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भारत में दासप्रथा का सत्य

राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करने में कुशल धूर्तों के लिए देश एवं समाज में विद्वेष के बीज बोने का कृत्य कोई नया विषय नहीं है। शूद्रवर्ण को यह कहकर शेष जनों के प्रति घृणा से भरा जा रहा है कि उन्हें शास्त्र ने “दास” कहा है। दास प्रथा के समय उनके ऊपर अत्याचार होता था। वैसे ध्यान से देखें तो गत एक हज़ार वर्षों में, जहां देश के निवासियों का अधिकांश समय अपने धर्म, धन, सम्मान और प्राण की रक्षा के लिए युद्ध करते हुए बीता है, विधर्मियों के अत्याचारों का सामना सभी वर्ग के लोगों ने किया है। किन्तु रक्षकों को ही बड़ी धूर्तता से विधर्मियों ने इतिहास लेखन के नाम पर शोषक घोषित कर दिया, जिसका सीधा लाभ धर्मपरिवर्तन कराने वाली मिशनरियों को हुआ।

विदेशों में यहूदी, इस्लाम एवं ईसाईयत के मौलिक नियम और “कायदे”, एवं उससे भी पहले हेलेनिज़्म (यूनान), फेरॉन (मिस्र) और रोमन पैगन के समय भी गुलामी, स्लेवरी का बहुत प्रचलन था। कहीं किसी विशेष सामाजिक वर्ग, तो कहीं कहीं मात्र चमड़ी के रंग के आधार पर ही लोगों को गुलाम बना दिया जाता था, यह गुलामी कई पीढ़ियों तक चलती थी। जब धूर्तों ने भारत के इतिहास का लेखन या विकृतिकरण प्रारम्भ किया तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि भारत में ऐसा कोई प्रकरण क्यों नहीं मिलता ? क्यों यहां पर कोई वर्ग दूसरे के धन आदि का अपहरण नहीं करता ? जैसे विदेशों में सर्वोच्च स्तर पर बैठे लोग सदैव अपने को सुख से आवृत्त रखने का प्रयास करते हैं, यहां पर ब्राह्मण के लिए सबसे अधिक कठोर नियम, दण्ड विधान, त्याग और संतोष की बात क्यों है ? इसीलिए उन्होंने गुलामी एवं स्लेवरी का अनुवाद “दासप्रथा” के रूप में कर दिया। अब हमारे यहां हालांकि, शूद्रवर्ण का शास्त्रीय पदनाम “दास” ही है, किन्तु उसका सन्दर्भ “गुलाम” या “स्लेव” से कदापि नहीं है। हमारे यहां आधुनिक काल में सूरदास, तुलसीदास, रैदास, हरिदास, मतिदास, पुरंदरदास आदि अनेकों सर्वमान्य सन्त हुए हैं, जिनमें ब्राह्मण से शूद्र तक सभी सम्मिलित हैं। यहाँ तक कि श्रीराम जी के काल में भी आचार्य कृष्णदास, आचार्य रामदास आदि का वर्णन आता है।

भारत में दास प्रथा जैसी कोई चीज थी ही नहीं। यहां दास का अर्थ बस सेवक होता था, और सेवक का तात्पर्य वह नहीं है, जो गुलाम या स्लेव का होता है। शास्त्रों में दास, दासी आदि शब्द बहुतायत से आये हैं, किन्तु वहां जो तात्पर्य है, जो व्यवहार की नियमावली है, उसका उल्लेख में इस लेख में करूँगा। विदेशी मान्यता एवं पंथों में जो गुलामी या स्लेवरी की बात है, वह अत्यंत ही बीभत्स, क्रूर, अमानवीय एवं निन्दनीय है। उसे अधिक विस्तार से पढ़ने के लिए, समझने के लिए आपको विशेष शोध की आवश्यकता नहीँ पढ़ने वाली, क्योंकि आज तक इसका दंश देखने को मिलता है। हां, आप उसके भावनात्मक अनुभव को प्राप्त करने के लिए कुछ हॉलीवुड फिल्में, जैसे कि 12 Years a slave (2013), Django Unchained (2012), Glory (1989), और सबसे बढ़कर Slavery by another name (2012) आदि देख सकते हैं। रोमन, अरबी, यूनानी एवं मिस्री गुलामी के भयावह दृश्य आपको झलक Exodus: Gods and Kings (2014), Gladiator (2000) जैसी फिल्में दिखा देंगी।

विदेशों में जिस गुलामी और स्लेवरी की बात आती है, वहां अधिकांश मामलों में गुलामों को जंजीरों में बांधकर रखा जाता था। उनसे अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उनके आवास, भोजन आदि अत्यंत निम्नस्तरीय होते थे और वेतन की बात दूर, कई बार तो पर्याप्त वस्त्र एवं भोजन भी नहीं दिया जाता था। उनके पत्नी, बच्चे आदि के साथ क्रूर शोषण और बलात्कार होते थे एवं एक ही व्यक्ति और उसकी पत्नी एवं बच्चों को कई बार अलग अलग बेचा जाता था, जहां वे जीवन में फिर कभी नहीं मिल पाते थे। स्त्रियों को निर्वस्त्र करके उनकी नीलामी की जाती थी, और आज भी इसका व्यापक प्रयोग होता है। इस्लामी, ईसाई एवं यूनानी आक्रांताओं ने भारत को भी ऐसे अनगिनत घाव दिए हैं। विदेशों में गुलामी एवं स्लेवरी के जो प्रारूप थे या हैं, उनके उद्धरण तो आपको कुरान, हदीस आदि में पर्याप्त स्थानों पर दिख जाएंगे किन्तु मैं कुछ आधुनिक लेखकों के सारभूत उद्धरण प्रस्तुत कर रहा हूँ।

Slaves were punished by whipping, shackling, beating, mutilation, branding, and/or imprisonment. Punishment was most often meted out in response to disobedience or perceived infractions, but masters or overseers sometimes abused slaves to assert dominance.
(Reference – Moore, p. 114)

गुलामों को कोड़े मारकर, जंजीरों में बांधकर, पीटते हुए, उनके अंगों को काटकर, गरम लोहे से दागकर या कैद करके दण्डित किया जाता था। ये दण्ड सामान्य बातों के लिए, जैसे कि बताए गए काम में देरी या हुक्म की नाफ़रमानी करने के लिए दिए जाते थे, किन्तु कई गुलामों के मालिक, बस अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए भी ऐसा करते थे।

Owners of slaves could legally use them as sexual objects. Therefore, slavery in the United States encompassed wide-ranging rape and sexual abuse.

(Reference – Moon, Dannell (2004). “Slavery”. In Smith, Merril D. (ed.). Encyclopedia of Rape. Greenwood. p. 234.)

गुलामों के मालिक उन्हें अपनी यौन तृप्ति के लिए “कानूनी तौर पर” इस्तेमाल कर सकते थे। अमेरिका में गुलामी के पैमाने यौन शोषण एवं बलात्कारों तक फैले हुए थे।

Many slaves fought back against sexual attacks, and some died resisting them; others were left with psychological and physical scars.
(Reference – Marable, p 74)

बहुत से गुलाम अपने ऊपर यौन अत्याचार होने पर उसका विरोध करते थे। कई गुलाम तो विरोध करने के ही कारण मारे जाते थे, अन्य लोगों को मानसिक या शारीरिक जख्मों के साथ जीना पड़ता था।

Although Southern mores regarded white women as dependent and submissive, black women were often consigned to a life of sexual exploitation.

(Reference – Moon, Dannell (2004). “Slavery”. In Smith, Merril D. (ed.). Encyclopedia of Rape. Greenwood. p. 234.)

वैसे दक्षिणी प्रान्तों के रिवाजों में गोरे रंग की स्त्रियों को सहायता के योग्य एवं सभ्य, विनम्र समझा जाता था किंतु काले रंग की स्त्रियों का जीवन यौन शोषण के लिए है, ऐसा मानते थे।

Angela Davis contends that the systematic rape of female slaves is analogous to the supposed medieval concept of droit du seigneur, believing that the rapes were a deliberate effort by slaveholders to extinguish resistance in women and reduce them to the status of animals.
(Reference – Marable 73)

एंजेला डेविस (गुलामी के विरुद्ध कार्य करने वाली एक अमेरिकी राजनेत्री, और लेखिका) ने दावा किया कि महिला गुलामों के साथ बलात्कार की परिपाटी मध्यकाल के Droit du seigneur (Droit de cuissage) के समकक्ष है, जिसके तहत यह माना जाता था कि गुलामों के साथ बलात्कार करने से उनके अंदर विरोध एवं विद्रोह की भावना समाप्त हो जाती है एवं उनका स्तर गिरकर जानवरों के जैसा हो जाता है। (इसका व्यापक प्रचलन इस्लामी गुलामों के विरुद्ध देखा जाता है। आज भी तहर्रुश गेमिया के नाम से यह किया जा रहा है)

Droit du seigneur (Droit de cuissage) वह कानून था, जिसके तहत राजा या उसके अधिकारियों को यह कानूनी हक मिला हुआ था कि किसी भी गुलाम या सामान्य व्यक्ति की शादी होने पर उसकी दुल्हन के साथ पहली रात राजा या उसके अधिकारी ही बिताएंगे और आगे भी इच्छा होने पर वे ऐसा कर सकते हैं। ये दुष्कर्म अंग्रेजों ने भारत के भी कई भागों में किया था।

The women he hoisted up by the thumbs, whipp’d and slashed her with knives before the other slaves till she died.

