अनुराग पाठक जी के धूम मचाने वाले उपन्यास ट्वेल्थ फेल हारा वही जो लड़ा नहीं पढ़ा लेकिन इतने सहज सरल प्रभावोत्पादक उपन्यास के बारे में लिखने के लिए शब्दों का टोटा पड़ जा रहा था।
मुरैना जिला मुख्यालय से तीस किलोमीटर दूर जौरा तहसील से सटे गाँव बिलग्राम का युवा लड़का मनोज एक आम देहाती विद्यार्थी है जो इलाके विशेष की रवायत के अनुसार हर साल नकल करके पास होते ट्वेल्थ में पहुंच गया है। इस वर्ष परीक्षा में नकल रुकवा दी गई है और इसका खामियाजा उस बैच के अधिकतर लड़कों को उठाना पड़ता है। वे ट्वेल्थ में फेल हो जाते हैं लेकिन नकल रुकवाने आये एसडीएम दुष्यंत सिंह का रुआब देखकर मनोज हैरान हो जाता है। बचपन से जवान होने तक भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों और सिस्टम को देखता आ रहा मनोज उनसे इस कदर प्रभावित होता है कि उसके अंदर कुछ करने कुछ बनने की इच्छा जाग्रत हो जाती है। लेकिन दिक्कत यह है कि करे क्या कैसे कहीं कोई राह दिखाने वाला नहीं है।
निम्न मध्यम वर्ग के जीवन में लड़कों के जवान होते ही परिवार को उनके कमाने की आस होती है और लड़के भी जानते हैं कि जहाँ जैसे हो बस पैसा ही पेट की आग बुझा सकता है और इस आग में सारे सपने जल कर भस्म हो जाते हैं। एक के एक एक ऐसे वाकये होते हैं कि मनोज दुष्यंत सिंह के संपर्क में आता है और कुछ बनने की इच्छा जोर मारती है। एक बारहवीं फेल लड़के की जिंदगी इतनी आसान नहीं होती। गांव से दिल्ली के मुखर्जी नगर में संघर्ष करते हुए आईपीएस बनने तक के सफर की कहानी ट्वेल्थ फेल इतने सारे आयामों को समेटे हुए है कि सभी को पकड़ते हुए भी कुछ न कुछ छूट जाने का डर है।
सबसे पहले देश की शिक्षा व्यवस्था का पर्दाफाश करती कहानी अयोग्य और काहिल सरकारी अध्यापकों को देश की कई कई पीढ़ियों को बर्बाद करती उनके आँखों में सपने भरने के बजाए नाउम्मीदी भरती उनमें न जीवन की समझ विकसित कर पा रही है और न ही उन्हें किसी काबिल बना पा रही है। बरसों बरस सरकारें बिना जमीनी जाँच करवाए पैसा बहा रही हैं शायद वे भी नहीं चाहती कि इन युवाओं में समझ विकसित हो क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो वे बरगला कर हथियाने वाला वोट बैंक खो देंगे। ऐसे में एक जोड़ी मासूम लेकिन चौकस आँखें मनोज की आँखें एक सपना देखने लगती हैं।
मनोज के विद्यार्थी से टेंपो चालक बनने तक यह सपना सुप्त रूप में पड़ा रहता है। इसी बीच गांव में दबंगई एसएचओ की गुंडागर्दी वर्चस्व की महत्वाकांक्षा में किसी के अवसर कुचलने की चालें असली गाँवों की तस्वीर दिखाती हैं। गाँधीजी ने ग्राम स्वराज्य की अवधारणा में ऐसे गाँवों का सपना तो कदापि नहीं देखा होगा जिसमें हर गांव घटिया राजनीति जाति पाति के खेल का अखाड़ा बन गया है। ऊंची जाति का अभिमान नीची जाति पर कटाक्ष जैसी चीजें नेपथ्य में चलती रहती हैं।
मनोज गणित विषय छोड़कर इतिहास और हिंदी साहित्य लेकर ट्वेल्थ पास करता है और बीए करने ग्वालियर चला आता है।
एक बार फेल होने का तमगा गले में पड़ जाये तो फिर उसे कभी उतारा नहीं जा सकता। गांव से ग्वालियर वहाँ से दिल्ली और फिर आईएएस के इंटरव्यू तक में मनोज को बार बार अहसास करवाया जाता रहा कि वह ट्वेल्थ फेल है। अपने लक्ष्य को पाने के लिए जद्दोजहद करते मनोज को इस निराशा से भी जूझना था और इसमें उसकी मदद करने वाले कम पढ़े लिखे राकेश और त्यागी जैसे लोग आसपास उपस्थित हैं जो हर निराशाजनक बात या घटना का सकारात्मक पहलू देख कर मनोज को दिखाते हैं और उसे निराशा में जाने से रोकते हैं।
पिता की गांव से दूर पोस्टिंग उनका महीनों घर न आना उनकी ईमानदारी के चलते बार-बार नौकरी में सस्पेंड होना कोर्ट केस चलना और आर्थिक तंगी से परिवार का बदहाल होते जाना एक निम्न वर्ग परिवार की परेशानियों से रूबरू करवाता है। ऐसे समय में घर की स्त्री मनोज की माँ ही हर मोर्चे पर डटी रहती है। वह जिस तिस तरह पैसों का इंतजाम कर अपने बेटे की आँखों में उग आये सपने के अंकुर को बचाने के लिए सब कुछ करती है। कहानी में बिना महिमामंडन किये माँ की इस दृढ़ता को जिस तरह उभारा है वह वास्तविकता है। भारतीय समाज में कुछ न होते हुए भी महिलाओं की यही दृढ़ता जिजीविषा परिवार को संभाले रखती है और इस के बारे में कहीं कोई चर्चा नहीं होती और न ही ये स्त्रियाँ इस चर्चा की कोई उम्मीद रखती हैं।
