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नव तत्त्वों के नाम- जीव, अजीव, पुण्य, पाप,आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष।

नव तत्व में पहला है , जीव

जीव तत्व – जिसमें चेतना शक्ति यानि ज्ञान हो, उसे जीव तत्त्व कहते हैं। जीव सुख-दु:ख को जानता है और सुख-दु:ख को भोगता है। सांसारिक जीव में पर्याप्ति, प्राण, गुणस्थान, योग तथा उपयोग होते हैं। यह आठ कर्मो का कर्ता और पुण्य पाप का भोक्ता है।

जैन दर्शन में जीव शब्द मुख्यतः आत्मा के लिए भी प्रयोग किया जाता है। आचार्य उमास्वामी ने तीर्थंकर महावीर के मन्तव्यों को पहली सदी में सूत्रित करते हुए तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा है: "परस्परोपग्रहो जीवानाम्"। इस सूत्र का अर्थ है, 'जीवों के परस्पर में उपकार है'।

जैन धर्म के अनुसार आत्मा (जीव) एक वास्तविकता के रूप में मौजूद है। आत्मा जिस शरीर में रहती है, आत्मा का उससे अलग अस्तित्व होता है। चेतना और उपयोग (ज्ञान और धारणा) जीव के लक्षण होते है। हालाँकि, जीव जन्म और मृत्यु दोनों का बोध करता है, पर असलियत में इसका निर्माण और विनाश नहीं होता है। मृत्यु और जन्म केवल जीव के एक अवस्था के खत्म होने और अगली दशा के शुरू होने को दर्शाती है।
जीव भूतकाल में जीव था, वर्तमान में जीव है और भविष्यतकाल में जीव रहेगा। जीव कभी अजीव नहीं होता।

जैन दर्शन के अनुसार इस लोक में अनंत जीव है। जीवों को दो श्रेणी में रखा गया है-
मुक्त
संसारी
कर्म बन्ध के कारण संसारी जीव का जन्म मरण होता है, परंतु मुक्त जीव कर्म बंध से मुक्त होने के कारण, जन्म मरण के चक्र से मुक्त है।

जैन आत्मा को छह शाश्वत द्रव्यों में से एक मानते हैं जिससे इस सृष्टि की रचना हुई है। आत्मा द्रव्य की दो मुख्य पर्याय है — स्वाभाव (शुद्ध आत्मा) और विभाव (अशुद्ध आत्मा)। जन्म मरण (संसार) के चक्र में पड़ी आत्मा अशुद्ध (संसरी) और इससे मुक्त होने पर शुद्ध आत्मा कहलाती है।

जैन दर्शन के अनुसार संसार (स्थानांतरगमन) में फँसी जीव आत्मा चार गतियों में जन्म मरण करती रहती है। यह है— देव, मनुष्य, नरक और तिर्यंच