अशुभ परिणामों के फल में सेठजी का जीव एक समय में मेंढक बन गया पश्चात पूर्व के धार्मिक संस्कारों और शुभ परिणामों के फल में मेंढक की पर्याय छोड़कर स्वर्ग का देव बन गया और तीर्थंकर महावीर प्रभु के समवशरण में पहुँचकर उनकी अर्चना करने लगा ।
अहो ! देखो परिणामों की विचित्रता । मेंढक बने सेठजी के धार्मिक संस्कार तो थे ही और उन संस्कारों के फलस्वरूप ही उन्हें ऐसा शुभ विचार आया कि मैं भी श्री महावीर प्रभु के समवशरण में पहुँचकर उनके दर्शन पूजा करूँ । उसे अपनी मेंढक पर्याय का भी भान न रहा कि मैं रहा इतना छोटा सा मेंढक, मैं कैसे, कब तक वहाँ पहुँच पाऊँगा ?
सचमुच भक्ति ऐसी ही होती है, जिसमें मात्र भक्ति / समर्पण होता है, छोटा-बड़ा, दीन-हीन, पर्याय गत कमजोरी आदि कुछ नहीं होता और ऐसी भक्ति का फल भी अपूर्व होता है ।
वीतरागी वीर प्रभु के दर्शन, भक्ति के शुभ परिणाम के साथ वह मेंढक एक पंखुडी मुँह में दबाये हुए, टुक-टुक करता हुआ चल दिया, जहाँ हजारों नर-नारी, राजा-महाराजा, गरीब-अमीर सब साक्षात भगवन्त की एक झलक पाकर निहाल होने के लिए जा रहे थे ।
अरे ! यह क्या हुआ ? बीच रास्ते में ही राजा श्रेणिक के हाथी के नीचे आकर उस मेंढक की आयु पूर्ण हो गई । मेंढक की देह वहीं सड़क पर पड़ी हुई थी पर आश्चर्य !! महा आश्चर्य !! कि मेंढक का जीव एक समय में स्वर्ग का देव बनकर राजा श्रेणिक से भी पहले श्री महावीर प्रभु के समवशरण में पहुँच गया और उनकी अर्चना भक्ति सच्चे ह्रदय से करने लगा ।
उस देव के सिर पर मेंढक का निशान होने पर जब उसने पूछा तो पूरा वृतांत भगवान की वाणी आ गया ।
अपने पूर्व जन्म की पाप-पुण्य की वैराग्यमय कथा सुनकर उस देव को वैराग्य आ गया और पुण्य-पाप से पार (भिन्न), कर्मादिक से न्यारा तथा मोह-राग-द्वेषादि विभावों भावों से भी भिन्न, परम पारिणामिक, एक शुद्ध चैतन्य तत्त्व की महिमा पूर्वक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप मोक्षमार्ग पर गमन करने का पुरुषार्थ करने लगा ।
पुस्तक का नाम - ज्ञान का चमत्कार ।
लेखक - वाणीभूषण पं ज्ञानचन्द जी जैन, विदिशा ।