जीवनलक्ष्य नहि धनपदवी
केवल संस्कृतमातु सेवा
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वटवृक्ष का बीज राई से भी छोटा होता है किन्तु उस बीज से जो स्फूर्ति होती है। जो महद् आकांक्षा होती है, उसके कारण वह बढते बढते प्रचण्ड वटवृक्ष का रुप ले लेता है जिसके नीचे गौओं का सहस्र झुण्ड सुस्ताते हैं। धूप से त्रस्त लोगों को वह वटवृक्ष छाया प्रदान करता है।
एक महद् आकांक्षा हमें भी सजौने दो। इस जगत मैं हम संस्कृत भाषी के नाते सिर उठा कर जीवन जीना चाहते हैं। सम्पूर्ण भारत फिर से संस्कृत भाषा बोलें। संस्कृत भाषा पुनः जन व्यवहार की भाषा बनें। यही मेरी और प्रत्येक संस्कृतप्रेमी की महद् आकांक्षा है।
यह महद् आकांक्षा सफल सिद्ध हो यही मेरे जीवन की इच्छा है। निश्चयेन मेरी यह महद् आकांक्षा सफल सिद्ध होगी।
इसी आकांक्षा को पूरित करने के लिए जीवन भर प्रयत्नरत हुं। बिना यश,पद, धन, लिप्सा के। इस संघर्षमय राह में क ईं साथी मिले जिन्होंने इस महद् आकांक्षा को पूरित करने में अथक सहयोग दिया और
क ईं साथी अपने स्वार्थ और स्वार्थप्रेरित, कुत्सित राजनीति के कारण इस राह के रोडे बनें।
परन्तु फिर भी संस्कृतभाषा को पुनर्प्रतिष्ठित करने का यह जीवन यज्ञ निरन्तर चलता रहा, चलता रहेगा, चरैवेति चरैवेति की कामना के साथ......।
आइए संस्कृतमाता के पुनर्प्रतिष्ठित करने के इस यज्ञ में आप हमारे सहयोगी बनें।