(Reference – Lasgrayt, Deborah. Ar’n’t I a Woman? : Female Slaves in the Plantation South 1999)

(बलात्कार का विरोध करने वाली गुलामों को) अंगूठे से बांधकर टांग दिया जाता था, उसपर कोड़े बरसाए जाते थे, और दूसरे गुलामों के सामने ही उसपर तब तक चाकुओं से वार किया जाता था, जब तक वह मर नहीं जाती थी।

Alligator hunters would sit crying black babies who were too young to walk at the water’s edge. With rope around their necks and waists, the babies would splash and cry until a crocodile snapped on one of them. The hunters would kill the alligator only after the baby was in its jaws, trading one child’s life for one alligator’s skin. They made postcards, pictures and trinkets to commemorate the practice.

( Reference – Miami New Times article)

मगरमच्छ का शिकार करने वाले लोग, रोते हुए काले (गुलामों के) बच्चों को नदी के किनारे बैठा देते थे। वे बच्चे इतने छोटे होते थे कि चल भी नहीं सकते थे। उन बच्चों के कमर और गर्दन रस्सियों से बंधे होते थे और वे रोते हुए नदी के पानी में तब तक छटपटाते थे, जब तक कोई मगरमच्छ उनपर झपट्टा न मारे। शिकारी भी मगरमच्छ को तभी मारते थे, जब मगरमच्छ उस बच्चे को अपने जबड़े में खींच लेते थे, और इस प्रकार मगरमच्छ की चमड़ी का सौदा एक बच्चे की जान से होता था। इस घटना-विशेष की स्‍मृति ताज़ा करने के लिए वे इसके सम्‍मान में स्‍मरणोत्‍सव मनाते थे और इसके चित्र और पोस्टकार्ड छपवाते थे।

उपर्युक्त कतिपय उदाहरणों से आपको एक आंशिक झलक मिल गई होगी कि विदेशों में गुलामी या स्लेवरी का क्या भयावह रूप था। अब उन्हीं अत्याचारियों ने जब भारत ने इसका अनुवाद दास प्रथा के रूप में कर दिया, तो साथ ही यह भ्रम फैला दिया कि यही सब भारत में भी होता था, जहां दास का अर्थ शूद्र है। यह नितांत ही असत्य एवं भ्रामक था। हमारे यहां कभी ऐसी क्रूरता का समर्थन समाज या शास्त्र नहीं करते। काले गोरे के रंगभेद के आधार पर गुलामी आदि की बात तो बिल्कुल नहीं है। रंगभेद का एकमात्र प्रख्यात उदाहरण आचार्य चाणक्य के साथ देखने को मिलता है, जहां धनानंद ने काला ब्राह्मण होने से चाणक्य का अपमान किया था। वहां भी गुलामी की नहीं, अपमान की बात थी और वह भी शूद्र नहीं, ब्राह्मण के ही साथ। इसी गलती को निमित्त बनाकर आचार्य चाणक्य ने बाद में तो पूरा नंदवंश ही उखाड़ फेंका था।

आज भी विदेशों में Freeman की उपाधि लगाकर लोग घूमते हैं, जो यह दिखाता है कि कैसे उनके पूर्वज गुलाम थे। उदाहरण के लिए मॉर्गन फ्रीमैन का ही नाम देख लें। कुछ लोग भारत में “न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति” के आधार पर कहते हैं कि स्त्रियों का जीवन गुलामी के लिए है, ऐसी बात है। यह भी एक वामपंथी भ्रम ही है। उन श्लोकों में पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने आदि की बात है। वहां स्त्री की रक्षा करने की बात है, और रक्षा का अर्थ जंजीरों में बांधकर कोड़े बरसाना नहीं होता। आईये, हम सनातन शास्त्रों में दास-दासियों के विषय में दिए गए निर्देशों में से कुछ उदाहरण देखते हैं।

दास शब्द का सामान्य अर्थ सेवक, परिचारक, किंकर और एकदम सरल शब्दों में नौकर आदि है, किन्तु इसका अर्थ बन्धक गुलाम नहीं होता है। आप नौकरी करते हैं न, चाहे सरकारी (राजकीय) या प्राइवेट (व्यक्तिगत), यही दास्यकर्म है। दास का अर्थ वही है, जो आपकी सरकारी या प्राइवेट नौकरी का है। लोग बड़े गर्व से कहते हैं आजकल कि मेरा बेटा नौकरीपेशा है, या मेरा दामाद सर्विस करता है, और यहां तक ठीक है, यदि हम कहें कि दास्यकर्म करता है, तो गलत ? क्यों ? क्योंकि अंग्रेजों ने दास शब्द को, दास प्रथा को अपने यहां की क्रूर गुलामी और स्लेवरी से जोड़ कर दिखा दिया। यूपीएससी को भी लोकसेवा आयोग कहते हैं। सेवक का अर्थ दास ही है। हनुमान जी भगवान् श्रीराम के दास हैं, गुलाम नहीं। कामशास्त्र में प्रेमी या पति को अपनी प्रेमिका या पत्नी का दास बताया गया है, वैसे ही पत्नी भी पति की दासी है। हमारे यहां इसीलिए रैदास (रविदास), तुलसीदास आदि भी हुए, ये गुलाम या स्लेव नहीं थे। दास शब्द किसी शोषण या अत्याचार का प्रतीक नहीं, विनम्रता, सेवाभाव, अहंकारहीनता का प्रतीक था। आज भी लोग समाज”सेवा” करते हैं न।

हां, यह अवश्य है कि कहीं कहीं वचन है कि कोई व्यक्ति दासकर्म न करे, किन्तु वहां भाव है कि उसे अपनी आजीविका के लिये किसी अन्य के दिए गए वेतन पर आश्रित न रहना पड़े, अपितु वह स्वरोजगार करे। बड़े बूढे कहते भी थे – “अधम चाकरी” …

मिताक्षरा में वचन है,
कर्म्मापि द्बिविधं ज्ञेयमशुभं शुभमेव च ।
अशुभं दासकर्म्मोक्तं शुभं कर्म्मकृतां स्मृतम् ॥

कर्म के भी दो प्रकार हैं, एक शुभ एवं दूसरा अशुभ। दासकर्म को अशुभ तथा स्वकृत को शुभ कहते हैं।

शूद्रवर्ण, जिनके लिए दास शब्द का उल्लेख है, उन्हें व्यक्तिगत दास्यकर्म (नौकरी) के लिए कम, और स्वकर्म का अधिक अवसर दिया गया था। जितने भी समाज के आधारभूत कर्म हैं, वे सभी एक एक जाति के लिए सहज ही आरक्षित थे। जैसे सोने चांदी का सारा काम सुनार, लोहे का लुहार, पीतल कांसे का ठठेरा, तेल का तेली, कपड़े बुनने का बुनकर, कपड़े सिलने का दर्ज़ी, कपड़े रंगने का रंगरेज, कपड़े धोने का धोबी, मिट्टी का सारा काम कुम्हार, सौंदर्य प्रसाधन का सैरंध्री, नाई आदि, पानी भरने और वितरण का कहार, भिश्ती, आदि … सबके कर्तव्य निश्चित थे। हां, इसके बाद यदि आजीविका में कोई समस्या आये, तब उसके लिए नौकरी करने यानी दास बनने की बात थी। वहां भी उसे पर्याप्त अवकाश, वेतन आदि की सुविधा रहती थी, जैसे आज की नौकरी में है।

शब्दकल्पद्रुम में दास शब्द की परिभाषा में यह भी कहते हैं –
दास्यते दीयते भूतिमूल्यादिकं यस्मै सः (दासः)
जिसे भूतिमूल्य आदि दिया जाए, उसे दास कहते हैं। भूति का अर्थ सम्पत्ति भी है और सत्ता भी है। सत्ता का अर्थ शब्दकल्पद्रुम में साधुता एवं अच्छा व्यवहार भी बताया गया है। भूति का अर्थ उत्तरोत्तरवृद्धि भी है। अर्थात् दासों को उनके अच्छे कर्म का वेतन, धन, मूल्य आवश्यक वेतनवृद्धि, क्रमशः बढ़ते हुए वेतनमान के साथ मिलता था।

दास का अर्थ किंकर भी होता है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे का किंकर है।

विप्रस्य किङ्करा भूपो वैश्यो भूपस्य भूमिप।
सर्व्वेषां किङ्कराः शूद्रा ब्राह्मणस्य विशेषतः॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, गणपतिखण्ड, अध्याय ३४, श्लोक – ५९)

ब्राह्मण का किंकर राजा है। राजा का किंकर वैश्य है। वैश्य का किंकर शूद्र है और शूद्र सबका, विशेषकर ब्राह्मण का किंकर है।

