बेलुत्फ़ बाज़ियों के, किस्से हैं फ़ीके-फ़ीके!
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पाकिस्तान की हार ख़ुशी दे रही है। किंतु विश्वकप फ़ीका आग़ाज़ क्रिकेट से विरत कर रहा है। वर्तमान किसी भाव का अतिरेक करे तो भूतकाल ही एकमात्र औषधि है। और भूतकाल कहता है कि विश्वकप के आग़ाज़ फ़ीके ही होते हैं।
पाकिस्तान की हार क्रिकेट, खेल और इंसानियत के हक़ में है। विंडीज के खिलाड़ी बधाई के पात्र हैं। पाकिस्तान की हार के दूरगामी मायने, इस लेख के अंत में। किन्तु उससे पहले विश्वकप के फ़ीके आग़ाज़ों के इतिहास पर एक सम्यक् दृष्टि डालते चलें!
क्रिकेट मंच का खेल नहीं है, मैदान का खेल है। विश्वकप का मंचीय आगाज़ तो बेहतर बनाया जा सकता है, मगर मैदानी आगाज़ सदा संजोगों पर टिका रहा है। भले विश्वकप रोमांच के शिखर पर जा चढ़े, मगर अक्सर ही इस दुनिया ने विश्व के फ़ीके आगाज़ों को देखा है।
सन् पचहत्तर का प्रूडेंशियल कप, क्रिकेट की दुनिया का पहला विश्वकप था। कुल आठ टीम्स और एक माह का समय। इस विश्वकप का पहला मैच इंग्लैंड और भारत के बीच खेला गया। इतना बोरिंग मैच, दूसरा कोई नहीं! कमसकम भारतीय परिप्रेक्ष्य से तो ये बोरिंग ही था।
पहले बल्लेबाजी करने उतरे अंग्रेजों ने एमिस के एक सौ सैंतीस और फ्लेचर के अड़सठ रनों की बदौलत, भारत को साठ ओवर में तीन सौ पैंतीस रन का लक्ष्य दिया। प्रत्युत्तर में, भारतीय टीम पूरे साठ ओवर खेल कर, महज एक सौ बत्तीस रन ही बना सकी। उस मैच को याद करते हुए गावस्कर कहते हैं कि मैं आउट होना चाहता था मगर अंग्रेज़ मेरा कैच नहीं ले रहे थे, स्टम्पिंग नहीं कर रहे थे, रन आउट नहीं कर रहे थे। वे येन-केन-प्रकारेण भारत के टॉप ऑर्डर को ही क्रीज़ पर रखना चाहते थे। और यही हुआ! गावस्कर ने लगभग पौने दो सौ गेंद खेल कर छत्तीस रन बनाए। जिसमें कि केवल एक चौका था।
पूरी भारतीय टीम, एक भी छक्का न लगा सकी थी!
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दूसरा विश्वकप, यानी कि दूसरा प्रूडेंशियल कप इतना बोरिंग था कि कोई भी टीम तीन सौ आँकड़ा न छू सकी थी। इस कीर्तिमान वाला, इकलौता वर्ल्डकप है ये!
इसका आग़ाज़ भारत और वेस्ट-इंडीज़ की राइवलरी के साथ हुआ। गावस्कर-कपिल-वेंगसरकर का भारत बनाम रिचर्ड्स-गार्डन ग्रीनिज की विंडीज। पहले बल्लेबाज़ी करने उतरी भारतीय टीम मात्र एक सौ नब्बे पर ऑल आउट हो गई, जिसमें पचहत्तर रन अकेले गुंडप्पा विश्वनाथ के थे। तीनों भारतीय स्तंभों ने, यानी कि गावस्कर, कपिल और वेंगसरकर क्रमशः सात पर आठ, बारह पर बारह और सात पर सात रन बना कर चलते बने।
वो तो अच्छा हुआ कि उस समय सोशल मीडिया न थी, अन्यथा इन तीनों स्कोर्स बड़ा मज़ाक़ उड़ाया जाता!
इसी मैच से गार्डन ग्रीनिज का उत्थान हुआ। एक सौ इक्यासी मिनट तक क्रीज़ पर नाबाद टिके रहे। विंडीज ने ये मैच नौ विकेट से जीत लिया था। इस मैच में जो एकमात्र विकेट मिला, वो कपिल देव के खाते में हैं।
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उन्नीस सौ तिरासी में, तीसरे विश्वकप का आग़ाज़ इंग्लैंड वर्सेस न्यूज़ीलैंड से हुआ। इंग्लैंड ने बेहद रोमानी तरीक़े से विजय हासिल की, मगर उस रोमानियत में जुनूनीयत नहीं थी। जिन्हें वो मैच याद हो, वे जानते होंगे कि उस मैच में कहीं कोई विश्वकप वाली बात नहीं थी।
उस मैच में इंग्लैंड के तीन सौ बाइस का पीछा करते हुए, किवी टीम दो सौ सोलह पर ढेर हो गई। ख़ास बात ये रही कि अंग्रेज़ों ने किवी विकेट्स पेयर्स में लिए। यथा दूसरा अट्ठाईस पर, तीसरा इकतीस पर। सातवाँ एक सौ छत्तीस पर, आठवाँ एक से अड़तीस पर!
