतरने वाली दिव्यता और उच्चता एक ही स्त्रोत से प्रवाहित होती है।