किंकर का अर्थ गुलाम नहीं होता, आदेशपालक होता है। “मैं क्या करूँ ?” अथवा “मेरे लिए क्या आज्ञा है ?” ऐसे प्रश्न करने वाला किंकर है। हनुमानजी महाराज को प्रभु श्रीराम का किंकर बताया गया है। रघुवंशम् में कुम्भोदर सिंह ने राजा दिलीप को स्वयं का परिचय शिव जी के किंकर के रूप में दिया है – अवेहि मां किंकरमष्टमूर्तेः।

राजा ब्राह्मण से पूछता है कि मैं क्या करूँ ? मैं कैसे राज्य चलाऊँ कि धर्मानुसार सब प्रजा सुखी रहे, इसीलिए वह ब्राह्मण का किंकर है। वैश्य, राजा से पूछता है कि मैं क्या करूँ ? राज्य के नियमों के अनुसार अर्थव्यवस्था के अनुकूल कौन सी व्यापार नीति अपनाऊं ? , इसीलिए वह राजा का किंकर है। शूद्र, चूंकि उत्पादक (Primary Production Sector) वर्ग है, और वैश्य वितरणकर्ता (Secondary or Tertiary Sector) है, अतएव शूद्र वैश्य से पूछता है कि मैं क्या करूं ? क्या बनाऊं, किस वस्तु का किस गुणवत्ता अथवा कितनी मात्रा में उत्पादन करूँ? , इसीलिए वह वैश्य का किंकर है। विशेषकर ब्राह्मण का किंकर इसीलिए है, क्योंकि ब्राह्मण के सदुपदेश से उसे कर्तव्य की शिक्षा मिलेगी तो वह शेष दायित्वों का वहन सहजता से कर लेगा। किंकर को ही दास भी कहते हैं, दास को ही भृत्य भी कहते हैं।

भृत्यकर्म को ही दास्यकर्म भी कहते हैं। भृत्यों के भी कई भेद हैं। उत्तम, मध्यम एवं अधम भृत्यों के सन्दर्भ में शास्त्रों का वचन है कि जैसे सोने की परख उसके वजन, घर्षण, छेदन एवं ताप आदि परीक्षणों से होती है, वैसे ही सामाजिक प्रशंसा, अच्छा आचरण, कुल और कार्यकुशलता से भृत्य की परीक्षा ली जाती है।

भृत्या बहुविधा ज्ञेया उत्तमाधममध्यमाः ।
नियोक्तव्या यथार्थेषु त्रिविधेष्वेव कर्म्मसु ॥
भृत्यपरीक्षणं वक्ष्ये यस्य यस्य हि यो गुणः।
तमिमं संप्रवक्ष्यामि यद्यदा कथितानि च ॥
यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते,
तुलाघर्षणच्छेदनतापनेन।
तथा चतुर्भिर्भृतकः परीक्ष्यते,
श्रुतेन शीलेन कुलेन कर्म्मणा ॥

(गरुड़ पुराण, आचारकाण्ड, बार्हस्पत्यनीति, अध्याय – ११२, श्लोक – ०१-०३)

भृत्य अथवा दास का काम शुश्रूषा बताया गया है। शुश्रूषा के कई अर्थ हैं, जैसे कि – सुनने की इच्छा, सेवा, उपासना आदि। स्वामी के दिये गए निर्देशों को सुनने की इच्छा रखना, उसकी सेवा करना आदि दास के कर्तव्य हैं। अब यदि दास पर अत्याचार होगा तो वह भला क्यों अपने स्वामी के आदेश सुनने की इच्छा रखेगा ? सेवा भाव भी तभी उत्पन्न हो सकता है, जब स्वामी उसके प्रति सद्व्यवहार करे। शास्त्रों में दास के कई भेद हैं, जिनमें क्रीतदास (ख़रीदा हुआ व्यक्ति) भी है। इसका एक उदाहरण हम राजा हरिश्चंद्र और वीरबाहु चांडाल के प्रकरण में देखते हैं। किन्तु क्रीतदास को भी पूरी सुविधा और वेतन आदि मिलते थे। (हरिश्चंद्र के साथ अत्याचार इसीलिए हुआ क्योंकि उनकी सत्यनिष्ठा की धार्मिक परीक्षा हो रही थी, और वह चांडाल, ब्राह्मण आदि माया के थे) ऐसे ही एक दास का प्रकार वह है जो ऋण न चुकाने की स्थिति में दास बन गया हो, ऐसे में वह व्यक्ति ऋण के समतुल्य परिश्रम करके, अथवा किसी और व्यक्ति के द्वारा ऋण चुका देने पर स्वतः मुक्त हो जाता था। इसमें कोई पीढ़ी दर पीढ़ी की गुलामी की बात नहीं थी। पिता के मरने पर नियमतः उसका लिया गया ऋण चुकाने के लिए उस व्यक्ति की पत्नी या पुत्र बाध्य नहीं हैं। हां, यदि अपने पिता को पारलौकिक कष्ट से बचाने के लिए पुत्र या पत्नी उस ऋण को चुका दें, तो यह उनकी अपनी अलग सत्यनिष्ठा है।

दास्यते भृतिरस्मै दासति ददात्यङ्गं स्वामिने उपचाराय वा दास:।
(वाचस्पत्यम्)
वाचस्पत्यम् का वचन है कि जिसे “भृति” दी जाए, और जो (भृति लेने के बदले) अपने अंग (शरीर) को स्वामी के उपचार (सेवा) के लिए समर्पित करे, उसे दास कहते हैं। अमरकोश में भृति का अर्थ वेतन, एवं मेदिनीकोश में भृति का अर्थ भरण बताया गया है। अर्थात् जो व्यक्ति भरण पोषण के बदले अथवा वेतन लेकर स्वामी की सेवा करे, वह दास है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कैसे विदेशों के गुलाम या स्लेव, और हमारे यहां के दास-दासी आदि में व्यापक अंतर है, एवं क्यों सेल्वरी या गुलामी को हम दासप्रथा नहीं कह सकते।

जहां विदेशों में गुलामों को पीट पीट कर मारने की बात सामान्य है, वहीं वाचस्पत्यम् आगे स्मृतिवाक्य से कहता है,
यश्चैषां स्वामिनं कश्चिन्मोचयेत् प्राणसंशयात्।
दासत्वात् स विमुच्येत पुत्रभागं लभेत चेति॥

जो (दास) अपने स्वामी को प्राणसंकट से बचाता है, वह दासत्व से मुक्त होकर पुत्र के समान हो जाता है। (यहां तक कि उसका अपने स्वामी की सम्पत्ति में भी अधिकार हो जाता था)

किन्तु विदेशों में पुत्र बनना तो दूर, यदि मालिक के सम्बन्धी भी कोई अपराध करें और उसका आरोप गुलाम पर आ जाये तक बिना किसी जांच के गुलाम को मृत्युदंड तक दे दिया जाता था –

A female slave was sent on an errand, and was gone longer than her master wished. She was ordered to be flogged, and was tied up and nearly beaten to death. While the overseer was whipping her, in the presence of her master, she said that she had been prevented returning sooner by sickness on the way. Her enraged master ordered her to be whipped again for daring to speak, and the lash was again applied, until she expired under the operation. Nor was her life alone sacrificed. An unborn infant died with her, which had been the cause of her delay on her master’s errand.

(Proceedings of the New-England Anti-Slavery Convention, held in Boston on the 27th, 28th and 29th of May, 1834. Boston.)

New-England Anti-Slavery Convention, जो मई,१८३४ की २७-२९ तारीख तक बॉस्टन में चला था, उसमें गुलामों की स्थिति पर अनेक घटनाओं के उदाहरण देते हुए कहा गया था –

एक स्त्री गुलाम को किसी कार्य से भेजा गया था किंतु उसने आने में कुछ देर कर दी। मालिक को यह देरी पसन्द नहीं थी, इसीलिए उसे (बाकी गुलामों को आदेश देकर) कोड़े मारे गए, और बांध कर लगभग अधमरा होने तक पीटा गया। जब गुलामों का प्रभारी उसे पीट रहा था, तब उस महिला ने कहा कि रास्ते में उसका स्वास्थ्य बिगड़ गया था इसीलिए उसे देरी हो गयी। (चूंकि महिला गुलाम गर्भवती थी, तो शायद गर्भावस्थाजन्य के शारीरिक थकान, भार, तनाव आदि से वह शीघ्रता में न आ सकी) उसकी बात सुनने से मालिक का गुस्सा और बढ़ गया, उसने मालिक से “जुबान लड़ाने” के कारण उसे और अधिक कोड़े लगाए और अंततः वह उस पिटाई के कारण मर गयी। केवल उसने ही अपने प्राण नहीं दिए, अपितु उसके पेट में पल रहा अजन्मा बच्चा भी मर गया, क्योंकि उस बच्चे के कारण ही महिला गुलाम को आने में देर हो गयी थी।

Another case occurred, where a black boy was whipped for stealing a piece of leather, and because he persisted in denying it, he was whipped till he died. After he was dead, his master’s son acknowledged that he took the piece of leather.

