तत्कालीन जनपद हापुड़ के ग्राम छपकौली के रहने वाले धनत्तर सिंह आर्य विशुद्ध आर्य_समाजी, गौरक्षक और बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति वाले मनुष्य थे। जो नारी शिक्षा को अत्यधिक बढ़ावा देने के पक्षधर थे। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण_सिंह साहब से नजदीकी संबंध थे। चौधरी साहब को आर्य समाज के जलसों और पहलवानों की कुश्तियों से बड़ा प्रेम था जहां कहीं की खबर होती वह जरूर पहुंचते सर्दी, गर्मी, बरसात भी उनका रास्ता ना रोक पाती थी। 27 अक्टूबर 1988 को हापुड़ के सिकंदर गेट पर कुश्तियां हो रही थीं जो कि मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र है। उस समय सुलेमान पहलवान के नाम का बोलबाला था जो कि एक कसाई था और इस दंगल में भाग लेने पहुंचा हुआ था। संयोग से चौधरी धनत्तर सिंह भी कुश्ती देखने के लिए हापुड़ पहुंचे हुए थे, हालांकि मुस्लिम क्षेत्र होने के कारण सनातनी दर्शक और पहलवान यहां कुश्तियां लड़ने और देखने कम ही जाते थे किंतु चौधरी साहब का गांव नजदीक होने के कारण वे अपने अन्य साथियों के साथ सुबह से ही दंगल में पहुंच चुके थे, रुतबा इतना के आस-पास के गांव चौधरी साहब को बखूबी जानते-समझते थे।
कुश्तियां शुरू हुईं और सुलेमान कसाई जिसकी लंबाई सवा 6 फुट और बजन 100 किलो से ऊपर था लंगोट घुमाता हुआ अखाड़े के पास पहुंचा। और यह कहते हुए ललकारने लगा कि गऊ का मांस खाता हूं कोई भी हिंदू मेरा मुकाबला नहीं कर सकता अगर किसी को संदेह है तो वह आकर कुश्ती लड़ने के लिए अखाड़े के पास पहुंचे।
एक विधर्मी के ऐसे शब्द सुनकर चौधरी धनत्तर सिंह का खून खोल उठा और उनकी भुजाएं सुलेमान का घमंड तोड़ने के लिए फड़कने लगीं।
चौधरी साहब कुर्ता धोती और खंडवा पहरा करते थे कुर्ता और खंडवा उतार कर अपने साथियों को दिया और धोती को खींचकर बांधा फिर अखाड़े की तरफ दौड़ लगा दी। और लंगोट घुमा रहे सुलेमान का जाकर हाथ पकड़ लिया।
चौधरी साहब औसत कद-काठी के मल्ल थे जो सुलेमान के सामने कमजोर और छोटे नजर आ रहे थे।
दंगल देखने पहुंचे विधर्मी हंसने लगे और चौधरी साहब को ऊंट के साथ बकरी का जोड़ बताने लगे। किंतु विधर्मियों की ऐसी बातें सुनकर चौधरी साहब रत्ती भर भी हतोत्साहित नहीं हुए और 5 मिनट का समय रखकर कुश्ती आरंभ हुई। बुजुर्ग बताते हैं कि लगभग 2 मिनट में ही सुलेमान के होश फाख्ता हो गए और वह हांफने लगा। तीसरी मिनट में चौधरी साहब ने ऐसा धोबी पछाड़ दांव लगाया कि सुलेमान के चित होने के साथ ही उसका एक हाथ और गर्दन टूट कर मौके पर ही मौत हो गई।
अपने मजहब के नामचीन पहलवान सुलेमान की मौत से वहां के दर्शक, रेफरी और कुश्ती के आयोजक क्षुब्ध हो गए और धारदार हथियार निकाल कर जान से मारने की नियत से चौधरी साहब की ओर बढ़ने लगे। चौधरी साहब ने उन्हें अपनी ओर आता देख अखाड़े की बैरिकेडिंग के लिए लगाई गई बल्लियों में से एक बल्ली उखाड़ ली और चौधरी साहब के साथ आए दर्शक भी अपने लाठी-डंडे लेकर उनकी मदद के लिए आ गए। फिर तो मुस्लिम मजहब के लोगों में भी दहशत घुस गई और वे वही ठिठक गए। चौधरी साहब अपने साथियों सहित वहां से सकुशल निकल आए।
उसी दिन से आज तक यहां पर कुश्तियां होनी बंद हो गईं। और चौधरी साहब के पराक्रम का डंका बजने लगा।
चौधरी साहब ने सैकड़ों नवयुवकों को बिना हथियार के आत्मरक्षा, लाठी डंडे से रक्षात्मक तथा आक्रमण शैली में निपुण किया। कितनी ही गरीब कन्याओं की शादियां कराईं। गुरुकुल ततारपुर हापुड़, गुरुकुल पूठ बहादुरगढ़ हापुड़ को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए प्रोत्साहन दिया। चौधरी साहब हमेशा दूध_घी खाने और शाकाहारी रहने के लिए प्रेरित करते थे। क्षेत्र में आज भी चौधरी साहब को बड़ी श्रद्धा और आदर भाव से लोग याद करते हैं। उनके द्वारा सामाजिक कार्यों में दिया योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा।