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मध्यकालीन बिहार के सबसे प्रचलित लिपि.

कैथी लिपि

कैथी लिपि एक ऐतिहासिक लिपि है. मध्यकालीन भारत में उत्तर-पूर्व और उत्तर भारत में काफी प्रयोग किया जाता था. खासकर आज के उत्तर प्रदेश एवं बिहार के क्षेत्रों में इस लिपि में वैधानिक एवं प्रशासनिक कार्य किये जाने के भी प्रमाण पाये जाते हैं.

इस लिपि को "कयथी" या "कायस्थी" के नाम से भी जाना जाता है. मिथिला, बंगाल, उड़ीसा और अवध में इसका प्रयोग खासकर न्यायिक, प्रशासनिक एवं निजी आँकड़ों के लिखने और संग्रहण में किया जाता था.

कैथी लिपि की विशेषता यह थी उसमें ऊपर की ओर लकीरें नहीं होती थी. यह एक तरह से संक्षिप्त लिपि थी. इसे बाएं से दाएं की ओर लिखी जाती थी,आज के समय में कैथी लिपि को मैथली लिपि मान लेते हैं. लेकिन यह बिल्कुल गलत है. मिथिलाक्षर की अपनी एक अलग लिपि है और कैथी एक अलग लिपि है.

कुटिलाक्षय लिपि के बाद कैथी लिपि की शुरुआत हुई. उस समय कैथी लिपि से ही मगही, भोजपुरी, मैथली, अंगिका, बज्जिका एवं खड़ी भाषा लिखी जाती थी.

उत्पत्ति

इस भाषा की उत्पति ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी. कैथी लिपि के इतिहास में सबसे पहले ब्राह्मणी लिपि उसके बाद खरोष्ठी लिपि आती है. उसके बाद कुटिलाक्षय लिपि का आगमन हुआ.

'कैथी' की उत्पत्ति 'कायस्थ' शब्द से हुई है जो कि उत्तर भारत का एक सामाजिक समूह है. इन्हीं के द्वारा मुख्य रूप से व्यापार संबधी ब्यौरा रखने के लिए सबसे पहले इस लिपी का प्रयोग किया गया था.

कायस्थ समुदाय का पुराने रजवाड़ों और ज़मीनदार शासकों से काफी नजदीक का रिश्ता रहा है. ये उनके यहाँ विभिन्न प्रकार के आँकड़ों का प्रबंधन एवं भंडारण करने के लिये नियुक्त किये जाते थे. कायस्थों द्वारा प्रयुक्त इस लिपि को बाद में कैथी के नाम से जाना जाने लगा.

इतिहास

कैथी एक पुरानी लिपि है जिसका प्रयोग कम से कम 16 वी सदी मे धड़ल्ले से होता था. मुगल सल्तनत के दौरान इसका प्रयोग काफी व्यापक था. 1880 के दशक में ब्रिटिश राज के दौरान इसे प्राचीन बिहार के न्यायलयों में आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया था. इसे खगड़िया जिले के न्यायालय में वैधानिक लिपि का दर्ज़ा दिया गया था.

लेकिन विद्वानों की लिपि संस्कृत थी और ये लौकिक संस्कृत और वैदिक संस्कृत नाम से दो भागो में बंटी थी. लेकिन जन लिपि कैथी ही थी. विद्यालयों में यही पढाई जाती थी और आश्रमों में संस्कृत.1890 ईसवी में कैथी लिपि को ख़त्म करने का कुचक्र चलाया गया. जबकि 1880 में एक अंग्रेज ग्रिडसन ने कैथी लिपि का फॉन्ट तैयार करवाया था.

अंग्रेजों की फुट डालो और राज करो कि नीति पर अंग्रेजो ने यह अपवाह फैला दी कि यह सिर्फ कर्ण कायस्थों की लिपि है. 1930-1935 आते-आते यह लिपि खत्म होने के कगार पर आ चुकी थी.

आज़ाद भारत का पहला सेन्सस रिपोर्ट 1952 में आया जिसमें कैथी लिपि का कहीं भी जिक्र नहीं था. यूनेस्को अपने रिपोर्ट में लिख चुकी है , “जब एक लिपि विलुप्त होती है, तो उसके साथ - साथ एक पूरी संस्कृति और इतिहास विलुप्त हो जाती है". कैथी का इस तरह अचानक खत्म हो जाना एक बहुत बड़ी मुसीबत बन के सामने आने वाली थी.

भारत में सबसे अधिक विवादित जमीन बिहार में है. इसका मुख्य कारण है कैथी लिपि. जमीन के सभी पुराने कागज़ात कैथी लिपि में है, जिसे पढ़ने वालों की संख्या न के बराबर है. जमीन से जुड़ा कोई भी विभाग इन कागज़ों को नहीं पढ़ पाता है. न बैंक इन कागज़ों को देख कर लोन दे पाती है. न ही ज़मीन विवाद के मामले में न्यायालय न्याय कर पाता है.

बी.एल. दास बताते हैं बिहार में तंत्र मंत्र की किताबें, लोक गीत यहाँ तक कि सूफी गीत भी कैथी लिपि में लिखी जा चुकी है. भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र को जानना है तो आपको कैथी जानना होगा. कर्ण कायस्थ के पंजी व्यवस्था की मूल प्रति भी कैथी लिपि में दरभंगा महाराज के संग्रालय में सुरक्षित है.

सन 1917 में चंपारण आंदोलन में राजकुमार शुक्ल ने गाँधीजी के साथ कैथी लिपि में पत्राचार किया था. राजकुमार शुक्ल जाति के ब्राह्मण थे. मुस्लिम, हिन्दू और क्रिश्चयन तीनों इस भाषा के जानकार थे. यह पूर्ण रूप से झूठ था कि इस लिपि के जानकार सिर्फ कर्ण-कायस्थ हैं.

अगर आप इस लिपि को जानते होते तो भारतीय इतिहास जो समान्य जन के लिए इस प्रकार विकृति नही हो पता. आज तो अधिकतर लोग अपना वंशावली तक नही पढ़ और जानते. प्रयास ये है की हमारा ये स्थूल हो चूका भाग स्फुरित हो. पुराने संस्कृतियाँ और इतिहास जिसे साज़िश के तहत दबा दिया गया था वो वह पुनर्जीवत हो.

कैथी लिपि को कभी कभी 'बिहार लिपि' भी कहा जाता है. अभी भी बिहार समेत देश के उत्‍तर पूर्वी राज्‍यों में इस लिपि में लिखे हजारों अभिलेख हैं. समस्‍या तब होती है जब इन अभिलेखों से संबंधित कानूनी अडचनें आती हैं. इस लिपि के जानकार अब बहुत कम संख्या में लोग बचे हैं. ऐसे में निकट भविष्‍य में इस लिपि को जानने वाला शायद कोई नही बचेगा, तब इस लिपि में लिखे भू-अभिलेखों का अनुवाद करना कितना कठिन होगा. इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. ऐसे में जरूरत है इस लिपि के संरक्षण की.