(बॉस्टन के १८३४ वाले उसी अधिवेशन में यह बात भी बताई गई कि) एक काले गुलाम लड़के को कोड़े मारे जा रहे थे। उसपर चमड़े के एक टुकड़े को चुराने का आरोप लगाया गया था, और चूंकि उस बच्चे ने इस आरोप का खंडन किया और कहा कि उसने चोरी नहीं की है, तो मालिक ने उसे तब तक कोड़े मारे, जब तक वह बच्चा मर नहीं गया। उस बच्चे के मर जाने के बाद, मालिक के बेटे ने यह बताई कि वास्तव में उसने (मालिक के बेटे ने) ही चमड़ा लिया था।

A slave, who was a husband and father, was made to strip his wife and daughter, and whip them.

(New-England Anti-Slavery Society (1835). Second annual report of the board of managers of the New-England Anti-Slavery Society)

संस्था के १८३५ में हुए दूसरे वार्षिक सम्मेलन में पुनः ऐसी ही चर्चाओं में एक उदाहरण दिया गया – “एक गुलाम, जो एक पिता और पति भी था, उसे विवश किया गया कि वह अपनी पत्नी और बेटी को निर्वस्त्र करके उनपर कोड़े बरसाये।

During his term of bondage, the indentured servant received no monetary payment. His hours and conditions of work were set absolutely by the will of his master who punished the servant at his own discretion. Flight from the master’s service was punishable by beating, or by doubling or tripling the term of indenture. The bondservants were frequently beaten, branded, chained to their work, and tortured.

अपने गुलामी के सत्र में गुलामों को कोई वेतन नहीं दिया जाता था। उनके काम करने का समय और परिस्थितियों का निर्णय मालिक की इच्छा पर होता था, जो उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार ही दण्डित करता था। यदि गुलाम मालिक की गुलामी छोड़कर भाग जाता था, तो उसे पकड़ कर पीटा जाता था, अथवा उसके गुलामी के सत्र को बढ़ाकर दो या तीन गुणा कर दिया जाता था। गुलामों को काम के दौरान अक्सर बांध कर रखा जाता था, पीटा जाता था, गर्म लोहे से दागा और प्रताड़ित किया जाता था।

Washington Telegraph ने २९ अगस्त, १८३५ के अपने अंक में प्रथम पृष्ठ पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें एक गुलामों के मालिक के विचार दिए गए थे, जिसने कहा था –

We …. deny that slavery is sinful or inexpedient. We deny that it is wrong in the abstract. We assert that it is the natural condition of man; that there ever has been, and there ever will be slavery.

(Washington Telegraph. August 29, 1835)

“हम इस बात से इंकार करते हैं कि गुलामी/स्लेवरी करवाने में कोई पाप या अनैतिकता की बात है। गुलामी करवाना भावनात्मक रूप से गलत है, हम इस बात से भी इंकार करते हैं। हम इस बात के लिए आश्वस्त करते हैं कि गुलामी, लोगों की एक प्राकृतिक स्थिति है, ये हमेशा से थी और हमेशा रहेगी।”

आप समझ सकते हैं कि म्लेच्छों की मानसिकता किस स्तर की थी, कि उन्हें गुलामों के प्रति इतने अत्याचार करने के बाद भी “यह पाप है”, इसकी तक समझ नहीं थी। इसी मानसिकता के कारण उन्होंने भारत में कई आक्रमण किये, कभी अरबी, कभी तुर्क, कभी मुगल, कभी पुर्तगाली, कभी अंग्रेज तो कभी यूनानियों के रूप में … वे गुलामी को प्राकृतिक मानते हैं और पूरे संसार को अपना गुलाम बनाने को अपना अधिकार समझते हैं। एक उदाहरण और देखें –

Joe’s mother was ordered to dress him in his best Sunday clothes and send him to the house, where he was sold, like the hogs, at so much per pound. When her son started for Petersburgh, … she pleaded piteously that her boy not be taken from her; but master quieted her by telling that he was going to town with the wagon, and would be back in the morning. Morning came, but little Joe did not return to his mother. Morning after morning passed, and the mother went down to the grave without ever seeing her child again. One day she was whipped for grieving for her lost boy…. Burwell never liked to see his slaves wear a sorrowful face, and those who offended in this way were always punished. Alas! the sunny face of the slave is not always an indication of sunshine in the heart.

(Reference – Keckley, Behind the Scenesor, Thirty years a slave, and Four Years in the White House, 1868, p. 12)

‘जो’ की माँ को यह आदेश मिला कि वह उसे (जो को) अच्छे से अच्छे कपड़ों में तैयार करके भेज दे, जहाँ उसे (जो को) बेचा गया। सूवरों की भांति, जो को बेचा गया, अधिक से अधिक दाम देने वाले को। जब (जो की माँ के) बेटे (जो) को पीटर्सबर्ग के लिए रवाना किया गया, तो उसने कातर होकर प्रार्थना की, कि उसके बेटे को उससे न छीना जाय, लेकिन मालिक ने उसे यह कहकर चुप करा दिया कि ‘जो’ केवल गाड़ी के साथ शहर तक जा रहा है, अगली सुबह तक लौट आएगा। सुबह हुई, किन्तु छोटा ‘जो’ नहीं लौटा। ऐसी कई सुबहें आयीं किन्तु ‘जो’ नहीं आया, और उसकी माँ अपनी मृत्यु तक उसे न देख सकी। एक दिन अपने खोए बच्चे का शोक मनाने के कारण ‘जो’ की माँ को कोड़े भी मारे गए थे, क्योंकि बॉर्वेल (मालिक) को अपने गुलामों के उदास चेहरे देखना पसन्द नहीं था। जो गुलाम उदास रहते थे, उन्हें मालिक का “अपमान” करने के कारण कोड़े मारे जाते थे। गुलाम के चेहरे की खुशी का मतलब यह नहीं, कि उसका दिल भी खुश है।

१७१२ ई० में South Carolina Code बनाया गया था, जो उत्तरी अमेरिका में गुलामी के कायदों के आधार पर लिखा गया था और उसे बाद में जॉर्जिया और फ्लोरिडा आदि में भी लागू किया गया था। उसके नियमों में से एक का उदाहरण देखें –

The 1712 South Carolina slave code included the following provisions –
No slave could work for pay; plant corn, peas or rice; keep hogs, cattle, or horses; own or operate a boat; buy or sell, or wear clothes finer than “Negro cloth”.

कोई भी गुलाम वेतन नहीं ले सकता था। अपने लिए खेती नहीं कर सकता था, अपने लिए सूअर, गाय, घोड़े आदि नहीं पाल सकता था, अपनी नाव नहीं रख या चला सकता था, अपनी इच्छा से किसी वस्तु की खरीद बिक्री नहीं कर सकता था अथवा उनके लिए निर्धारित कपड़ों से बेहतर कपड़े नहीं पहन सकता था।

हालांकि यह कानून बाद में संशोधित किया गया था और नए नियमों में कुछ बिंदु इस प्रकार के थे –

The South Carolina slave code was revised in 1739, with the following amendments –

No slave could be taught to write, work on Sunday, or work more than 15 hours per day in summer and 14 hours in winter. A fine of $100 and six months in prison were imposed for teaching a slave to read and write; the death penalty was imposed for circulating incendiary literature.

किसी भी गुलाम को पढ़ाना लिखाना (शिक्षा देना) प्रतिबंधित था। उससे गर्मियों में पन्द्रह एवं सर्दियों में चौदह घण्टों से अधिक काम नहीं लिया जा सकता था। (संशोधन के बाद यह स्थिति थी, उससे पहले की कल्पना आप कर सकते हैं) गुलामों को शिक्षा देने वाले व्यक्ति को सौ डॉलर का जुर्माना एवं छः मास की कैद जा दण्ड मिलता था। उन्हें भड़काऊ शिक्षा देने वाले को मृत्युदण्ड दिया जाता था।

Children, especially young girls, were often subjected to sexual abuse by their masters, their masters’ children, and relatives.

(Reference – Painter, Nell Irvin, “Soul Murder and Slavery: Toward A Fully Loaded Cost Accounting,” U.S. History as Women’s History, 1995, p 127)

बच्चे, विशेषकर छोटी लड़कियों का यौन शोषण उनके मालिक, मालिक के बेटों या उनके रिश्तेदारों के द्वारा अक्सर किया जाता था।

गुलामों को अक्सर गुलामी के तस्कर खरीदते और बेचते थे। यह सब विदेशों में आज भी व्यापकता से होता है। किन्तु चूंकि भारत में गुलामी या स्लेवरी नहीं थी, यहां केवल दास थे, तो सनातनी शास्त्र दासों के विषय में क्या निर्देश करते हैं ?

