Brahmcharini Bharti Chaitanya भारती चैतन्य's Album: Wall Photos

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परमात्मा को कौन और कैसे जान सकता है ? उनको कौन , कब और कैसे मिल सकता है?

जब किसीको किसी व्यक्ति से मिलना है, जिस व्यक्ति से उसको मिलना हो वही व्यक्ति उसको मिलनेका सही मार्ग बता सकता है । उस व्यक्तिसे कैसे ? और किस मार्गसे आकर मिला जा सकता है यह उस व्यक्तिसे सुन्दर और कोई नही बता सकता है।जो मार्ग या उपाय वह बताएगा वही मार्ग और उपाय उस व्यक्ति तक पहुँचा सकते हैं।वही साधन उस व्यक्ति तक पहुँचा सकते हैं लेकिन आने वाले व्यक्तिके पास कुछ योग्यता होना चाहिये,योग्यताका सम्पादन उस व्यक्तिमें होना चाहिये।इसी तरह परमात्मा तक जब कोई व्यक्ति पहुँचता है ,परमात्माके स्वरूपको जब कोई व्यक्ति जानता है तो उस व्यक्तिके जीवनमें भी कुछ योग्यताएं होती हैं।

भगवान भाष्यकार जगतगुरु शंकराचार्य जी ने जीवनका परम लक्ष्य मोक्ष को बताया है। मोक्षका वास्तविक अर्थ है (अक्षयंसुखमश्नुते)ऐसा सुख जिसका कभी क्षय न हो ।प्रत्येक व्यक्ति की अभीप्सा यही होती है कि वह जिस वस्तु से प्रेम करता है उस वस्तुका कभी नाश न हो।सभी मनुष्य ऐसा सुख चाहते हैं जिस सुखका कभी नाश न हो।ऐसे सुखकी प्राप्ति ही मोक्ष है।
यह सुख तभी मनुष्यको प्राप्त होता है जब वह मनमे स्थित सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर आत्मासे आत्मा में ही संतुष्ट रहता है,अर्थात जब स्थित प्रज्ञ बन जाता है।

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।५५।।(गीता२)

उस मोक्षतक पहुँचने के लिए शास्त्रोंने जो साधन बताए हैं वह साधन यदि हमारे जीवनमें उपलब्ध हो जाएं तो हमे साध्य की प्राप्ति हो जाएगी।जैसे आँख के प्राप्त होने पर देखने मे कोई कष्ट नही होती।कान के प्राप्त होनेपर सुनने में कोई परेशानी नही होती, इसी तरह ऐसी कौन सी वस्तु है जिसका हमे प्राप्त होने पर हमें आत्मदर्शन होने लग जाये। तो विवेकचूड़ामणिमें आचार्य जी का हुंकार है"
मोक्षकारणसामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी।
स्वस्वरुपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते।।३२।।
मुक्तिकी कारणरूप सामग्रीमें भक्ति ही सबसे बढ़कर है अपने वास्तविक स्वरूपका अनुसन्धान करना ही भक्ति है।।
स्वरूप क्या है? वृक्षकी जड़ें ही उसका स्वरूप है ।पत्ते,फल फूल उसके रूप हैं। रुप बदलते रहते है और स्वरूप कभी बदलता नही है।स्वरूपके साथमें एकता होती है रूपके साथ एकता नही होती। उसी स्वरूपका वास्तविक अनुसंधान करना ही भक्ति है।
भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुनसे कहते है " अर्जुन मेरे वास्तविक स्वरूपको भक्तिके माध्यम से जाना जा सकता है।जैसे जैसे मनुष्यके जीवनमे भक्ति आती है।वैसे वैसे मैं जैसा हूँ , जितना हूँ (सोपाधिक) और तत्वसे (निरूपाधिक) वह मुझे जान लेता है ।उस भक्तिसे मुझको तत्वसे जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।५५।।गीता१८।