उपन्यास बेहद सरल तरीके से भारतीय मानस में व्याप्त सुपीरियरिटी कांप्लेक्स को उजागर करता है फिर चाहे वह पारिवारिक आर्थिक स्थिति हो परीक्षा में अच्छे अंक हों या इंग्लिश का ज्ञान। दरअसल मूल कहानी के साथ इन छोटी-छोटी मगर महत्वपूर्ण डिटेलिंग के कारण यह उपन्यास न सिर्फ रोचक हो जाता है बल्कि विश्वसनीय भी और मानसिकता के पड़ताल का अनूठा दस्तावेज बन जाता है।
पंडितजी विष्णु केशव पांडे हुकुमचंद जी जैसे तमाम चरित्र क्यों नकारात्मक हैं और क्या हासिल करते हैं किसी का बुरा करके यह चाह कर समझ नहीं आता लेकिन सही बात तो यह है कि यह नकारात्मकता हमारे चरित्रों में शामिल हो रही है। यह शायद हमारी व्यवस्था की खामियों भ्रष्टाचार अवसरों की कमी भविष्य की अनिश्चितता ही है जो हमारे युवा लगातार इस नकारात्मकता के शिकार हो रहे हैं। किसी को आगे बढ़ते देख कुछ हासिल करते देख खुशी के स्थान पर दुख ईर्ष्या हावी हो रही है। हमारी शिक्षा व्यवस्था युवाओं में यह धैर्य जिजीविषा और आश्वस्ति पैदा नहीं कर पा रही है और यह गंभीर चिंतन का विषय है।
दिल्ली के मुखर्जी नगर में पीएससी की तैयारी करते हुए मनोज के संघर्ष उससे उबरने के लिए किया गया संघर्ष पढ़ाई के लिए खुद खोजी गई राह के साथ साथ साथी दोस्तों की मदद तटस्थता और ईर्ष्या सभी का बेहद सरलता और सावधानी से जिक्र उपन्यास में है। शब्दों में परिवेश को जिस तरह जीवंत किया है कि पाठक पन्ने दर पन्ने उन्हीं गलियों सडकों पुलिया कोचिंग और किराये के कमरों में सोते जागते पढ़ते बतियाते लड़कों के साथ शामिल हो जाता है।
उपन्यास में सबसे सशक्त है प्रेम का अंदरूनी शक्ति बनना। आज का युवा जहाँ प्रेम को कमजोरी बना कर निराशा में जीवन हार जाता है उसी रास्ते पर मुड़ने के पहले श्रद्धा मनोज को पलटा लेती है और वह प्रेम को शक्ति बनाकर जुट जाता है अपने लक्ष्य प्राप्ति की ओर वहीं पांडे ईर्ष्या के कारण प्रेम को खोकर खुद खो जाता है। मनोज की दोस्त श्रद्धा जिस तरह अपने लक्ष्य को साधते हुए खुद का और मनोज का हौसला बढ़ाती है वह अंदर तक भिगोता है। प्रेम की असली ताकत उसका रूहानी होना है। जब प्रेम शरीर से परे एक-दूसरे को संबल देने लगे तभी उसकी सार्थकता है और आज के युवाओं को यह बात समझाने के लिए यह उपर्युक्त उपन्यास है।
हमारे देश में इंग्लिश की गुलामी से हमें अब तक आजादी नहीं मिली है और देश के भविष्य निर्माता तो अभी भी इस कदर इंग्लिश की मुग्धता में डूबे हुए हैं कि उनके आगे सोच विचार इच्छाशक्ति एकाग्रता की कोई कीमत ही नहीं है ऐसे लोगों को करारा जवाब है उपन्यास ट्वेल्थ फेल।
यह एक मनोज नहीं देश के करोड़ों मनोज की कहानी है। उनके संघर्षों को मुकाम तक पहुंचाने की यह कहानी आज के हर युवा को पढ़ाई जाना चाहिए।
मुझे नहीं पता कि यूनिवर्सिटी के कोर्स में कोई उपन्यास किस तरह शामिल किया जाता है लेकिन यह उपन्यास हर दृष्टि से सिलेबस में शामिल किया जाना चाहिए।
उपन्यास का कवर पेज कथावस्तु को जोरदार प्रतीक रूप में व्यक्त करता है। भाषा सहज सरल पात्रों के उपयुक्त है। अनावश्यक बौद्धिकता का कहीं कोई उपयोग नहीं है इसलिए उपन्यासकार तटस्थ नेरेटर की तरह हैं और अपनी बुद्धिजीविता का कोई खौफ पैदा नहीं करते। पात्रों की मानसिकता का चित्रण विश्वसनीय है और इसीलिए हर पात्र हमारे आसपास के दिखाई देते हैं और पाठक आसानी से उनसे जुड़ जाता है।
अनुराग पाठक जी को मेरी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं उन्होंने इस संघर्ष यात्रा को शब्दों में पिरोकर बहुत सारे मनोज को राह दिखाने की ईमानदार कोशिश की है।
कविता वर्मा