बलाद्दासीकृतश्चौरैर्विक्रीतश्चापि मुच्यते।
ऐसा स्मृतिकार याज्ञवल्क्य का वचन है। जिसे बलपूर्वक दास बना लिया गया हो, तस्करों के द्वारा बेच दिया गया हो, उसे दासत्व से मुक्त कर देना चाहिए। अर्थात् यदि आप अपने घर के लिये या व्यापार के लिए किसी को नौकरी पर रखते हैं तो उसे बलपूर्वक या मानव-तस्करों के द्वारा खरीद बेच कर दास नहीं बनाया हुआ होना चाहिए।

बालधात्रीमदासीञ्च दासीमिव भुनक्ति यः।
परिचारकपत्नीं वा प्राप्नुयात्पूर्वसाहसम्॥

जो छोटे उम्र की दासी, (अथवा छोटे बच्चे की देखभाल करने वाली दासी), जो दासत्व से मुक्त है, ऐसी स्त्री, अथवा अपने दास की पत्नी का (यौन) उपभोग करता है, उसे पूर्व साहस का दण्ड देना चाहिए। (कई बार घर की बुरी स्थिति के कारण छोटी बच्चियां भी नौकरानी का काम करने लगती हैं) ऐसा स्मृतिकार कात्यायन का वचन है।

तेन लोभादिवशादसौ न मुक्तस्तदा राज्ञा मोचयितव्य इत्याह नारदः।
चौरापहृतविक्रीता ये च दासीकृता बलात् ।
राज्ञा मोचयितव्यास्ते दास्यन्तेषु हि नेष्यते॥

यदि लोग लोभवश बलपूर्वक बनाये हुए अथवा तस्करी से लाये गए दासों को मुक्त न करें तो राजा अपने हस्तक्षेप से उन्हें मुक्त कराए, क्योंकि ऐसे लोग दासत्व के योग्य नहीं होते हैं, ऐसा स्मृतिकार नारद का वचन है।

वाग्व्यवहारादर्श, याज्ञवल्क्य स्मृति एवं अग्निपुराण आदि का शासकों के प्रति आदेश है कि –

अवरुद्धासु दासीषु भुजिष्यासु तथैव च।
गम्यास्वपि पुमान्दाप्यः पञ्चाशत् पणिकं दमम्॥

जिन स्त्रियों को बंधक (जेल आदि में) बनाया गया हो, जो स्त्रियां दासी हों, जो स्त्रियां (प्रमुखतः वेश्याएं) किसी और के उपभोग लिए पहले से नियुक्त हों, (अथवा जिनका विवाह आदि किसी और के साथ निश्चित हो), उनका उपभोग करने वाले व्यक्ति को पचास पण का दण्ड राजा दे। (यहां पर किसी जाति, वर्ण ये चमड़ी के रंग की बात नहीं है, सबों के लिए यह नियम है। किंतु विदेशों की स्लेवरी में ऐसा नहीं था)

Free or white women could charge their perpetrators with rape, but slave women had no legal recourse; their bodies legally belonged to their owners.

(Reference – Block, Sharon. “Lines of Color”, 137.)

स्वतन्त्र या गोरी स्त्रियां अपने अत्याचारियों पर बलात्कार का कानूनी आरोप लगा सकती थीं, किन्तु काली और गुलाम स्त्रियों के पास ऐसा कोई कानूनी अधिकार नहीं था, क्योंकि उनके शरीर पर उनके मालिकों के संवैधानिक अधिकार था।

अंग्रेज, अरबी, रोमन, पुर्तगाली, अमरीकी आदि के यहां तो यह बात थी ही, ऐसे लोग जहां जहां गए, वहां वहां इस पाप को फैलाते गए। और जब भारत में वे अधिक सफल न हुए तो काले गोरे के आधार पर आर्य, द्रविड़, दलित, सवर्ण का द्वेषबीजारोपण कर दिया। स्वयं शिक्षा पर प्रतिबंध लगाने वाले लोगों ने शूद्रों को भ्रमित किया कि शूद्रों को ब्राह्मण शिक्षा देने से रोकते थे। इस बात के अधिक विवेचन के लिए “शूद्र कौन थे – अवलोकन एवं समीक्षा” में डॉ त्रिभुवन सिंह के द्वारा दिये गए ऐतिहासिक दस्तावेज के प्रमाणों से आप यह जान सकते हैं कि कैसे अंग्रजों के आने से पहले तक भारतीय गुरुकुलों में शूद्र छात्रों की संख्या ब्राह्मण छात्रों से कई गुणा अधिक थी।

आज भी जहां जहां सनातन धर्म का बाहुल्य नहीं है, दूर के देशों की बात रहने भी दें तो कल तक के भारतीय अंश, पाकिस्तान और बांग्लादेश में ही देखें कि प्रतिदिन सैकड़ों हिन्दू लड़कियों को अगवा करके उनपर बलात्कार किये जाते हैं। उनकी धूर्तता देखिये, उनके ही कानूनों से –

१) यदि कोई मुसलमान किसी गैर मुसलमान यानी काफिर लड़की से बलात्कार करता है, तो उसे बलात्कार माना ही नहीं जाएगा, क्योंकि काफिरों की स्त्री, सम्पत्ति के उपभोग का जन्मसिद्ध अधिकार मुसलमान का होता है।

२) यदि लड़की चार मुसलमान गवाह अपने समर्थन में खड़ी न कर सके तो उसपर किया गया बलात्कार सिद्ध नहीं होगा, भले ही उस बलात्कार के साक्षी सैकड़ों गैर मुसलमान लोग क्यों न हों।

३) यदि किसी को चार मुसलमान खड़े होकर कहें कि उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया है, तो उस व्यक्ति को मुसलमान मान लिया जाएगा।

४) एक बार इस प्रकार से मुसलमान सिद्ध हो जाने पर यदि वह व्यक्ति इससे इंकार करता है तो उसपर कुफ्र का आरोप लगाकर मृत्युदण्ड दिया जाएगा।

अब देखिए, पहले तो हिन्दू लड़की पर बलात्कार हुआ, ऐसा कोई केस बनेगा ही नहीं। यदि बन भी गया तो यदि वह लड़की इसके प्रमाण में चार मुसलमान गवाह नहीं ला सकी तो केस निरस्त हो जाएगा, वैसे भी ऐसे मामलों में एक मुसलमान दूसरे मुसलमान के विरुद्ध गवाही नहीं देता। फिर बलात्कारी और उसका परिवार मिलकर लड़की को, भले ही वह अगवा की गई हो, मुसलमान घोषित कर देता है, और इसके बाद यदि वे लड़की इससे इंकार करती है, तो उसे मार दिया जाता है। इन्हीं विचारधारा के इस्लाम और ईसाईयत के साथ हाथ मिलाकर वामपंथी षड्यंत्रकारी संस्थाएं, पैसा और हथियार के दम पर शूद्रों को ब्राह्मणों के विरुद्ध अफवाहों का आश्रय लेकर भड़काती हैं और देश को खंडित कर रही हैं। इन्होंने अपने यहां की स्लेवरी और गुलामी को हमारे यहां की दासप्रथा बताकर उस बात का आरोप हमारे धर्म पर लगा दिया जो हमने कभी न किया और न करने की सोची, उल्टे हमारे यहां दण्डनीय बताया गया है। हमारे शास्त्र कहते हैं –

विद्यादाताऽन्नदाता च भयत्राता च जन्मदः।
कन्यादाता च वेदोक्ता नराणां पितरः स्मृताः॥
………
भृत्यः शिष्यश्च पोष्यश्च वीर्य्यजः शरणागतः।
धर्मपुत्राश्च चत्वारो वीर्य्यजो धनभागिति॥

(ब्रह्मवैवर्त पुराण, गणपतिखण्ड, अध्याय – ०३)

विद्या देने वाला, आजीविका या अन्न देने वाला, भय के समय रक्षा करने वाला, जन्म देने वाला और कन्यादान करने वाला, इन्हें वेदों के अनुसार लोगों का पिता कहा गया है। ऐसे ही भृत्य (दास), शिष्य, जिसका हमने पालन किया है, जो हमारे वीर्य से उत्पन्न हुआ हो, अथवा हमारी शरण में आया हो, इनमें से जो वीर्य से उत्पन्न हुआ हो, उसे धन में उत्तराधिकारी पुत्र कहा गया है और शेष चारों को धर्मपुत्र कहा गया है। इसमें धर्मपुत्र के साथ भी (धन के उत्तराधिकार को छोड़कर) अपने बेटे जैसा ही व्यवहार होगा। (ध्यान रहे, धर्मपुत्र में भृत्य अर्थात् दास भी आता है और यदि उसने स्वामी की प्राणरक्षा की हो तो फिर धन में भी भाग लेने का अधिकारी हो जाता है)

जहां जहां शास्त्रों में राजा के लिए अपने दासों के प्रति कर्तव्य की बात आई है, वहां वहां राजा का अर्थ सामान्य स्वामी से भी लिया जा सकता है, क्योंकि नियम वही रहते हैं। स्वयं महारानी द्रौपदी का महारानी सत्यभामा के प्रति निम्न वचन देखें –

शतं दासीसहस्राणि कौन्तेयस्य महात्मनः।
कम्बुकेयूरधारिण्यो निष्ककण्ठ्यः स्वलंकृताः॥
महार्हमाल्याभरणाः सुवर्णाश्चन्दनोक्षिताः।
मणीन्हेम च विभ्रत्यो नृत्यगीतविशारदाः॥
तासां नाम च रूपंच भोजनाच्छादनानि च।
सर्वासामेव वेदाहं कर्म चैव कृताकृतम्॥
(महाभारत, वनपर्व, अध्याय – २३४, श्लोक – ४८-५०)