जब भक्ति बहुत गहन होती है तब जीव भगवानको जानता है।जब वह भगवानको भक्तिके माध्यम से प्रसन्न कर लेता है।तब परमात्मा की जीवसे मिलने की इच्छा होती है ।जीव परमात्मा से मिलने की इच्छा रखे यह तो समझ आती है परन्तु परमात्मा स्वयं जीवसे मिलने की इच्छा रखें यह बड़ी बात है।
भगवानपि ता रात्री:शरदोत्फुल्लमल्लिका:।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः।।१।(श्रीमद्भागवत/१०/२९)
कभी कभी भगवान भी अपने भक्तोंको याद करते हैं, अपने पास बुला लेते हैं, उनके उपर कृपा करके बुला लेते हैं। जैसे हम कभी किसीको अपने पास बुलाने के लिये अपना साधन भेज देते हैं।या जब कोई हमें बुलाता है तो अपना साधन भेज देता है।ठीक उसी प्रकार भगवान ने भी गोपियों से मिलने के लिये वंशीरूपी योगमाया का प्रयोग किया।अपने भक्तों से मिलने का मन बनाया।
कृष्ण के पास मन नही है,भगवान के पास उनका मन नही है एक भक्त हुए रहीम , उन्होंने तो कृष्णको बिना मनका समझकर अपना मन ही अर्पण करते हुए कहा

रत्नाकरोsस्ति सदनं गृहिणी च पद्मा।
किं देयमस्ति भवते जगदीश्वराय।।
राधागृहीतमनसेsमनसे च तुभ्यं।
दत्तं मया निजमनस्तदिदं गृहाण।।

हे जगदीश्वर! आपकी तरफ जब देखता हूँ तो हीरे जवाहरात से भरिपूर्ण रत्नाकर समुद्र तो आपका घर है, लक्ष्मी जो सम्पूर्ण चल अचल सम्पत्ति की मालिक हैं वे ही आपकी भार्या हैं । बैठकर विचार करता हूँ कि जिसका घर रत्नाकर हो और गृहिणी लक्ष्मी जिसके पास है , भला मैं आपको क्या दे सकता हूँ, ऐसी कौनसी वस्तु है जो मैं तुम्हें दूँ और तुम प्रसन्न हो जाओ। वह उसका भगत है जो जिसके दिलकी बात जान ले,जो जिसके दिलकी बात नही जानता वह उसका भक्त कभी नही बन सकता। तुम्हारे पास मन नही है ।आपका मन तो राधा जी ने चुरा लिया है अतः आप बिना मन वाले हो गए हो ।आप अमन हो गए हो।और मैं इस मनसे परेशान हूँ । हे परमात्मा यह मेरा मन मैं आपको समर्पित करता हूँ कृपा करके आप इसे स्वीकार कीजिये।"
जिस समय आप मनसे मनको सौंपते है और परमात्मा उसको ग्रहण करते हैं उसीका नाम भक्ति है।तन सौपना सरल है मन सौपना बड़ा कठिन है।जिस समय आप मनको परमात्मा में सौंपते हो उस समय आप परमात्माको जानते हो।जिसने मनको परमात्माको सौंप दिया उसने परमात्माको जान लिया।जब मद और मान की निवृत्ति होती है तब ईश्वरकी प्राप्ति होती है।मद और मान जब आता है तब परमात्मा अंतर्ध्यान हो जाते हैं। मद और मान जब नष्ट होता है तब भक्ति प्रबल होकर भगवान के पास आत्मसमर्पण और समस्त कर्मोंका फल एवं विस्मरण से परमव्याकुलता हो वही भक्तिका लक्षण है।
(तद्विस्मरणे परमव्याकुलता १९नारदभक्ति सूत्र)
विस्मरण हुवा व्याकुलता आयी तव गोपियों को ज्ञान होता है कि
"आप केवल यशोदानन्दन ही नही हो आप तो समस्त शरीरधारियोंके हृदयमें रहनेवाले उनके साक्षी हो अंतर्यामी हो । हे सखे ! आप तो ब्रह्माजी की प्रार्थना से विश्वकी रक्षा करने लिये यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हो।

न खलु गोपिकानन्दनो भवा-
नखिल देहिनामन्तरात्मदृक्।।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये।
सख उदेयिवान् सात्वतां कुले।।४।।श्रीमद्भागवत१०/३१।

जैसे ही गोपियों के हृदयमें परमव्याकुलता आयी , तभी परमात्मा का ज्ञान हो गया।भक्ति जब गहरी हो जाती है तब भक्त और भगवानमें भेद नही रहता है।
"परमात्मा से अतिरिक्त मेरी सत्ता नही है"यही समर्पण भाव ही भक्ति की परमदिव्य पराकाष्ठा है।

ईश्वर: सर्वभुतानां........

भारती चैतन्य
ॐ नमो नारायणाय