पहले पेयर ने टॉप ऑर्डर को ध्वस्त किया, दूसरे पेयर ने लोअर मिडल को!
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पाँचवें विश्वकप का आग़ाज़, न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया के मैच से हुआ। पूरा मैच, गत विजेता ऑस्ट्रेलिया के कारनामों को तरसता रहा, मगर सब प्रतीक्षाएँ व्यर्थ गईं। छठवें विकेट के रूप में स्टीव वॉ के बाहर जाते ही पूरी टीम रेत की तरह उड़ गई।
एक सौ निन्यानबे पर छः। दो सौ पर सात। दो सौ पाँच पर आठ। दो सौ छः पर और फ़ाइनली, दो सौ ग्यारह!
इस मैच से दो भ्रम उत्पन्न हो गए। पहला तो ये कि ऑस्ट्रेलिया का चौथा विश्वकप जीतना महज़ एक “स्ट्रोकलेस वण्डर” था और मार्टिन क्रो दुनिया के बेस्ट बॉलिंग अटैक के साथ उतरे हैं। हालाँकि, टूर्नामेंट के आख़िर तक आते आते, पाकिस्तान का बॉलिंग अटैक अपराजेय सिद्ध हुआ!
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दो हज़ार तीन का विश्वकप, पहली बार मुक़ाबलों को अफ़्रीकन कॉंटिनेंट में लेकर गया। सबको उम्मीदें बंध गईं थीं कि इस बार ज़रूर साउथ अफ़्रीका कुछ करेगी।
मगर अफ़्रीकन कॉंटिनेंट के लिए इससे ज़्यादा फ़ीका क्या होगा कि साउथ अफ़्रीका की टीम पहले दौर में ही बाहर हो गयी। बहरहाल, केन्या जैसी टीम का सेमीफ़ाइनल में पहुँचना, अफ़्रीकंस के लिए हवा की ठंडे झोंके जैसा रहा। मगर मेज़बान के ही टूर्नामेंट में न होने ने, इस विश्वकप को फ़ीकेपन से भर दिया था!
हालाँकि, कॉंटिनेंट के लिए उड़ानें सस्ती होने के कारण, इस बार कुल साढ़े छः लाख लोगों ने स्टेडीयम में विश्वकप मैच देखे। ये अपने आप में एक कीर्तिमान है!
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दो हज़ार उन्नीस का विश्वकप, अपने तमाम ऐतिहासिक फ़ीकेपनों के साथ उभरा है। दक्षिण अफ़्रीका जैसी टीम एक सौ चार रन से हार गई, और पाकिस्तान के पेसर्स विंडीज को एक सौ चार पर न सिमटा सके!
न तो अब वो दम साउथ अफ़्रीका में रहा। और न ही वो स्विंग पाकिस्तान के हिस्से आ रही है, जिसका आतंक उनलोगों ने बीती सदी के आख़िरी दशक में मचाया था।
बहरहाल बहरकैफ़।
ये अच्छा भी है कि पाकिस्तान का सफ़ाया विश्व-क्रिकेट से हो जाए। वे कोई विश्व स्तरीय टूर्नामेंट जीतते हैं तो लगता है कि दुनिया सदियों पीछे चली गई है। आयोजन की अग्रिम पंक्ति में बुर्क़ा पहने बहावी इस्लाम की प्रतीक स्त्रियाँ, हर लाइन में “इंशा-अल्लाह” उचारते धार्मिक उन्मादी क्रिकेटर्स। सहज पूछने को दिल करता है, भाई, तुम क्रिकेटर हो या मौलाना!
चूँकि विश्व सभ्यताओं के दिलों में आतंक भरने वाले राष्ट्र के लिए कोई खेल-भावना नहीं होती। सो, यदि इस फ़ीकेपन का प्रयोजन पाकिस्तान का विश्व-क्रिकेट के हाशिए पर जाना है, तो ये फ़ीकापन भी मीठे भविष्य का संकेत है।
अस्तु।
Yogi Anurag
[ चित्र : इंटरनेट से साभार। ]
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