महात्मा कुन्तीपुत्र (युधिष्ठिर) की एक लाख दासियाँ थीं, जो अपने शंख के बने हुए बाजूबंद एवं कंठ में सोने के हार धारण करके अलंकृत रहती थीं। बहुत सी बहुमूल्य मालाओं को धारण करने वाली, सुंदर वेश भूषा से युक्त, चंदन आदि से अलंकृत, सोने और मणियों से चमकती हुई, नृत्य-गीत आदि में कुशल थीं। मैं (द्रौपदी) उन सभी दासियों के नाम, रूप, भोजन, आवास आदि की व्यवस्था को जानते हुए उनके द्वारा कौन सा कार्य किया गया है, और कौन सा नहीं, इसका ध्यान रखती थी।

बालानामथ वृद्धानां दासानां चैव ये नराः।
अदत्त्वा भक्षयन्त्यग्रे ते वै निरयगामिनः॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय – ६२, श्लोक – ३८)

जो लोग बालकों को, वृद्धों को एवं दासों को बिना (भोजन) दिए ही, स्वयं भोजन कर लेते हैं, वे नरक में जाते हैं। (क्या आप विदेशी स्लेवरी या गुलामी में इस उदारता की कल्पना कर सकते हैं ?)

शास्त्रों में यदि अपना पुत्र भी शास्त्रोक्त संस्कार से हीन हो, तो वह दास ही है, ऐसा उल्लेख है।

चूडाद्या यदि संस्कारा निजगोत्रेण संस्थिताः।
दत्ताद्यास्तनयास्तेस्युरन्यथा दास उच्यते॥
(कालिका पुराण, और्वनीति, अध्याय – ८८, श्लोक – ४०)

हे महाराज (सगर !) अपने (पिता) के गोत्र से जिसका मुंडन आदि संस्कार सम्पादित हुआ है, वही पुत्र/तनय कहाता है, अन्यथा दास कहाता है।

शूद्रः पैजवनो नाम सहस्राणां शतं ददौ।
ऐन्द्राग्नेन विधानेन दक्षिणामिति नः श्रुतम्॥
(महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय – ५९, श्लोक – ४०-४२)

पैजवन नामक शूद्र ने ऐन्द्राग्नेय विधान से यज्ञ करके एक लाख दक्षिणा दी थी, ऐसा हमने सुना है।

यहां ध्यातव्य है कि यह विधान पाकयज्ञ का है, जिसमें वेदमन्त्रों का, स्वाहाकार, आदि का प्रयोग नहीं होता है।

ब्रह्मयज्ञादन्ये पञ्चमहायज्ञान्तर्गता वैश्वदेव-होमबलिकर्म्मनित्यश्राद्धातिथिभोजनात्मकाश्चत्वारः पाकयज्ञाः।

ब्रह्मयज्ञ के अतिरिक्त जो पञ्चमहायज्ञ में वैश्वदेव बलिकर्म, होम, नित्यश्राद्ध, अतिथिभोजन आदि चार हैं, वे पाकयज्ञ कहाते हैं। इसमें द्विजाति के लिए समन्त्रक एवं शूद्र के लिए अमन्त्रक विधान है। यह पैजवन नाम का शूद्र, परम् विष्णुभक्त था एवं इसने गालव ऋषि से धर्ममार्ग का ज्ञान प्राप्त किया था।

गुलाम और स्लेव के साथ विदेशों में जो व्यवहार के नियम बनाये गए थे, उनके उदाहरण तो आपने पढ़ ही लिए, अब सनातनी शास्त्र दासों के प्रति जो व्यवहार का निर्देश करते हैं, उसका उदाहरण देखें –
दासं शपेन्न वै क्रुद्धः सर्वबन्धूनमत्सरी।
भीताश्वासनकृत्साधुः स्वर्गस्तस्याव्ययं फलम्॥
(भविष्य पुराण, उत्तरपर्व, अध्याय – २०५, श्लोक – १३२)

क्रोधित होकर दासों को श्राप न दे, किसी के प्रति ईर्ष्या का भाव न रखे। डरे हुए व्यक्ति को सांत्वना देने से अक्षय स्वर्गसुख को देने वाले फल की प्राप्ति होती है। (श्राप का अर्थ केवल चमत्कारी दण्ड नहीं होता है, शब्दकोषों में श्राप का अर्थ क्रोध, आक्रोश आदि भी बताया गया है।)

जब लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद श्रीराम जी की आज्ञा से हनुमानजी अशोक वाटिका में जाकर सीताजी को यह शुभ समाचार देते हैं, तब उन्होंने विचार किया कि क्यों न साथ ही, सीताजी पर अत्याचार करने वाली इन राक्षसियों को भी दो चार हाथ लगा ही दिया जाय !! तब सीताजी ने उन्हें ऐसा करने से रोकते हुए कहा,

राजसंश्रयवश्यानां कुर्वन्तीनां पराज्ञया ।
विधेयानां च दासीनां कः कुप्येद्वानरोत्तम॥
भाग्यवैषम्ययोगेन पुरा दुश्चरितेन च ।
मयैतत् प्राप्यते सर्वं स्वकृतं ह्युपभुज्यते॥
प्राप्तव्यं तु दशा योगान्मयैतदिति निश्चितम् ।
दासीनां रावणस्याहं मर्षयामीह दुर्बला॥
आज्ञप्ता रावणेनैता राक्षस्यो मामतर्जयन्।
हते तस्मिन्न कुर्युर्हि तर्जनं वानरोत्तम॥

(वाल्मीकीय रामायण, लंकाकाण्ड, अध्याय – ११६, श्लोक – ३९-४२)

सीताजी कहती हैं – हे वानरश्रेष्ठ ! राजा के ऊपर आश्रित रहने वाली, दूसरों की आज्ञा का पालन करने वाली इन दासियों पर भला कौन क्रोध करेगा ? मेरे साथ जो हुआ, पूर्व में मैंने जो दुश्चरित्र (स्वर्गमृग का लोभ, एवं निरपराध लक्ष्मण के प्रति द्वेष) किया, मैंने तो अपने कर्म का ही फल भोगा है। उसके ही कारण मुझे यह दशा प्राप्त हुई है, ऐसा निश्चित है। इसीलिए मैं रावण की इन दासियों को क्षमा करती हूँ। रावण की आज्ञा से ही ये मुझे डांटती रहती थीं, अब रावण के मरने पर, हे वानरोत्तम ! तुम इन्हें मत मारो।

शत्रु की दासियों के भी प्रति ऐसी उदारता सनातनी मर्यादा ही सिखा सकती है। सीताजी ने अपने राज्यकाल में भी, सार्वजनिक रूप से यह उद्घोषणा करवा दी थी कि “कोई भी स्त्री, चाहे किसी भी वर्ग से हो, दरिद्रता के कारण शृंगारहीना न रहे। जिसके पास आभूषण न हों, वह राजकोष से ले जाये। अन्य देशों के राजा भी इस नियम का पालन अवश्य करें”।

भारतीय समाज में दास-दासियों को अपने परिवार के सदस्य की तरह रखा जाता था, आज भी बहुत से धर्मनिष्ठ घरों के लोग अपने नौकरों के साथ परिवार जैसा ही व्यवहार करते हैं। यही कारण है कि दास के मरने पर स्वामी को, और स्वामी के मरने पर दास को भी परिवार वालों की ही भांति सूतक लगता है। पहले पुत्री के विवाह के बाद भी (आधुनिक शब्द में दहेज आदि के रूप में) दास दासियाँ भेंट की जाती थीं, उनपर भी स्वामिनी के मरने पर परिवार वालों के ही समान अशौच एवं शुद्धि आदि लागू होते थे।

मृतसूते तु दासीनां पत्नीनां चानुलोमिनाम्।
स्वामितुल्यं भवेच्छौचं मृते स्वामिनि यौनिकम्/यौतुकम्॥
(देवलस्मृति) (ऐसा ही मत विष्णुधर्मोत्तरपुराण का भी है)

महारानी चित्रांगदा के वचन का उदाहरण देते हुए महर्षि और्व उपदेश देते हैं –

अनाथस्य नृपो नाथो ह्यभर्तुः पार्थिवः पतिः।
अभृत्यस्य नृपो भृत्यो नृप एव नृणां सखा।
(कालिका पुराण, अध्याय – ५१, श्लोक – ३१)

जिसका कोई स्वामी नहीं है, उसका स्वामी राजा होता है। जिसका भरण पोषण करने वाला कोई नहीं होता, उसका भरण पोषण राजा करता है। जिसका कोई सेवक नहीं होता, उसकी सेवा राजा करता है, एवं मनुष्यों का मित्र राजा ही होता है। (तात्पर्य है कि राजा को स्वामित्व, भरण पोषण, सेवा और मित्रता, हर प्रकार से प्रजा का पालन करना चाहिए)

क्या विदेशी राजतंत्र अथवा स्लेवरी, गुलामी में ऐसी बात की कल्पना भी की जा सकती है ? उससे भी पहले का वाक्य देखें –

