Parvesh Kumar's Album: Wall Photos

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3.8.2020
*सूर्य तो है ही। आप सूर्य को मानें, या न मानें, आपकी इच्छा है। आपके न मानने पर भी, सूर्य तो रहेगा ही। इसी प्रकार से ईश्वर तो है ही। आप ईश्वर को मानें, या न मानें, आपकी इच्छा है। आपके ईश्वर को न मानने पर भी, ईश्वर तो रहेगा ही।*
*बहुत से नास्तिक लोग इस संसार में हैं, जो खुलेआम घोषणा करते हैं कि "मैं ईश्वर को नहीं मानता."*
बेचारे! वे लोग इतना भी नहीं जानते कि जिस वाणी मुख शरीर आदि की सहायता से वे ईश्वर का खंडन कर रहे हैं, वे वाणी आदि साधन भी ईश्वर ने ही उनको दिए हुए हैं। इन वाणी आदि साधनों के बिना तो वे इस वाक्य को भी नहीं बोल पाएंगे, कि "मैं ईश्वर को नहीं मानता."
आप सोचते होंगे कि "वाणी आदि देकर भी, क्या ईश्वर कहता है कि तुम मेरा खंडन करो।" मेरा उत्तर है कि "नहीं। ईश्वर ऐसा तो नहीं कहता कि तुम मेरा खंडन करो। फिर भी व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र होने के कारण, वाणी आदि साधनों का दुरुपयोग कर के, वह ईश्वर का खंडन कर ही लेता है। जैसे किसी अधिकारी को सरकारी संपत्ति दुरुपयोग करने के लिए नहीं दी गई थी, फिर भी वह अपनी दुष्टता आदि दोषों के कारण उस संपत्ति का दुरुपयोग कर ही लेता है। ऐसे ही ईश्वर ने शरीर मन बुद्धि इंद्रियां वाणी आदि पदार्थ दिए तो थे अच्छे काम के लिए। फिर भी व्यक्ति अपनी दुष्टता आदि दोषों के कारण इनका दुरुपयोग कर ही लेता है। इसमें ईश्वर दोषी नहीं है। जैसे सरकार, अधिकारी को संपत्ति, सदुपयोग करने के लिए देती है, और अधिकारी जब उसका दुरुपयोग करता है, तब सरकार दोषी नहीं होती।*
अब सोचिये, जब नास्तिक व्यक्ति ईश्वर का खंडन करता है, तो जिस शरीर मन बुद्धि वाणी आदि इंद्रियों के द्वारा वह ईश्वर का खंडन करता है, वे सारे साधन क्या उसने स्वयं बनाए थे? क्या वह इन शरीर आदि साधनों को बनाना, इन को सुरक्षित रखना जानता है? *जब इन शरीर आदि साधनों को वह बना नहीं सकता, इनकी रक्षा नहीं कर सकता, तो फिर वह कौन है जिसने ये सारे साधन उसको और सबको बना कर दिए? इतना भी वह नास्तिक व्यक्ति ठीक से विचार कर लेवे, तो उसे समझ में आ जाएगा, कि ईश्वर है अथवा नहीं है।*
जड़ वस्तु स्वयं तो किसी पदार्थ की रचना कर नहीं सकती, जैसे लोहा लकड़ी स्वयं तो रेलगाड़ी बन नहीं सकती। कोई चेतन बुद्धिमान इंजीनियर चाहिए, जो लोहे लकड़ी से रेलगाड़ी को बनाएगा।
इसी प्रकार से जो शरीर मन बुद्धि इंद्रियां वाणी आदि पदार्थ नास्तिक के पास हैं, वे भी स्वयं तो बन नहीं सकते, क्योंकि वे सब जड़ पदार्थ हैं। और वह नास्तिक व्यक्ति स्वयं बनाने में समर्थ नहीं है। तो वह नास्तिक व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तर देवे, कि किसने उसके लिए ये सारे साधन बनाए?
*जिसने बनाए, वही तो ईश्वर है। ईश्वर के बनाए हुए पदार्थों का उपयोग ले रहा है, ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि में, ईश्वर के नियमों का पालन करते हुए सुखपूर्वक जी रहा है, फिर भी कहता है कि मैं ईश्वर को नहीं मानता। इससे बड़ा अज्ञानी और कृतघ्न कौन होगा?*
इसलिए नास्तिक बनना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। प्रमाण एवं तर्क सेे सत्य असत्य का विचार करना चाहिए। और जो सत्य सिद्ध हो उसे, स्वीकार करना चाहिए, यही बुद्धिमत्ता है।
जरा सोचिए, *यदि कोई आप के होते हुए भी यह कहे कि मैं आप को नहीं मानता, तो उसके न मानने से आप रहेंगे या नहीं रहेंगे?* यदि फिर भी आप रहेंगे। तो बताइए उसका बोलना व्यर्थ हुआ या सार्थक हुआ? सीधी सी बात है, कि व्यर्थ हुआ।
ऐसा ही इन नास्तिकों का वचन भी व्यर्थ है, जो ईश्वर के होते हुए भी यह कहते हैं कि मैं ईश्वर को नहीं मानता। उनके कहने से क्या ईश्वर नहीं रहेगा? यदि उनके न मानने से ईश्वर नष्ट नहीं होगा, तो उनका बोलना भी व्यर्थ है। *इसलिए अपनी वाणी को व्यर्थ न बनाएं। बल्कि सत्य बोलकर सार्थक बनाएँ। ईश्वर और उसकी कर्म फल व्यवस्था को स्वीकार करें, आस्तिक बनें, ईश्वर को साक्षी मान कर सब अच्छे अच्छे कर्म करें। अपना और सबका कल्याण करें। यही बुद्धिमत्ता और मनुष्यता है।*
- *स्वामी विवेकानंद परिव्राजक*