अपुत्रस्य नृपः पुत्रो निर्धनस्य धनं नृपः।
अमातुर्जननी राजा ह्यतातस्य पिता नृप:॥
(कालिका पुराण, अध्याय – ५१, श्लोक – ३०)

जिसका कोई पुत्र नहीं, उसका पुत्र राजा होता है, जिसके पास कोई धन नहीं, उसका धन राजा होता है, जिसकी कोई माता नहीं, राजा उसकी माता है एवं जिनके पिता नहीं हैं, राजा ही उनका पिता होता है। (तात्पर्य यह है कि पुत्र बनकर, आर्थिक बल बनकर, माता और पिता के समान कर्तव्य निभाते हुए एक राजा अपनी प्रजा का पालन करे)

अनुरूपाणि कर्माणि भृत्येभ्यो यः प्रयच्छति।
स भृत्यगुणसंपन्नं राजा फलमुपाश्नुते॥
(महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय – ११९, श्लोक – ०४)

जो अपने भृत्यों को उनके (क्षमता के) अनुरूप कार्यों में लगाता है, वह राजा भृत्य के गुण से सम्पन्न फल को प्राप्त करता है।

स्वयं राजा दशरथ के दिवंगत होने पर भगवान् श्रीराम भरतलाल जी को आश्वासन देते हुए कहते हैं –

भृत्यानां भरणात् सम्यक् प्रजानां परिपालनात् ।
अर्थादानाच्च धर्मेण पिता नस्त्रिदिवं गत:॥
(वाल्मीकीय रामायण, अयोध्याकाण्ड, अध्याय – १०५, श्लोक – ३३)

भृत्यों के भली प्रकार भरण पोषण से, प्रजा का अच्छे से पालन करने से और सार्थक दान आदि से अर्जित धर्म के कारण हमलोगों के पिता स्वर्ग गए हैं।

किन कर्मों से व्यक्ति स्वयं स्वर्ग जाता है, इसका एक उदाहरण देखें –

परपीडामकुर्वन्तो भृत्यानां भरणादिकम्।
कुर्वन्ति ते सुखं यान्ति विमानैः कनकोज्ज्वलैः॥
(ब्रह्मपुराण, अध्याय २१६, श्लोक – ५९)

दूसरों को कष्ट न पहुंचाते हुए, अपने भृत्यों का भरण पोषण करते हुए, व्यक्ति स्वर्ण के समान देदीप्यमान विमानों के माध्यम से स्वर्गलोक को जाता है।

ऐसा नहीं है कि सनातनी शास्त्र केवल यह कहते हैं कि पुरुषों को ही अपने दासों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए, अपितु यही नियम स्त्रियों के लिए भी है। ब्रह्माजी कहते हैं –

एवमाराध्य भर्तारं तत्कार्येष्वप्रमादिनी।
पूज्यानां पूजने नित्यं भृत्यानां भरणेषु च॥
गुणानामर्जने नित्यं शीलवत्परिरक्षणे।
प्रेत्य चेह च निर्द्वन्द्वं सुखमाप्नोत्यनुत्तमम्॥
(भविष्य पुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय – १४, श्लोक – ३१-३२)

इस प्रकार पति की आराधना करके, उनके कार्यों में आलस्य न करते हुए, पूजनीय व्यक्तियों (या देवताओं का) पूजन करते हुए, भृत्यों का भरण पोषण करते हुए, अपने गुणों का संग्रह और शील (चरित्र, सदाचरण) के समान रक्षा करते हुए, वह (स्त्री) यहां भी सुखी रहती है और मरने के बाद भी दिव्य सुख को प्राप्त करती है।

विदेशों में बड़े बड़े राजा भी गुलामों के साथ जिस क्रूर कार्य को करने में, “यह पाप है”, ऐसी सामान्य मानवीय बुद्धि तक नहीं रखते थे, उनसे श्रेष्ठ बुद्धि तो हमारे यहां सनातन धर्म की मर्यादा के अनुसार रहने वाले चाण्डालों की होती थी। भारत के चाण्डाल भी, विदेशी क्रूरकर्मा राजाओं की तुलना में अधिक सभ्य थे।

अवन्ती नाम नगरी बभूव भुवि विश्रुता।
तत्राऽऽस्ते भगवान्विष्णुः शङ्खचक्रगदाधरः॥
तस्या नगर्याः पर्यन्ते चाण्डालो गीतिकोविदः।
सद्‌वृत्त्योत्पादितधनो भृत्यानां भरणे रतः॥
(ब्रह्मपुराण, अध्याय – २२८, श्लोक – ०८-०९)

अवन्ती नामक प्रसिद्ध नगरी, जहां शंख, चक्र और गदाधारी भगवान् विष्णु का वास है, उस नगरी के किनारे संगीत में कुशल एक चाण्डाल रहता था, जो अच्छे कर्मों के द्वारा धन कमाता था एवं अपने भृत्यों का भरण पोषण करता था।

धर्मशास्त्रों के उपदेष्टा ऋषिगण भी इस मर्यादा का पालन करते थे। आचार्य मेधातिथि कहते हैं –

बंधूनां सुहृदां चैव भृत्यानां स्त्रीजनस्य च॥
अव्यक्तेष्वपराधेषु चिरकारी प्रशस्यते॥
(स्कन्दपुराण, माहेश्वर-कौमारिकाखण्ड, अध्याय ०६, श्लोक – १२६)

अपने सगे सम्बन्धी, शुभचिंतक, भृत्य (दास या सेवक) एवं स्त्रियों पर किसी अपराध का संदेह हो (बिना प्रमाण के ही, केवल आशंका हो) तो उनपर क्रोध करने में देरी करने वाला व्यक्ति प्रशंसनीय है।

निंदनीय कर्मों में, जिन्हें करने से पाप की प्राप्ति होती है, उनके वर्णन का एक उदाहरण देखें –

भृत्यानां च परित्यागः साधुबंधुतपस्विनाम्॥
गवां क्षत्रियवैश्यानां स्त्रीशूद्राणां च ताडनम्॥
यो भार्यापुत्रमित्राणि बालवृद्धकृशातुरान्॥
भृत्यानतिथिबंधूंश्च त्यक्त्वाश्नाति बुभुक्षितान्॥

(स्कन्दपुराण माहेश्वर-कौमारिकाखण्ड, अध्याय – ४१, श्लोक ४७ एवं ६७)

अपने भृत्यों के परित्याग से पाप लगता है, साधु, कुटुम्बी, तपस्वी, गाय, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र आदि को मारने से पाप लगता है। जो व्यक्ति अपनी पत्नी, पुत्र, मित्र, अन्य बालक, वृद्ध, दुर्बल, मरणासन्न, भृत्य (दास या सेवक), अतिथि एवं कुटुम्बी आदि भूखे व्यक्तियों को छोड़कर स्वयं भोजन करता है ( उसे भी पाप लगता है)

क्या आप सोच सकते हैं कि जहां छोटे गुलाम बच्चों को पीट पीट कर मार डाला जाता था, जहां उन्हें काम का वेतन भी नहीं मिलता था, बच्चियों पर बलात्कार होते थे और शिकायत करने पर उन्हें मृत्यु मिलती थी, वहां ऐसी उदारता सम्भव है ? नहीं, यह उदारता तो केवल भारत में ही संभव है। ऐसे ही महाभारत में जिस पुण्य के बल पर व्यक्ति बड़े बड़े संकटों को भी पार कर जाता है, उनके वर्णन का एक उदाहरण देखें –

ये क्रोधं संनियच्छन्ति क्रुद्धान्संशमयन्ति च।
न च रुष्यन्ति भृत्यानां दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥
(महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय – ११०, श्लोक – २१)

जो व्यक्ति अपने क्रोध को नियंत्रित रखता है और दूसरे के क्रोध को भी शांत करता है, जो अपने भृत्यों (दासों एवं सेवकों) पर क्रोधित नहीं होता, वह व्यक्ति बड़े बड़े संकटों को भी पार कर जाता है।

यह बात अवश्य है, कि स्वामी एवं दास के मध्य एक सन्तुलित मर्यादा होनी चाहिए। स्वामी के किये दास पर क्रोध करना, उसे पीटना आदि अधर्म है, इस बात का अनुचित लाभ न उठाया जा सके, इसलिए एक व्यवहार की और भी मर्यादा बताई गई है।

सम्प्रहासश्च भृत्येषु न कर्तव्यो नराधिपैः।
लघुत्वं चैव प्राप्नोति आज्ञा चास्य निवर्तते॥
भृत्यानां सम्प्रहासेन पार्थिवः परिभूयते।
अयाच्यानि च याचन्ति अवक्तव्यं ब्रुवन्ति च॥
पूर्वमप्यर्पितैर्लोभैः परितोषं न यान्ति ते।
तस्माद्भृत्येषु नृपतिः सम्प्रहासं विवर्जयेत्॥
(महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय – २१५, श्लोक – २१-२३)

अपने सेवकों से राजा (सामान्य सन्दर्भ में कोई भी स्वामी) हंसी मजाक न करे। इससे उसका महत्व घटता है और उनकी आज्ञा भी टाली जाने लगती है। जब राजा अपने भृत्यों के साथ हंसी ठिठोली करने लगता है, तब वे लोग अनुचित वस्तुओं की मांग करने लगते हैं, अनुचित वचन बोलने लगते हैं। पहले के लोभ के कारण उन्हें संतोष नहीं होता, इसीलिए राजा अपने दासों से हास परिहास न करे।

हां, इसका अर्थ नहीं है कि हंसी करने मना किया है तो राजा अत्याचार करने लगेगा। उसका भी निषेध है। साथ ही राजा को सदैव अपने राजकोष की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहने की बात नीति कहती है।

धर्महेतोः सुखार्थाय भृत्यानां भरणाय च।
आपदर्थञ्च संरक्ष्यः कोषः कोषवता सदा॥
(वाचस्पत्यम् में ग्रंथान्तर)

धर्मपालन के लिए, सुखप्राप्ति के लिए, अपने भृत्यों के भरण पोषण के लिए एवं आपत्तिकाल में काम आने के लिए कोषपति, अपने खजाने की रक्षा करे।

हमारे यहां तो दासों के साथ जो नियमभेद हैं सो तो समझ ही रहे हैं, किन्तु विदेश में तो दास थे नहीं, वहां तो स्लेव और गुलाम आदि थे। उन्हें वेतन भी नहीं मिलता था, जबकि दास शब्द की परिभाषा ही उसे वेतन और उसमें समयानुसार वृद्धि का अधिकार देती है। गुलामों साथ ऐसा आदर्श व्यवहार होता नहीं है, किन्तु भारत में दासों के लिए जो नियम मैंने अभी तक बताए, उनका पालन राक्षसों के यहां भी होता था। जहां म्लेच्छ देश में बड़े बड़े लोगों के गुलाम भी अत्यंत दीन हीन अवस्था में रहते थे, वहीं भारत में या सनातन मर्यादा के राक्षसों तक में दास दासियों को पर्याप्त आभूषण आदि दिए जाते थे। एक उदाहरण देखें, जो रावण सीताजी से कह रहा है –

पंच दास्यः सहस्राणि सर्वाभरणभूषिताः।
सीते परिचरिष्यन्ति भार्या भवसि मे यदि॥
(वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकाण्ड, अध्याय – ४७, श्लोक – ३१)

हे सीते ! यदि तुम मेरी (रावण की) पत्नी बन जाती हो तो सभी प्रकार के आभूषणों से सजी हुई पांच हज़ार दासियाँ तुम्हारी सेवा करेंगी।

विदेशों में गुलामों के साथ जैसी क्रूरता होती थी, उससे कई गुणा अच्छा व्यवहार हमारे यहां के राक्षस अपने दास दासियों से करते थे।

यज्ञ में, विवाह में, उत्सव आदि में जब दास दासियों को दान दिया जाता था तो वे सुंदर सुंदर वस्त्र, मणि, आभूषण, सोने चांदी से सुशोभित रहती थीं, उनकी जीवनशैली का स्तर श्रेष्ठ था। बलराम जी के विवाह का, अथवा राजाओं के यज्ञादि के एक दो उदाहरण देखें –

विचित्रतरवर्णादि नानाभूषणभूषिताः ।
दास्यः शतसहस्रं च दासाश्च सुमनोरमाः॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड,अध्याय – ०२९, श्लोक – ०६)
तथा
दशलक्षं तुरङ्गाणां रथानां लक्षमेव च।
रत्नालंकारयुक्तानां दासीनां चापि लक्षकम्॥

(ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय – १०६, श्लोक – ०५)

सनातनी व्यवस्था में रहने वाले ऋषि हों, राजा हों, व्यापारी हों, चाण्डाल, राक्षस या वेश्या हों, सभी अपने दासों के साथ पुत्रवत् ही व्यवहार करते थे। शेष का उदाहरण तो दे चुका हूँ, एक वेश्या का उदाहरण भी देखें। मोहिनी नाम की वेश्या ने वृद्धावस्था में अपने कल्याण के लिए पूर्वकृत पापों का प्रायश्चित्त करने के उद्देश्य से सोचा कि सब धन सामग्री आदि ब्राह्मणों को दान करके वन में जाकर तपस्या करूँ।

श्रोत्रियेभ्यो ददाम्येतज्ज्ञानेनेति व्यचिंतयत्।
विचिंत्येति समाहूता मोहिन्या नगरद्विजाः॥
नागतास्ते महीपाल ज्ञात्वा घोरं प्रतिग्रहम्।
यदा तदा द्विभागं च चक्रे तत्तु धनं स्वकम्॥
एको भागस्तु दासीनां दत्तोन्यश्च विदेशिनाम्।
स्वयं तु निर्द्धना राजन्नभवत्सा तु मोहिनी॥
तथा समागतं मृत्युं विज्ञायांतिकमंतिके।
मुक्त्वा दास्यो धनं नीत्वा यथेष्टगतयोऽभवत्॥

(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय – २२०, श्लोक – ३१-३४)

मैं वेदज्ञानसम्पन्न ब्राह्मणों को धन का दान कर दूंगी, ऐसा विवेकपूर्ण निर्णय लेकर मोहिनी ने नगर के ब्राह्मणों को निमंत्रण दिया। किन्तु, वेश्या के धन का दान लेने से घोर प्रतिग्रह दोष लगेगा, यह सोचकर कोई भी ब्राह्मण नहीं आया। तब मोहिनी ने अपने धन के दो विभाजन किये, जिसमें एक भाग अपनी दासियों को दे दिया, और दूसरा भाग अन्य विदेशियों को दे दिया। (ब्राह्मण मना कर चुके, क्षत्रिय दान लेते नहीं, वैश्यों को आवश्यकता नहीं, सो सारा धन दासियों को और विदेशियों को दे दिया) इस प्रकार से वह मोहिनी बिल्कुल ही निर्धन हो गयी। अपनी मृत्यु को निकट जानकर, अंतकाल में उसने अपनी दासियों को सेवामुक्त कर दिया, और वे दासियाँ भी धन लेकर इच्छानुसार चली गईं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि “दास” शब्द संस्कृत का है, भारतीय समाज में, सनातनी शास्त्रों में इसका वर्णन मिलता है। इसका पर्याय भृत्य, सेवक, किंकर आदि शब्दों से भी प्राप्त होता है। इस शब्द की क्या परिभाषा है, दास और स्वामी का क्या सम्बन्ध होना चाहिए, क्या मर्यादा है, इनका उल्लेख भी सनातनी शास्त्रों में ही प्राप्त हो सकता है, अन्यत्र नहीं। फिर विदेशियों के स्लेवरी या गुलामी की तुलना या उसका अनुवाद हम भारत में दासप्रथा शब्द से कैसे कर सकते हैं ? वह क्रूरता, वह अमानवीय अत्याचार तो हमारे देश की संस्कृति का अंश ही नहीं है। हम तो यह सोच भी नहीं सकते कि केवल काम से लौटते समय देरी होने मात्र से हम किसी गर्भवती स्त्री को पीट पीट कर मार दें ! इसीलिए हमारे यहां स्लेवरी या गुलामी के पर्याय के रूप में कोई शब्द ही नहीं बना। दास, किंकर और भृत्य आदि शब्द की परिभाषा एवं व्यवहार नियमावली देखने से यह भेद स्पष्ट होता है। जिन लोगों ने ऐसी क्रूरता की, और जो आज भी कई प्रारूपों में इसे कर रहे हैं, उन देशों में उद्भूत एवं समर्थित, लाल झंडे, हरे झंडे एवं क्रॉस वाले लोग हमारे देश में आकर स्वयं के किये गए अत्याचारों के आरोप हमपर लगाएं, हमारे ही लोगों को हमारे विरुद्ध भड़काएं तो हम कब तक चुप रह सकते हैं ? हां, यह सत्य है कि मुगलों और अंग्रेजों के कार्यकाल में कुछ उच्चस्तरीय लोगों ने भेदभावपूर्ण अत्याचार किया है, किन्तु यह उनकी निजी दुष्टता थी, जिसका समर्थन शास्त्र या समाज नहीं करता है। यही कारण है कि सनातनी शास्त्रों में अथवा अंग्रेजों के ही लिखे गये विकृत इतिहास में भी आपको यह उद्धरण कहीं नहीं मिलेगा कि किसी राजा या ब्राह्मण ने किसी शूद्र की गर्भवती स्त्री को पीट पीट कर मार डाला। व्यक्तिगत रूप से पापी एवं धर्मात्मा लोग तो अब सभी वर्णों में हो गए हैं, किन्तु शास्त्रीय निर्देशों के अनुसार चलने वाला ही वास्तव में भारत के सत्य को प्रकाशित करता है, जिसमें दास तो हैं, किन्तु गुलाम या स्लेव नहीं।

(मैंने जानबूझकर स्लेवरी गुलामी के एक भी ऐतिहासिक चित्र संलग्न नहीं किये हैं क्योंकि उन्हें देखना भी बहुत मानसिक आघात पहुंचाता है)
नकल छाप